Lord Krishna is part and parcel of a Hindu daily life. All puraanic texts are full in the glory of Krishna. Traditionally, it is considered that puraanic stories have been fabricated to explain mystical vedic mantras and these stories should not be taken in historical sense. Here is an attempt to find out the origin and real meaning of word Krishna in vedic and puraanic texts. This task becomes all the more easier at the present age of modern scientific knowledge. It seems that the whole Hindu mythology is based on – how to decrease the entropy. All sins have been considered as merely increase in entropy of an individual and there are various means to rectify this. The hardest of the path is that of hell. Krishna can be considered a state having the lowest entropy. As has been stated elsewhere also((see for example here), increase in entropy means that though the quantity of energy has remained the same, but this energy has become so much disordered that no useful work can be taken from it. The famous example being given is that of a steam engine where work from steam can be taken only until the steam is enclosed in the piston system. The word meaning of Krishna is where nothing has been left to attract, to plough, all the scattered part of our consciousness have been bound together with a center. Does this concept fit in the framework of puraanic stories ? The answer is yes. The divine play of Krishna and his consorts is called RAASA and this raasa is nothing but to sequentially derive systems of lower entropies from systems of higher entropies. In vedic literature, it has been stated that wherever the fire goes in the forest, it makes the path Krishna/dark. This is a fact of spiritual life. Fire is the essence of our gross body. We sense fire in the form of hunger. In yogic practices, this fire is made to circulate through all the body and wherever this fire goes, it purifies the body. All sins are burnt.

          Vedic literature goes one step further. It contemplates a pair of Krishna and Arjuna, dark and white. It has been stated that the actual place of   dark is in heaven and the place of white is on earth. This type of riddles are yet to be solved. One proposition may be that the system which could not be derived to a lower entropy is the white part. But vedic texts warn that the places of dark and white can go in reverse also. And these texts interpret dark and white in terms of the mantras of Rigveda and Samaveda. It will be more appropriate if this riddle is solved in terms of  combinations of dark earth – white sun and white sun – dark moon. It is worth mentioning here that in mythology, moon is supposed to be situated higher above sun. Another interpretation may be that dark is the state of trance and white is coming down from trance.  

 

First published : 2005AD(Vikrama 2062)

कृष्ण

टिप्पणी कृष्ण के विषय में इस टिप्पणी का आधार ऋग्वेद .५८., .१४०.- -, ..-, .., .., .१०., .६०.१०, .., .२३.१९, १०.२१. आदि का यह सार्वत्रिक कथन है कि अग्नि वन में जहां जहां भी जाती है, वहीं वहीं कृष्ण या काला कर देती है, अर्थात् अग्नि मार्ग में आने वाली वनस्पतियों को जला कर कृष्ण कर देती है इन कथनों को इस प्रकार समझा जा सकता है कि पृथिवी हमारी यह देह है और अग्नि इस भौतिक देह की दीप्ति इस देह के कण - कण में एक काम विद्यमान है( द्र. काम शब्द पर टिप्पणी ) जो बिखरा हुआ है यदि इस काम को भौतिक देह में एकत्रित किया जा सके, एक इकाई बनाया जा सके तो यह अग्नि का, ज्योvति का रूप धारण कर सकता है इसी समस्या का दूसरा पक्ष यह है कि यदि किसी प्रकार अपनी देह में स्थित अग्नियों में से किसी एक को भी, उदाहरण के लिए जठराग्नि या मन को ही, विस्तृत करके विभिन्न अङ्गों पर केन्द्रित किया जा सके तो देह के यह अङ्ग अपने काम वाले अंश का मोचन कर देते हैं और काम एक रस के रूप में, एक मेघ के रूप में परिणत हो जाता है जहां जहां यह अग्नि जाएगी, वहीं कृष्ण स्थिति होती चली जाएगी हमारी जठराग्नि हमारे जठर से नीचे नहीं उतर पाती, अतः देह का अधोभाग कामयुक्त बना रहता है लेकिन मानव समाज ने, विशेषकर भारतीय समाज ने, इस समस्या के हल भी निकाले हैं जो अलग से एक व्यावहारिक विषय है कृष्ण शब्द का विज्ञान की दृष्टि से अर्थ होगा जहां अव्यवस्था न्यूनतम हो जो ऊर्जा अव्यवस्था उत्पन्न कर रही थी, उसे निकाल दिया गया है लगता है कि पुराणों में उपरोक्त तथ्य को देवकी से उत्पन्न उन पुत्रों के रूप में प्रदर्शित किया गया है जिन्हें कंस ने मार डाला था इन पुत्रों को षड्-गर्भ की संज्ञा दी जाती है भागवत पुराण १०.८५ में इनके नाम स्मर, उद्गीथ, पतङ्ग, परिष्वङ्ग, क्षुद्रभृद् और घृणि आए हैं, लेकिन पुराण - पुराण में नामों में अन्तर है यह पहले मरीचि ऊर्णा के पुत्र थे जो शापवश कालनेमि के पुत्र बने फिर कालनेमि के पिता हिरण्यकशिपु ने इन्हें सोते रहने और अपने पिता के हाथों मारे जाने का शाप दिया द्वापर में यह देवकी - पुत्रों के रूप में उत्पन्न हुए जिन्हें कालनेमि के अवतार कंस ने मारा इन पुत्रों में प्रथम स्मर या काम है दूसरा उद्गगीथ जिसके लिए उद्गीथ पर टिप्पणी द्रष्टव्य है यह भक्ति की एक अवस्था है जिसमें मन, प्राण और वाक् तीनों का समावेश रहता है तीसरा पतङ्ग, आकाश में ऊपर की ओर उडने वाला पक्षी है ऋग्वेद आदि में सूर्य को भी पतङ्ग की संज्ञा दी गई है परिष्वङ्ग आलिङ्गन को कहते हैं ऋग्वेद की एक ऋचा में सुपर्ण पक्षी एक ही वृक्ष का परिष्वङ्ग किए रहते हैं ( द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते ) इससे अगली अवस्थाएं क्षुद्रभृत्, क्षुद्र का भरण करने वाली और घृणि, दीप्ति कही गई हैं कालनेमि के पुत्रों के रूप में तो यह अवस्थाएं सोती ही रहती हैं, जाग्रत अवस्था में कभी नहीं पाती, और यदि किसी  प्रकार से वे देवकी के गर्भ से जन्म लेकर प्रस्फुटित होती भी हैं तो कंस उन्हें मार देता है, विकसित नहीं होने देता डा. फतहसिंह के अनुसार कंस शब्द कम् धातु , कामना करने से बना है उसकी पत्नियों का नाम है अस्ति प्राप्ति, जितना है, उससे और अधिक की कामना करना सातवी अवस्था बलराम की, शेष की, ऊर्ध्वमुखी ऊर्जा के आवश्यकता से अधिक संचित हो जाने की है और आठवीं अवस्था में कृष्ण का जन्म होता है अब प्रश्न यह है कि क्या वैदिक साहित्य में इन अवस्थाओं के संकेत मिलते हैं ? यहां यह कहना होगा कि कुछ अवस्थाओं के तो स्पष्ट संकेत मिलते हैं लेकिन पुराणकारों की दृष्टि हमारी दृष्टि से कहीं अधिक पैनी है और उन्होंने षड्-गर्भ के रूप में जो संकेत दिए हैं, वह निराधार नहीं हो सकते

          अब हम कृष्ण को समझने के लिए उस मार्ग का अनुसरण करते हैं जो वैदिक साहित्य में प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होता है वैदिक साहित्य में सार्वत्रिक रूप से ( ऋग्वेद .७३., ऐतरेय ब्राह्मण .२७, तैत्तिरीय ब्राह्मण ..., तैत्तिरीय संहिता ..., शतपथ ब्राह्मण ...१८ ) कहा गया है कि पृथिवी का जो सर्वोत्कृष्ट यज्ञीय भाग था, जिसे कृष्ण कहते हैं, उसे द्युलोक में स्थापित कर  दिया गया वही चन्द्रमा का कृष्ण भाग है ( और द्युलोक का जो सर्वोत्कृष्ट शुक्ल भाग ऊषा था, उसे पृथिवी में स्थापित कर दिया गया ) लगता है कि वैदिक साहित्य में दर्श - पूर्णमास यज्ञ के रूप में और पौराणिक साहित्य में पूर्णिमा व्रत के रूप में उसी चन्द्रमा के, कृष्ण के विकास की प्रक्रिया की जाती है कहा गया है कि चन्द्रमा जितना विकसित होता जाएगा, भूख - प्यास आदि उतनी ही कम होती जाएंगी उपरोक्त कथन का अर्थ यह भी हो सकता है कि काम को कृष्ण बनाने की जो प्रक्रिया पार्थिव स्तर पर आरम्भ हुई थी, उसे चन्द्रमा के स्तर तक ले जाना है मन को चन्द्रमा का प्रतीक कहा जाता है मन से कोई विचार तक भी बाहर निकल पाए, सब का कर्षण हो जाए यह अपेक्षित है आधुनिक खगोल पिण्ड विज्ञान में ब्लैक होल ऐसे ही पिण्ड समझे जाते हैं जिनसे कोई तरङ्ग बाहर नहीं निकल पाती ब्लैक होलों का निर्माण ऐसे सूर्यों से होता है जो अपनी सारी ऊर्जा विकिरण के रूप में खो देते हैं उनके पास ऊर्जा का कोई अतिरिक्त स्रोत नहीं रहता

          पुराणों में जो कृष्ण की लीलाओं का वर्णन किया गया है, उसकी व्याख्या के लिए वैदिक साहित्य के इस सार्वत्रिक कथन ( शतपथ ब्राह्मण ..., तैत्तिरीय ब्राह्मण ..., ..., ..., ... ) का आश्रय लेना होगा कि यज्ञ कृष्ण मृग का रूप धारण करके भाग गया तब देवों ने उसकी शुक्ल कृष्ण लोम वाली त्वचा को उखाड लिया और वही यज्ञ में प्रयुक्त कृष्णाजिन है यहां यह अन्तर्निहित है कि लोम क्या हैं शतपथ ब्राह्मण ... आदि का कथन है  कि छन्द लोम हैं यह माना जा सकता है कि लोम रोमाञ्च की स्थिति हैं शतपथ ब्राह्मण ..., तैत्तिरीय संहिता ..., जैमिनीय ब्राह्मण .६२, .६३, .६६ का कहना है कि शुक्ल कृष्ण लोम क्रमशः ऋक् साम के प्रतीक हैं लेकिन यह भी कहा गया है कि इसका उल्टा भी हो सकता है शुक्ल कृष्ण लोमों का यह प्रसंग प्रायः १२ दिनों के द्वादशाह कहलाने वाले यज्ञ के संदर्भ में है इस यज्ञ में पहले छह दिनों तक आसुरी प्रवृत्तियों से युद्ध चलता रहता है सातवें दिन से लेकर ९वें दिन तक के दिन छन्दोम, आनन्द के दिन कहलाते हैं और १०वां दिन अविवाक्य होता है, आनन्द का वर्णन करने में असमर्थता अतः यह कहा जा सकता है कि प्रथम दिनों को शुक्ल तथा ऋक् का रूप कहा गया है ( ऋक् का अर्थ है अपने पूर्व सञ्चित कर्मों का क्षय करना ) छन्दोमों को कृष्ण या साम रूप कहा गया है यह विचारणीय है कि यदि उल्टा हो तो क्या स्थिति होगी लगता है कि वर्तमान स्थिति में कृष्ण और शुक्ल पृथिवी, सूर्य और चन्द्रमा के सापेक्ष हैं शुक्ल सूर्य के सापेक्ष कृष्ण चन्द्रमा साम की स्थिति है और कृष्णा पृथिवी के सापेक्ष शुक्ल सूर्य साम की स्थिति है पुराणों में हो सकता है कि सूर्य और चन्द्रमा की स्थिति को बलराम/शेष कृष्ण द्वारा दिखाया गया हो ऋग्वेद .. तथा की ऋचाओं में अहश्च कृष्णमहरर्जुनं कहा गया है और ऐतरेय ब्राह्मण .१५ शाङ्खायन ब्राह्मण २३. में इस ऋचा का विनियोग द्वादशाह के छठे दिन के लिए किया गया है जिसमें कृष्ण अर्जुन दोनों स्थितियां होती हैं छठा दिन युद्ध की दृष्टि से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण होता है उस दिन वृत्र का वध होता है सातवें दिन केवल कृष्ण स्थिति ही रह जाएगी अतः ऐसा प्रतीत होता है कि पुराणों में शुक्ल ऋक् और कृष्ण साम के द्वन्द्व को प्रदर्शित करने के लिए अर्जुन और कृष्ण के सखाभाव को चुना गया है जैसा कि अर्जुन शब्द की टिप्पणी में कहा जा चुका है, अर्जुन श्वेत को कहते हैं ( अन्य दृष्टिकोण से, मेघों से पूर्ण आकाश को कृष्ण, नील कहते हैं, जबकि वर्षण को अर्जुन की, घर्ममेघ समाधि की स्थिति कहते हैं ) पुराणों में कृष्ण यमलार्जुन का उद्धार उखा/उषा द्वारा करते हैं और यह विचारणीय है कि क्या अर्जुन, उषा कृष्ण क्रमिक स्थितियां हैं ?

वैदिक साहित्य में शुक्ल और कृष्ण के द्वन्द्व के अतिरिक्त त्रिवृत्~ अवस्था के भी सार्वत्रिक रूप से उल्लेख हैं ऐतरेय ब्राह्मण .२२ के अनुसार जो चक्षु या अक्षि का श्वेत भाग है, वह पृष्ठ~य षडह (यज्ञ के पहले छह दिन ) की भांति है, जो अक्षि का अंश कृष्ण भाग है, वह छन्दोम दिनों की भांति है और जो अक्षि में कनीनका है, वह दशम दिन की भांति है शतपथ ब्राह्मण १०... तथा जैमिनीय ब्राह्मण .३२४ के अनुसार जो सूर्य का बाहर का मण्डल है, वह शुक्ल अक्षि की भांति है, जो सूर्य की अर्चि वाला कृष्ण भाग है, वह कृष्ण अक्षि तथा जो मण्डल में हिरण्य पुरुष है, वह अक्षि में विद्यमान पुरुष की भांति है शतपथ ब्राह्मण १४... में त्रिवृत्~ अवस्था का वर्णन थोडा भिन्न प्रकार से है ऐसा लगता है कि वैदिक साहित्य की कृष्ण और पुरुष की अवस्थाओं को मिलाकर पुराणों में एक कृष्ण पुरुष को प्रस्तुत किया गया है तैत्तिरीय ब्राह्मण ... ..., शतपथ ब्राह्मण ... तैत्तिरीय संहिता ..११. में कृष्णोऽस्याखरेष्ठो अग्नये स्वाहा इत्यादि यजु का उल्लेख है जिसके संदर्भ में कहा गया है कि अग्नि कृष्ण ( मृग ) का रूप धारण कर वनस्पतियों में विलीन हो गया अतः कृष्ण इध्म के रूप में वनस्पतियों को पुनः अग्नि में डाल कर अग्नि का अग्नि से मिलन कराया जाता है इस यजु में आखर मृग के व्रज को कहते हैं यहां आखरेष्ठ शब्द है , अपने को केवल आखर तक सीमित रखने वालों में श्रेष्ठतम यह विचारणीय है कि क्या यह स्थिति कृष्ण पुरुष की ओर संकेत हो सकती है ? यह उल्लेखनीय है कि इस यजु में कृष्ण शब्द में कृ अक्षर उदात्त है ऋग्वेद की ऋचाओं में प्रायः कृष्ण शब्द में कृ अक्षर अनुदात्त और उदात्त रूप में आया है केवल कृष्ण आङ्गिरस ऋषि के सूक्त .८५. में कृष्ण शब्द में कृ अक्षर उदात्त आया है अन्यत्र वैदिक साहित्य में जहां यज्ञ कृष्ण मृग बनकर भागा, वहां प्रायः कृष्ण शब्द में कृ उदात्त आया है ( शतपथ ब्राह्मण ..., तैत्तिरीय ब्राह्मण ..., ..., शतपथ ब्राह्मण ...२८ ) तैत्तिरीय संहिता ..११. में वरुण राजा के लिए कृष्ण पशु के आलभन के निर्देश में कृष्ण में कृ उदात्त है तैत्तिरीय संहिता ... में शंयु बार्हस्पत्य मेधा की प्राप्ति हेतु कृष्ण होकर अग्नि में प्रवेश  करता है यहां भी कृष्ण शब्द में कृ उदात्त है क्या यह कहा जा सकता है कि कृ उदात्त वाली अवस्था कृष्ण के एकान्तिक पुरुष की अवस्था से और कृ अनुदात्त वाली अवस्था कृष्ण के साम वाली, नृत्य वाली, रास वाली अवस्था से सम्बन्धित है ?

          जैमिनीय ब्राह्मण .२८, .२९ .६० में संवत्सर के संदर्भ में सूर्य चन्द्रमा की स्थितियों  को दर्शाया गया है कहा गया है कि जो सूर्य का श्वेत भाग है, वह संवत् और जो कृष्ण भाग है, वह सर है इससे अगली स्थिति वह है जहां सूर्य संवत् है और चन्द्रमा सर है क्योंकि सूर्य सायंकाल चन्द्रमा में ही सरता है यह उल्लेख पुराणों में कृष्ण की रास की स्थिति की व्याख्या करने में उपयोगी हो सकता है क्योंकि सर शब्द रस का उल्टा है

          पुराणों में कृष्ण के राधा के साथ रास का वैदिक साहित्य में प्रत्यक्ष रूप में तो कोई प्रमाण नहीं मिलता है लेकिन पुराणों में राधा को षोडशी कला का प्रतीक कहा गया है जिसके कारण चन्द्रमा का क्षय नहीं होता चन्द्रमा की अन्य १५ कलाएं चन्द्रमा के क्षय - वृद्धि रूप से सम्बद्ध हैं तैत्तिरीय संहिता ... में वृष्टिकामी के लिए प्राजापत्य कृष्ण पशु के आलभन का निर्देश है प्रजापति की स्थिति १७वी होती है वृष्टि को आनन्द की वृष्टि मान सकते हैं अतः यह कहा जा सकता है कि पुराणों में प्राजापत्य कृष्ण का राधा से रास चित्रित किया गया है लेकिन यह उल्लेखनीय है कि प्रजापति प्रजा की सृष्टि करते हैं, जबकि राधा कृष्ण के रास से आनन्द के अतिरिक्त और कोई सृष्टि नहीं होती

          ऋग्वेद .. की ऋचा आदस्य वातो अनु वाति शोचि अध स्म ते व्रजनं कृष्णमस्ति का विनियोग शतपथ ब्राह्मण ...१२, तैत्तिरीय संहिता ... जैमिनीय ब्राह्मण .२०७ में किया गया है इस ऋचा के अनुसार जब वायु का प्रवाह होता है तो अग्नि का गमन, व्रजन कृष्ण बन  जाता है यह ऋचा पुराणों में कृष्ण के व्रज का मूल समझने में सहायक हो सकती है व्यावहारिक दृष्टि से भी यह ऋचा उल्लेखनीय है क्योंकि अग्नि के प्रवाह में वायु का प्रवाह बहुत महत्त्वपूर्ण है

          जैसा कि ऊपर आरम्भ में कहा जा चुका है, द्यौ का जो श्रेष्ठतम यज्ञीय रूप था, वह पृथिवी पर  स्थापित करने पर शुक्ल ऊष बना तथा जो पृथिवी का श्रेष्ठतम यज्ञीय भाग था, वह द्युलोक में स्थापित करने पर चन्द्रमा का कृष्ण बना यह विचारणीय है कि क्या यह कृष्ण और अर्जुन के रूप हैं तैत्तिरीय ब्राह्मण ... में उल्लेख है कि कृष्ण ऊष की रक्षा करे और ऊष कृष्ण की

           ऋग्वेद .३५., .३५९ आदि में कृष्ण रजसों का एक वचन बहुवचन में उल्लेख आता है इन कृष्ण रजसों या लोकों का प्रकाशन सूर्य करता है पुराणों में इन रजसों का क्या तुल्य रूप है,  यह अन्वेषणीय है

          ऋग्वेद .८५ से .८७ तक के सूक्तों के ऋषि कृष्ण आङ्गिरस तथा देवता अश्विनौ हैं अश्विनौ प्रातः संधिकाल के देवता हैं जब उषा का आविर्भाव होता है ऋग्वेद १०.४२ से १०.४४ तक के सूक्तों के ऋषि कृष्ण आङ्गिरस तथा देवता इन्द्र हैं इन तीन सूक्तों में अन्तिम ऋचाओं की पुनरावृत्ति की गई है जिनमें गायों द्वारा अमति को तरने, यव द्वारा विश्वा क्षुधा को तरने, व्रजन द्वारा शत्रु? को जीतने की कामना है इसके अतिरिक्त बृहस्पति इन्द्र से विभिन्न दिशाओं में रक्षा की प्रार्थना की गई है

          ऐसा प्रतीत होता है कि दिव्य कृष्ण पुरुष की अपेक्षा पुराणों में पापयुक्त कृष्ण पुरुष की उपेक्षा कर दी गई है वैदिक साहित्य में दोनों प्रकार की अवस्थाओं के उल्लेख मिलते हैं

          कृष्ण के वासुदेव नाम की व्याख्या के संदर्भ में प्रतीत होता है कि कृष्ण से पूर्व की अवस्था वसुओं को देवत्व प्रदान करने की है मत्स्य पुराण .२० में वसुओं के नाम आपः, ध्रुव, सोम, धर, अनिल, अनल, प्रत्यूष प्रभास तथा उनके पुत्रों पत्नियों के नाम आए हैं शतपथ ब्राह्मण ११... के अनुसार अग्नि, पृथिवी, वायु, अन्तरिक्ष, आदित्य, द्यौ, चन्द्रमा, नक्षत्र वसु हैं वासुदेव शब्द की व्याख्या के पूर्व वसु शब्द को समझना अपेक्षित है यह भी हो सकता है कि वसुओं का सम्बन्ध षड्-गर्भ से भी हो

          कृष्ण पर श्री मोतीलाल शास्त्री द्वारा लिखित पुस्तक 'परमेष्ठी कृष्ण का रहस्य' पठनीय है

प्रथम लेखनः- ९.३.२००१ई., २०.१.२००५ई.

कृष्ण की १६ कलाएं कौन सी हो सकती हैं, इस संदर्भ में श्री शार्ङ्गदेव-कृत संगीत रत्नाकर के निम्नलिखित श्लोक उद्धृत किए जा सकते हैं-

ततोऽपि षोडशदलं सोमचक्रमितीरितम्। दलेषु षोडशेष्वस्य कलाः षोडश संस्थिताः॥

कृपा क्षमाऽऽर्जवं धैर्यं वैराग्यधृतिसंमदाः। हास्यं रोमाञ्चनिचयो ध्यानाश्रुस्थिरता ततः॥

गाम्भीर्यमुद्यमोछ्रत्वमौदार्यैकाग्रते क्रमात्। फलान्युद्यन्ति जीवस्य पूर्वादिदलगामिनः॥ - संगीतरत्नाकर १.२.१३५

१९-२-२०१२ई.(फाल्गुन कृष्ण त्रयोदशी, विक्रम संवत् २०६८)

 

संदर्भ

*आ कृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्यं च। हिरण्ययेन सविता रथेनाऽऽ देवो याति भुवनानि पश्यन् ॥ - ऋग्वेद १.३५.२

*अभीवृतं कृशनैर्विश्वरूपं हिरण्यशम्यं यजतो बृहन्तम्। आस्थाद् रथं सविता चित्रभानुः कृष्णा रजांसि तविषीं दधानः ॥ - ऋ. १.३५.४

*हिरण्यपाणिः सविता विचर्षणिरुभे द्यावापृथिवी अन्तरीयते। अपामीवां बाधते वेति सूर्यमभि कृष्णेन रजसा द्यामृणोति ॥ - ऋ. १.३५.९

*वि वातजूतो अतसेषु तिष्ठते वृथा जुहूभिः सृण्या तुविष्वणिः। तृषु यदग्ने वनिनो वृषायसे कृष्णं त एम रुशदूर्मे अजर ॥ - ऋ. १.५८.४

*सनाद् दिवं परि भूमा विरूपे पुनर्भुवा युवती स्वेभिरेवैः। कृष्णेभिरक्तोषा रुशद्भिर्वपुर्भिरा चरतो अन्यान्या ॥ सनेमि सख्यं स्वपस्यमानः सूनुर्दाधार शवसा सुदंसाः। आमासु चिद् दधिषे पक्वमन्तः पयः कृष्णासु रुशद् रोहिणीषु ॥ - ऋ. १.६२.८-९

*त्वे अग्ने सुमतिं भिक्षमाणा दिवि श्रवो दधिरे यज्ञियासः। नक्ता च चक्रुरुषसा विरूपे कृष्णं च वर्णमरुणं च सं धुः ॥ - ऋ. १.७३.७

*आ ते सुपर्णा अमिनन्तँ एवैः कृष्णो नोनाव वृषभो यदीदम्। शिवाभिर्न स्मयमानाभिरागात् पतन्ति मिहः स्तनयन्त्यभ्रा ॥ - ऋ. १.७९.२

*प्रत्यर्ची रुशदस्या अदर्शि वि तिष्ठते बाधते कृष्णमभ्वम्। स्वरुं न पेशो विदथेष्वञ्जञ् चित्रं दिवो दुहिता भानुमश्रेत् ॥ - ऋ. १.९२.५

*प्र मन्दिने पितुमदर्चतो वचो यः कृष्णगर्भा निरहन्नृजिश्वना। अवस्यवो वृषणं वज्रदक्षिणं मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ॥ - ऋ. १.१०१.१

*रुशद्वत्सा रुशती श्वेत्यागादारैगु कृष्णा सदनान्यस्याः। समानबन्धू अमृते अनूची द्यावा वर्णं चरत आमिनाने ॥ - ऋ. १.११३.२

*व्यञ्जिभिर्दिव आतास्वद्यौदप कृष्णां निर्णिजं देव्यावः। प्रबोधयन्त्यरुणेभिरश्वैरोषा याति सुयुजा रथेन ॥ - ऋ. १.११३.१४

*तन्मित्रस्य वरुणस्याभिचक्षे सूर्यो रूपं कृणुते द्योरुपस्थे। अनन्तमन्यद्रुशदस्य पाजः

कृष्णमन्यद्धरितः सं भरन्ति ॥ - ऋ. १.११५.५

*अवस्यते स्तुवते कृष्णियाय ऋजूयते नासत्या शचीभिः। पशुं न नष्टमिव दर्शनाय विष्णाप्वं ददथुर्विश्वकाय ॥ - ऋ. १.११६.२३

*युवं नरा स्तुवते कृष्णियाय विष्णाप्वं ददथुर्विश्वकाय। घोषायै चित् पितृpषदे दुरोणे पतिं जूर्यन्त्या अश्विनावदत्तम् ॥ - ऋ. १.११७.७

*पृथू रथो दक्षिणाया अयोज्यैनं देवासो अमृतासो अस्थुः। कृष्णादुदस्थादर्या विहाया श्चिकित्सन्ती मानुषाय क्षयाय ॥ - ऋ. १.१२३.१

*जानत्यह्नः प्रथमस्य नाम शुक्रा कृष्णादजनिष्ट श्वितीची। ऋतस्य योषा न मिनाति धामाहरहर्निष्कृतमाचरन्ती ॥ - ऋ. १.१२३.९

*इन्द्रः समत्सु यजमानमार्यं प्रावद् विश्वेषु शतमूतिराजिषु स्वर्मीह्ळेष्वाजिषु। मनवे शासदव्रतान् त्वचं कृष्णामरन्धयत्। दक्षन्न विश्वं ततृषाणमोषति न्यर्शसानमोषति ॥ - ऋ. १.१३०.८

*कृष्णप्रुतौ वेविज अस्य सक्षिता उभा तरेते अभि मातरा शिशुम्। प्राचाजिह्वं ध्वसयन्तं तृषुच्युतमा साच्यं कुपयं वर्धनं पितुः ॥ मुमुक्ष्वो मनवे मानवस्यते रघुद्रुवः कृष्णसीतासु ऊ जुवः। असमना अजिरासो रघुष्यदो वातजूता उप युज्यन्त आशवः ॥ आदस्य ते ध्वसयन्तो वृथेरते कृष्णमभ्वं महि वर्पः करिक्रतः। यत् सीं महीमवनिं प्राभि मर्मशदभिश्वसन् त्स्तनयन्नेति नानदत् ॥ - ऋ. १.१४०.३-५

*वि यदस्थाद् यजतो वातचोदितो ह्वारो न वक्वा जरणा अनाकृतः। तस्य पत्मन् दक्षुषः कृष्णजंहसः शुचिजन्मनो रज आ व्यध्वनः ॥ रथो न यातः शिक्वभिः कृतो द्यामङ्गेभिररुषेभिरीयते। आदस्य ते कृष्णासो दक्षिi सूरयः शूरस्येव त्वेषथादीषते वयः ॥ - ऋ. १.१४१.७-८

*कृष्णं नियानं हरयः सुपर्णा अपो वसाना दिवमुत्पतन्ति। त आववृत्रन् त्सदनादृतस्यादिद् घृतेन पृथिवी व्युद्यते ॥ - ऋ. १.१६४.४७

*आ यो वना तातृषाणो न भाति वार्ण पथा रथ्येव स्वानीत्। कृष्णाध्वा तपू रण्वश्चिकेत द्यौरिव स्मयमानो नभोभिः ॥ स यो व्यस्थादभि दक्षदुर्वीं पशुनैrति स्वयुरगोपाः। अग्निः शोचिष्माँ अतसान्युष्णन् कृष्णव्यथिरस्वदयन्न भूम ॥ - ऋ. २.४.६-७

*स वृत्रहेन्द्रः कृष्णयोनीः पुरंदरो दासीरैरयद्वि। अजनयन् मनवे क्षामपश्च सत्रा शंसं यजमानस्य तूतोत् ॥ - ऋ. २.२०.७

*त्वं नृचक्षा वृषभानु पूर्वीः कृष्णास्वग्ने अरुषो वि भाहि। वसो नेषि च पर्षि चात्यंहः कृधी नो राय उशिजो यविष्ठ ॥ -ऋ. ३.१५.३

*अदेदिष्ट वृत्रहा गोपतिर्गा अन्तः कृष्णाf अरुषैर्धामभिर्गात्। प्र सूनृता दिशमान ऋतेन दुरश्च विश्वा अवृणोदप स्वाः ॥ - ऋ. ३.३१.२१

*नाना चक्राते यम्या वपूंषि तयोरन्यद्रोचते कृष्णमन्यत्। श्यावी च यदरुषी च स्वसारौ महद् देवानामसुरत्वमेकम् ॥ - ऋ. ३.५५.११

*ऋतेन ऋतं नियतमीळ आगोरामा सचा मधुमत् पक्वमग्ने। कृष्णा सती रुशता धासिनैषा जामर्येण पयसा पीपाय ॥ - ऋ. ४.३.९

*कृष्णं त एम रुशतः पुरो भाश्चरिष्ण्वर्चिर्वपुषामिदेकम्। यदप्रवीता दधते ह गर्भं सद्यश्चिज्जातो भवसीदु दूतः॥ - ऋ. ४.७.९

*त्वं पिप्रुं मृगयं शूशुवांसमृजिश्वाने वैदथिनाय रन्धीः। पञ्चाशत् कृष्णा नि वपः सहस्रा ऽत्कं न पुरो जरिमा वि दर्दः ॥ - ऋ. ४.१६.१३

*अयं चक्रमिषणत् सूर्यस्य न्येतशं रीरमत् ससृमाणम्। आ कृष्ण ईं जुहुराणो जिघर्ति त्वचो बुध्ने रजसो अस्य योनौ। असिक्न्यां यजमानो न होता ॥ - ऋ. ४.१७.१४

*प्र नव्यसा सहसः सूनुमच्छा यज्ञेन गातुमव इच्छमानः। वृश्चद्वनं कृष्णयामं रुशन्तं वीती होतारं दिव्यं जिगाति ॥ - ऋ. ६.६.१

*अहश्च कृष्णमहरर्जुनं च वि वर्तेते रजसी वेद्याभिः। वैश्वानरो जायमानो न राजा ऽवातिरज्ज्योतिषाग्निस्तमांसि ॥ - ऋ. ६.९.१

*आ यः पप्रौ जायमान उर्वी दूरेदृशा भासा कृष्णाध्वा। अध बहु चित् तम ऊर्म्यायास्तिरः शोचिषा ददृशे पावकः ॥ - ऋ. ६.१०.४

*दिवेदिवे सदृशीरन्यमर्धं कृष्णा असेधदप सद्मनो जाः। अहन् दासा वृषभो वस्नयन्तोदव्रजे वर्चिनं शम्बरं च ॥ - ऋ. ६.४७.२१

*तमीळिष्व यो अर्चिषा वना विश्वा परिष्वजत्। कृष्णा करोति जिह्वया ॥ - ऋ. ६.६०.१०

*प्रोथदश्वो न यवसेऽविष्यन् यदा महः संवरणाद् व्यस्थात्। आदस्य वातो अनु वाति शोचिरध स्म ते व्रजनं कृष्णमस्ति ॥ - ऋ. ७.३.२

*अयमु ष्य सुमहाँ अवेदि होता मन्द्रो मनुषो यह्वो अग्निः। वि भा अकः ससृजानः पृथिव्यां कृष्णपविरोषधीभिर्ववक्षे ॥ - ऋ. ७.८.२

*अप स्वसुरुषसो नग्जिहीते रिणक्ति कृष्णीररुषाय पन्थाम्। अश्वामघा गोमघा वां हुवेम दिवा नक्तं शरुमस्मद् युयोतम् ॥ - ऋ. ७.७१.१

*इमं घा वीरो अमृतं दूतं कृण्वीत मर्त्यः। पावकं कृष्णवर्तनिं विहायसम् ॥ - ऋ. ८.२३.१९

*यः श्वेताँ अधिनिर्णिजश्चक्रे कृष्णाf अनु व्रता। स धाम पूर्व्यं ममे यः स्कम्भेन वि रोदसी अजो न द्यामधारयन्नभन्तामन्यके समे ॥ - ऋ. ८.४१.१०

*कृष्णा रजांसि पत्सुतः प्रयाणे जातवेदसः। अग्निर्यद् रोधति क्षमि ॥ - ऋ. ८.४३.६

*अयं वां कृष्णो अश्विना हवते वाजिनीवसू। मध्वः सोमस्य पीतये ॥ (ऋषिः कृष्ण आङ्गिरसः, दे.अश्विनौ) - ऋ. ८.८५.३

*शृणुतं जरितुर्हवं कृष्णस्य स्तुवतो नरा। मध्वः सोमस्य पीतये ॥ छर्दिर्यन्तमदाभ्यं विप्राय स्तुवते नरा। मध्वः सोमस्य पीतये ॥ - ऋ. ८.८५.४-५

*त्वमेतदधारयः कृष्णासु रोहिणीषु च। परुष्णीषु रुशत् पयः ॥ - ऋ. ८.९३.१३

*अव द्रप्सो अंशुमतीमतिष्ठदियानः कृष्णो दशभिः सहस्रैः। आवत्तमिन्द्रः शच्या धमन्तमप स्नेहितीर्नृमणा अधत्त ॥ द्रप्समपश्यं विषुणे चरन्तमुपह्वरे नद्यो अंशुमत्याः। नभो न कृष्णमवतस्थिवांसमिष्यामि वो वृषणो युध्यताजौ ॥ - ऋ. ८.९६.१३-१४

*प्र ये गावो न भूर्णयस्त्वेषा अयासो अक्रमुः। घ्नन्तः कृष्णामप त्वचम् ॥ - ऋ. ९.४१.१

*पवमान ऋतं बृहच्छुक्रं ज्योतिरजीजनत्। कृष्णा तमांसि जङ्घनत् ॥ - ऋ. ९.६६.२४

*कृष्णां यदेनीमभि वर्पसा भूज्जनयन् योषां बृहतः पितुर्जाम्। ऊर्ध्वं भानुं सूर्यस्य स्तभायन् दिवो वसुभिररतिर्वि भाति ॥ - ऋ. १०.३.२

*यत् ते कृष्णः शकुन आतुतोद पिपीलः सर्प उत वा श्वापदः। अग्निष्टद्विश्वादगदं कृणोतु सोमश्च यो ब्राह्मणाँ आविवेश ॥ - ऋ. १०.१६.६

*कृष्णः श्वेतोऽरुषो यामो अस्य ब्रध्न ऋज्र उत शोणो यशस्वान्। हिरण्यरूपं जनिता जजान ॥ - ऋ. १०.२०.९

*त्वे धर्माण आसते जुहूभिः सिञ्चतीरिव। कृष्णा रूपाण्यर्जुना वि वो मदे विश्वा अधि श्रियो धिषे विवक्षसे ॥। - ऋ. १०.२१.३

*उत कण्वं नृषदः पुत्रमाहुरुत श्यावो धनमादत्त वाजी। प्र कृष्णाय रुशदपिन्वतोधर्ऋतमत्र नकिरस्मा अपीपेत् ॥ - ऋ. १०.३१.११

*अस्तेव सु प्रतरं लायमस्यन् भूषन्निव प्र भरा स्तोममस्मै। वाचा विप्रास्तरत वाचमर्यो नि रामय जरितःसोम इन्द्रम् ॥ (ऋषिः कृष्ण आङ्गिरसः, देवता इन्द्रः) - ऋ. १०.४२.१

*कृष्णा यद्गोष्वरुणीषु सीदद् दिवो नपाताश्विना हुवे वाम्। वीतं मे यज्ञमा गतं मे अन्नं ववन्वांसा नेषमस्मृतध्रू ॥ - ऋ. १०.६१.४

*स सूर्यः पर्युरू वरांस्येन्द्रो ववृत्याद्रथ्येव चक्रा। अतिष्ठन्तमपस्यं न सर्गं कृष्णा तमांसि त्विष्या जघान ॥ - ऋ. १०.८९.२

* उप मा पेपिशत् तमः कृष्णं व्यक्तमस्थित। उष ऋणेव यातय ॥ - ऋ. १०.१२७.७

*द्यावापृथिवी सहाऽऽस्ताम्। ते वियती अब्रूताम्। अस्त्वेव नौ सह यज्ञियमिति। यदमुष्या यज्ञियमासीत्। तदस्यामदधात्। त ऊषा अभवन्। यदस्या यज्ञियमासीत्। तदमुष्यामदधात्। तददश्चन्द्रमसि कृष्णम्। - तैत्तिरीय ब्राह्मण १.१.३.२

*यदिदं दिवो यददः पृथिव्याः। संजज्ञाने रोदसी संबभूवतुः। ऊषान्कृष्णमवतु कृष्णमूषाः। इहोभयोर्यज्ञियमागमिष्ठाः ॥ - तै.ब्रा. १.२.१.२

*कृष्णलं कृष्णलं वाजसृद्भ्यः प्रयच्छति। यमेव ते वाजं लोकमुज्जयन्ति। तं परिक्रीयावरुन्धे ॥ - तै.ब्रा.१.३.६.७

*अन्तत एव निर्ऋतिं निरवदयते। कृष्णं वासः कृष्णतूषं दक्षिणा। एतद्वै निर्ऋत्यै रूपम्। - तै.ब्रा. १.६.१.४

*नैर्ऋतं चरुं परिवृक्त्यै गृहे कृष्णानां व्रीहीणां नखनिर्भिन्नम्। पाप्मानमेव निर्ऋतिं निरवदयते। कृष्णाकूटा दक्षिणा समृद्ध्यै। - तै.ब्रा. १.७.३.४

*- - - - सो (प्रजापतिः) ऽन्तर्वानभवत्। स हरितः श्यावोऽभवत्। - - -स विजायमानो गर्भेणाताम्यत्। स तान्तः कृष्णः श्यावोऽभवत्। तस्मात्तान्तः कृष्णः श्यावो भवति। - - - - तै.ब्रा. २.३.८.१

*नक्तं जाताऽस्योषधे। रामे कृष्णे असिक्नि च। इदँ रजनि रजय। किलासं पलितं च यत् ॥ - तै.ब्रा.२.४.४.१

*त्वे अग्ने सुमतिं भिक्षमाणाः। दिवि श्रवो दधिरे यज्ञियासः। नक्ता च चक्रुरुषसा विरूपे। कृष्णं च वर्णमरुणं च सं धुः ॥ - तै.ब्रा. २.७.१२.५

*अभीवृतं कृशनैर्विश्वरूपम्। हिरण्यशम्यं यजतो बृहन्तम्। आस्थाद्रथं सविता चित्रभानुः कृष्णा रजांसिं तविषीं दधानः ॥ - तै.ब्रा. २.८.६.१

*तन्मित्रस्य वरुणस्याभिचक्षे। सूर्यो रूपं कृणुते द्योरुपस्थे। अनन्तमन्यद्द्रुशदस्य पाजः। कृष्णमन्यद्धरितः संभरन्ति ॥ - तै.ब्रा. २.८.७.२

*इन्द्रो वा अकामयत। दृढोऽशिथिलः स्यामिति। स एतं वरुणाय शतभिषजे भेषजेभ्यः पुरोडाशं दशकपालं निरवपत्कृष्णानां व्रीहीणाम्। - तै.ब्रा. ३.१.५.९

*- - - - - त एतमहोरात्राभ्यां चरुं निरवपताम्। द्वयानां व्रीहीणाम्। शुक्लानां च कृष्णानां च। सवात्योर्दुग्धे। श्वेतायै च कृष्णायै च। ततो वै ते अत्यहोरात्रे अमुच्येते। - तै.ब्रा. ३.१.६.२

*दर्शपूर्णमासेष्टि विधिः :- यज्ञो देवेभ्यो निलायत। कृष्णो रूपं कृत्वा। यत्कृष्णाजिने हविरध्यवहन्ति। यज्ञादेव तद्यज्ञं प्रयुङ्क्ते। - तै.ब्रा. ३.२.५.६

*यज्ञो देवेभ्यो निलायत। कृष्णो रूपं कृत्वा। यत्कृष्णाजिने हविरधिपिनष्टि। यज्ञादेव तद्यज्ञं प्रयुङ्क्ते। - तै.ब्रा. ३.२.६.१

*अग्निर्देवेभ्यो निलायत। कृष्णो रूपं कृत्वा। स वनस्पतीन्प्राविशत्। कृष्णोऽस्याखरेष्ठोऽग्नये त्वा स्वाहेत्याह। - तै.ब्रा. ३.३.६.२

*अह्ने शुक्लं पिङ्गलम्। रात्रियै कृष्णं पिङ्गाक्षम्। - तै.ब्रा. ३.४.१७.१

*इध्म सम्भरण मन्त्र : यत्कृष्णो रूपं कृत्वा। प्राविशस्त्वं वनस्पतीन्। ततस्त्वामेकविँशतिधा। संभरामि सुसंभृता। - तै.ब्रा. ३.७.४.८

*अञ्ज्येताय स्वाहा कृष्णाय स्वाहा श्वेताय स्वाहेत्यश्वरूपाणि जुहोति। रूपैरेवैनं समर्धयति। - तै.ब्रा.३.८.१७. ४

*आग्नेयं कृष्णग्रीवं पुरस्ताल्ललाटे। पूर्वाग्निमेव तं कुरुते। - तै.ब्रा. ३.८.२३.१

*चतुर्थपञ्चमपश्वोर्नियोजनं : आग्नेयौ कृष्णग्रीवौ बाहुवोः। बाहुवोरेव वीर्यं धत्ते। तस्माद्राजन्यो बाहुबली भावुकः। - तै.ब्रा. ३.८.२३.२

*यावत्कृष्णायसं सर्वम्। देवत्रा यच्च मानुषम्। सर्वास्ताः। - तै.ब्रा. ३.१२.६.५

*अव द्रप्सो अंशुमतीमतिष्ठत्। इयानः कृष्णो दशभिः सहस्रैः। आवर्तमिन्द्रः शच्या धमन्तम्। उप स्नुहि तं नृमणामथद्रामिति। - तैत्तिरीय आरण्यक १.६.३

*अत्रिणा त्वा क्रिमे हन्मि - - - - - - अथो कृष्णा अथो श्वेताः - तै.आ. ४.३६.१

*यत्ते कृष्णः शकुन आतुतोद पिपीलः सर्प उत वा श्वापदः। आग्निष्टद्विश्वादनृणं कृणोतु सोमश्च यो ब्राह्मणमाविवेश। - तै.आ. ६.४.२

*मृत्तिकाभिमन्त्रणमन्त्र : उद्धृताऽसि वराहेण कृष्णेन शतबाहुना। भूमिर्धेनुर्धरणी लोकधारिणी। - तै.आ. १०.१.८

*ऋतं सत्यं परं ब्रह्म पुरुषं कृष्णपिङ्गलम्। ऊर्ध्वरेतं विरूपाक्षं विश्वरूपाय वै नमः। - तै.आ. १०.१२.१

*तिलाः कृष्णास्तिलाः श्वेतास्तिलाः सौम्या वशानुगाः। तिलाः पुनन्तु मे पापं यत्किंचिद्दुरितं मयि स्वाहा। - तै.आ. १०.६४.१

*पुरोडाशकरणम् : यज्ञो देवेभ्योऽपचक्राम, स कृष्णो भूत्वा चचार। तस्य देवा अनुविद्य त्वचमेवावच्छायाऽऽजह्रुः। तस्य यानि शुक्लानि च कृष्णानि च लोमानि - तान्यृचां च साम्नां च रूपम्। यानि शुक्लानि तानि साम्नां रूपम्, यानि कृष्णानि तान्यृचाम्। यदि वेतरथा - यान्येव कृष्णानि तानि साम्नां रूपम्, यानि शुक्लानि तान्यृचाम्। यान्येव बभ्रूणीव हरीणि तानि यजुषां रूपम्। - शतपथ ब्राह्मण १.१.४.१

*स यदस्यै पृथिव्या अनामृतं देवयजनमासीत्तच्चन्द्रमसि न्यदधत। तदेतच्चन्द्रमसि कृष्णम्। - श.ब्रा. १.२.५.१८

*प्रोक्षणीरध्वर्युरादत्ते। स इध्ममेवाग्रे प्रोक्षति - कृष्णोऽस्याखरेष्ठोऽग्नये त्वा जुष्टं प्रोक्षामि इति। तन्मेध्यमेवैतदग्नये करोति। - श.ब्रा. १.३.३.१

*पूर्णमासोपचारः :- ते वा एते अग्नीषोमयोरेव रूपमन्वायत्ते। यत् शुक्लम् - तद् आग्नेयम् , यत् कृष्णं तत् सौम्यम्। यदि वेतरथा - यदेव कृष्णं तदाग्नेयम् , यत् शुक्लं तत् सौम्यम्। - - - - -- श.ब्रा. १.६.३.४१

*अग्निहोत्र ब्राह्मणम् : - - - - तस्मादेतदामायां गवि सत्यां शृतम्, अग्निर्हि रेतः। तस्माद्यदि कृष्णायाम्, यदि रोहिण्याम्, शुक्लमेव भवति अग्निसङ्काशम्, अग्नेर्हि रेतः - श.ब्रा. २.२.४.१५

*कृष्णाजिन दीक्षा : यानि शुक्लानि तानि दिवो रूपम्। यानि कृष्णानि तान्यस्यै। यदि वेतरथा यान्येव कृष्णानि - तानि दिवो रूपम्। यानि शुक्लानि तान्यस्यै। यान्येव बभ्रूणीव हरीणि - तान्यन्तरिक्षस्य रूपम्। - श.ब्रा. ३.२.१.१

*अथ जघनेन कृष्णाजिने पश्चात् प्राङ् जान्वाक्न उपविशति। स यत्र शुक्लानां च कृष्णानां च सन्धिर्भवति - तदेवमभिमृश्य जपति - ऋक्सामयोः शिल्पे स्थः इति। यद्वै प्रतिरूपम् - तच्छिल्पम्। - श.ब्रा. ३.२.१.५

*शर्मासि शर्म मे यच्छ इति। चर्म वा एतत् कृष्णस्य तदस्य तन्मानुषम्। शर्म देवत्रा। - श.ब्रा. ३.२.१.८

*यज्ञो हि कृष्णः। स यः स यज्ञः - तत्कृष्णाजिनम्। योषा योनि सा कृष्णविषाणा। - श.ब्रा. ३.२.१.२८

*एषा वा एतस्य स्वा योनिर्भवति - यत्कृष्णविषाणा। तथो हैनमेषा न हिनस्ति। तस्माद्दीक्षितः

कृष्णविषाणयैव कण्डूयेत नान्येन कृष्णविषाणायाः। - श.ब्रा. ३.२.१.३१

*दीक्षित धर्मा: :-अथ यत्र मेक्ष्यन्भवति - तत् कृष्णविषाणया लोष्टं वा, किंचिद्वोपहन्ति। इयं ते यज्ञिया तनूः इति। - - - श.ब्रा. ३.२.२.२०

*सोमानयनम् : अथानड्वाहावाजति। तौ यदि कृष्णौ स्याताम् - अन्यतरो वा कृष्णः। तत्र विद्याद्वर्षिष्यत्यैषमः पर्जन्यः। - श.ब्रा. ३.३.४.११

*स(अग्नीषोमीयः पशुः) द्विरूपो भवति। द्विदेवत्यो हि भवति। देवतयोरसमदे। कृष्णसारंगःस्यादित्याहुः। तद्ध्येनयो रूपतममिवेति। यदि कृष्णसारङ्गं न विन्देदथोऽअपि लोहितसारंगः स्यात्। - श.ब्रा. ३.३.४.२३

*प्रवर्ग्यकर्मणि तानूनप्त्रम् : न ह वाऽएषोऽग्रे तताप - यथा हैवेदमन्यत्कृष्णमेवं हैवास। तेनैवैतद्वीर्येण तपति। - श.ब्रा. ३.४.२.१५

*सर्वे श्यामाः। द्वे वै श्यामस्य रूपे - शुक्लं चैव लोम, कृष्णं च। द्वन्द्वं वै मिथुनं प्रजननम्। - श.ब्रा.५.१.३.९, ५.२.५.८

*त्रिषंयुक्तादियागाः :- कृष्णं वासो वारुणस्य। तद्धि वारुणं - यत् कृष्णम्। यदि कृष्णं न विन्देद् - अपि  यदेव किञ्च वासः स्यात्। - श.ब्रा. ५.२.५.१७

*रत्नयागाः :- स कृष्णानां व्रीहीणां नखैर्निर्भिद्य, तण्डुलान्नैर्ऋतं चरुं श्रपयति। - - - - - तस्य दक्षिणा - कृष्णा गौः परिमूर्णी पर्यारिणी। सा ह्यपि निर्ऋतिर्गृहीता। - श.ब्रा. ५.३.१.१३

*अथैतमभिषेकं कृष्णविषाणयाऽनुविमृष्टे। - श.ब्रा. ५.४.२.४

*श्यामो भवति। द्वयानि वै श्यामस्य लोमानि - शुक्लानि च कृष्णानि च। द्वन्द्वं मिथुनं प्रजननम्। - श.ब्रा. ६.२.२.२

*अभि शुक्लानि च कृष्णानि च लोमानि निष्यूतो भवति। ऋक्सामयोर्हैते रूपे। - - - - श.ब्रा. ६.७.१.७

*नैर्ऋतीष्टकाचयनम् : कृष्णा भवन्ति। कृष्णं हि तत्तम आसीत्। अथो कृष्णा वै निर्ऋतिः। - श.ब्रा. ७.२.१.७

*सोमक्रयण, सोमकाग्निक व्यतिषजनम् : द्वे वाऽअहोरात्रे - शुक्लं च कृष्णं च। द्वे सिकते - शुक्ला च कृष्णा च। एवमु हास्यैता अहोरात्राभ्यामुपहिता भवन्ति। - श.ब्रा. ७.३.१.३८

*लोगेष्टकोपधानम् : तदाहुः - कैतासामसङ्यख्यातानां सङ्ख्येति। द्वेऽइति ब्रूयात्। द्वे हि सिकते - शुक्ला च कृष्णा च। अथो सप्तविंशतिशतानीति ब्रूयात्। - - - श.ब्रा. ७.३.१.४३

*लोकम्पृणेष्टकोपधानम् : न भिन्नां न कृष्णामुपदध्यात्। आर्च्छति वा एषा - या भिद्यते। आर्तम्वेतद्रूपं -  यत्कृष्णम्। - श.ब्रा. ८.७.२.१६

*प्रोथदश्वो न यवसेऽविष्यन् यदा महः संवरणाद् व्यस्थात्। आदस्य वातो अनु वाति शोचिरध स्म ते व्रजनं कृष्णमस्ति इति। यदा वा एतस्य वातोऽनुवाति शोचिरथैतस्य व्रजनं कृष्णं भवति। - श.ब्रा. ८.७.३.१२

*- - - - तथैवैनमयमेतदीयिवांसमुपरिष्टादन्नेन प्रीणात्येतयाऽऽहुत्या। कृष्णायै शुक्लवत्सायै पयसा। रात्रिर्वै कृष्णा शुक्लवत्सा। तस्या असावादित्यो वत्सः। - श.ब्रा. ९.२.३.३०

*मण्डलपुरुषोपासनं ब्राह्मणम् : अथाध्यात्मम्।यदेतन्मण्डलं तपति, यश्चैष रुक्मः - इदं तच्छुक्लमक्षन्। अथ यदेतदर्चिर्दीप्यते, यच्चैतत्पुष्करपर्णम् - इदं तत्कृष्णमक्षन्। अथ य एष एतस्मिन्मण्डले पुरुषः, यश्चैष हिरण्मयः पुरुषः। अयमेव स योऽयं दक्षिणऽक्षन्पुरुषः। - श.ब्रा. १०.५.२.७

*अग्निहोत्रम् : स ह तत एवैतयोः पूर्वयोरुत्तरमन्ववांतरदेशं प्रवव्राजैदु स्त्रियौ कल्याणीं चातिकल्याणीं च। ते अंतरेण पुरुषः कृष्णः पिङ्गाक्षो दण्डपाणिस्तस्थौ। - - - - - -अथ य एते सोऽन्तरेण पुरुषः कृष्णः पिंगाक्षो दंडपाणिरस्थात्। क्रोधो वै सोऽभूत्। स यत् स्रुच्यप आनीय यन्निनयति। तेन क्रोधमवरुन्धे। - श.ब्रा. ११.६.१.१३

*अध्यात्मविद्ब्राह्मणम् : पुरुषो वै संवत्सरः। तस्य पादावेव प्रायणीयोऽतिरात्रः। पादाभ्यां हि प्रयन्ति। तयोर्यच्छुक्लं तदह्नो रूपम्। यत्कृष्णं तद्रात्रेः। नखान्येवौषधिवनस्पतीनां रूपम्। - श.ब्रा. १२.१.४.१

*हस्तावेवोदयनीयोऽतिरात्रः। हस्ताभ्यां ह्युद्यति। तयोर्यच्छुक्लं तदह्नो रूपम्। यत्कृष्णं तद्रात्रेः। नखान्येव नक्षत्राणां रूपम्। - श.ब्रा. १२.१.४.३

*गवामयनीय संवत्सरस्य पुरुषविधोपासनम् : यदिदमक्ष्णः शुक्लम्। स प्रथमः स्वरसामा। यत् कृष्णं, स द्वितीयः। यन्मण्डलं, स तृतीयः। नासिके विषुवान्। यदिदमक्ष्णो मण्डलम्। स प्रथमोऽर्वाक्सामा। यत् कृष्णं, स द्वितीयः। यत् शुक्लं, स तृतीयः। - श.ब्रा. १२.२.४.१५

*सौत्रामण्यां सोमसम्पत्तिः :- त्रय आश्विनं भक्षयन्ति। अध्वर्युः प्रतिप्रस्थाताऽऽग्नीध्रः। त्रिवृद्वा इदं चक्षुः। शुक्लं कृष्णं कनीनका। यथारूपमेवास्मिन् चक्षुर्दधति। - श.ब्रा. १२.८.२.२६

*सौत्रामणी यज्ञात् पुरुषोत्पत्तिः :-तद्यौ ह वा इमौ पुरुषाविवाक्ष्योः। एतावेवाश्विनौ। अथ यत् कृष्णम्। तत्सारस्वतम्। यच्छुक्लम्। तदैन्द्रम्। - श.ब्रा. १२.९.१.१२

*कृष्णग्रीवमाग्नेयं रराटे पुरस्तात्। पूर्वाग्निमेव तं कुरुते। तस्माद्राज्ञः पूर्वाग्निर्भावुकः। - श.ब्रा. १३.२.२.३

*सौर्ययामौ श्वेतं च कृष्णं च पार्श्वयोः। कवचे एव ते कुरुते। - श.ब्रा. १३.२.२.७

*द्विरूप एवैषोऽश्वः स्यात्, कृष्णसारङ्गः। प्रजापतेर्वा एषोऽक्ष्णः समभवत्। द्विरूपं वा इदं चक्षुः - शुक्लं चैव कृष्णं च तदेनं स्वेन रूपेण समर्धयतीति। अथ होवाच सात्ययज्ञिः। त्रिरूप एवैषोऽश्वः स्यात्। तस्य कृष्णः पूर्वार्धः। शुक्लोऽपरार्द्धः। कृत्तिकांजिः पुरस्तात्। तद्यत् कृष्णः पूर्वार्द्धो भवति। यदेवेदं कृष्णमक्ष्णः। तदस्य तत्। अथ यत् शुक्लोऽपरार्द्धः। यदेवेदं शुक्लमक्ष्णः। तदस्य तत्। अथ यत् कृत्तिकांजिः पुरस्तात्। सा कनीनका। स एव रूपसमृद्धः। - श.ब्रा. १३.४.२.४

*एष वै घर्मः। य एष तपति। - - - - अनृतं स्त्री शूद्रः श्वा कृष्णः शकुनिः। तानि न प्रेक्षेत। - श.ब्रा. १४.१.१.३१

*सर्वान्नब्राह्मणं वा शिशुब्राह्मणम् : तद्या इमा अक्षँल्लोहिन्यो राजयः। ताभिरेनं रुद्रोऽन्वायत्तः। अथ या अक्षन्नापः। ताभिः पर्जन्यः। या कनीनका। तया आदित्यः। यत् शुक्लं, तेनाग्निः। यत् कृष्णं, तेनेन्द्रः। - श.ब्रा. १४.५.२.३

*इध्मसंनहनार्था मन्त्राः :- (अथेध्मं विस्रस्य प्रोक्षति) कृष्णोऽस्याखरेष्ठोऽग्नये त्वा स्वाहा वेदिरसि बर्हिषे त्वा स्वाहा - - - - तैत्तिरीय संहिता १.१.१०.१

*राजसूयविषयनैर्ऋतमन्त्राणां अभिधानम् : ये प्रत्यञ्चः शम्याया अवशीयन्ते तं नैर्ऋतमेककपालं कृष्णं वासः कृष्णतूषं दक्षिणा - तै.सं. १.८.१.१

*नैर्ऋतं चरुं परिवृक्त्यै गृहे कृष्णानां व्रीहीणां नखनिर्भिन्नं कृष्णा कूटा दक्षिणा - तै.सं. १.८.९.१

*राजसूयविषयाणां देवसुवां हविषामभिधानम् : अग्नये गृहपतये पुरोडाशमष्टाकपालं निर्वपति कृष्णानां व्रीहीणां - - - - तै.सं. १.८.१०.१

*वरुणगृहीतादिपशुविधानम् : प्रजापतिः प्रजा असृजत ता अस्मात्सृष्टाः पराचीरायन्ता वरुणमगच्छन्ता अन्वैत्ताः पुनरयाचत ता अस्मै न पुनरदात्सोऽब्रवीद्वरं वृणीष्वाथ मे पुनर्देहीति तासां वरमाऽलभत स कृष्ण  एकशितिपादभवद्यो वरुणगृहीतः स्यात्स एतं वारुणं कृष्णमेकशितिपादमालभेत - तै.सं. २.१.२.१

*असावादित्यो न व्यरोचत तस्मै देवाः प्रायश्चित्तिमैच्छन्तस्मा एता मह्ला आऽलभन्ताऽऽग्नेयी कृष्णग्रीवीं संहितामैन्द्रीं श्वेतां बार्हस्पत्यां - - - यो ब्रह्मवर्चसकामः स्यात्तस्मा एता मह्ला आ लभेत - - - - -तै.सं. २.१.२.४

*वसन्ता प्रातराग्नेयी कृष्णग्रीवीमालभेत ग्रीष्मे मध्यंदिने संहितामैन्द्रीं शरद्यपराह्णे श्वेतां बार्हस्पत्यां - - - तै.सं. २.१.२.५

*आग्नेयं कृष्णग्रीवमालभेत सौम्यं बभ्रुं - - - - - - यदाग्नेयो भवति तेज एवास्मिन्तेन दधाति यत्सोम्यो  ब्रह्मवर्चसं तेन कृष्णग्रीव आग्नेयो भवति तम एवास्मादप हन्ति श्वेतो भवति रुचमेवास्मिन्दधाति बभ्रुः सौम्यो भवति ब्रह्मवर्चसमेवास्मिन्त्विषिं दधाति - - - - - तै.सं. २.१.२.७

*ब्रह्मवर्चसकामादीनां पशुविधिः :-  यः पाप्मना गृहीतः स्यात्स आग्नेयं कृष्णग्रीवमा लभेतैन्द्रमृषभम् - तै.सं. २.१.४.६

*प्राजापत्यं कृष्णमा लभेत वृष्टिकामः प्रजापतिर्वै वृष्ट्या ईशे - - - - स एवास्मै पर्जन्यं वर्षयति कृष्णो भवत्येतद्वै वृष्ट्यै रूपं रूपेणैव वृष्टिमव रुन्धे - तै.सं. २.१.८.५

*अन्नाद्यकामादीनां पशुविधिः :- वरुणं सुषुवाणमन्नाद्यं नोपानमत्स एतां वारुणीं कृष्णां वशामपश्यत्तां स्वायै देवताया आऽलभत - - - स एतां वारुणीं कृष्णां वशामा लभेत -- - - - -कृष्णा भवति वारुणी ह्येषा देवतया समृद्ध्यै मैत्रं श्वेतमा लभेत वारुणं कृष्णमपां चौषधीनां च संधावन्नकामो - - - तै.सं. २.१.९.१

*भूतिकामादीनामादित्यचर्वादीष्टिविधिः :- यः परस्ताद्ग्राम्यवादी स्यात्तस्य गृहाद ~व्रीहीनाहरेच्छुक्लांश्च कृष्णांश्च वि चिनुयाद्ये शुक्ला: स्युस्तमादित्यं चरुं निवपेदादित्या वै देवतया विड् - - - ये कृष्णाः स्युस्तं वारुणं चरुं निर्वपेद् वारुणं वै राष्ट्रमुभे एव विशं च राष्ट्रं चाव गच्छति - तै.सं. २.३.१.३

*कारीरीष्टिमन्त्रव्याख्यानम् : मारुतमसि मरुतामोज इति कृष्णं वासः कृष्णतूषं परि धत्त एतद्वै वृष्ट्यै रूपं सरूप एव भूत्वा पर्जन्यं वर्षयति - - - - - वृषा वा अश्वो वृषा पर्जन्यः कृष्ण इव खलु वै भूत्वा वर्षति रूपेणैवैनं समर्धयाति - तै.सं. २.४.९.१,

*कासांचित्पुरोनुवाक्यानामभिधानम् : आ ते सुपर्णा अमिनन्त एवैः कृष्णो नोनाव वृषभो यदीदम्। - तै.सं. ३.१.११.५

*पृषदाज्याभिधानम् : यत्कृष्णशकुनः पृषदाज्यमवमृशेच्छूद्रा अस्य प्रमायुकाः स्युः - तै.सं. ३.२.६.२

*चोडाख्येष्टकाभिधानम् : आदस्य वातो अनु वाति शोचिरध स्म ते व्रजनं कृष्णमस्ति - तै.सं. ४.४.३.३

*सावित्राहुत्यभ्रिस्वीकारयोरभिधानम् : सुषिराऽभ्रिर्भवति सयोनित्वाय स यत्रयत्रावसत्त त्कृष्णमभवत्कल्माषी भवति रूपसमृद्ध्या - तै.सं. ५.१.१.४

*गार्हपत्यचयनम् : द्यावापृथिवीसहास्तां ते वियति अब्रूतामस्त्वेव नौ सह यज्ञियमिति यदमुष्या यज्ञियमासीत्तदस्यामदधात्त ऊषा अभवन्यदस्या यज्ञियमासीत्तदमुष्यामदधात्तददश्चन्द्रमसि कृष्णम् - तै.सं. ५.२.३.३

*उख्याग्निसंवपनम् : नैर्ऋतीः कृष्णास्तिस्रस्तुषपक्वा भवन्ति निर्ऋत्यै वा एतद्भागधेयं यत्तुषा निर्ऋत्यै रूपं कृष्णं रूपेणैव निर्ऋतिं निरवदयत - तै.सं. ५.२.४.२

*क्षेत्रे सिकतावापः :- शंयुं बार्हस्पत्यं मेधा नापानमत्साऽग्निं प्राविशत् सोऽग्ने कृष्णो रूपं कृत्वोदायत - - - - - तै.सं. ५.२.६.५

*स्वयमातृण्णाद्यभिधानम् : चतस्रः पुरस्तादुप दधाति तस्माच्चत्वारि चक्षुषो रूपाणि द्वे शुक्ले द्वे कृष्णे - तै.सं. ५.३.१.४

*परिषेचनाद्यभिधानम् : मृत्युर्वा एष यदग्निर्ब्रह्मण एतद्रूपं यत्कृष्णाजिनं कार्ष्णी उपानहावुप मुञ्चते ब्रह्मणैव मृत्योरन्तर्धत्ते - तै.सं. ५.४.४.४

*अश्वमेधशेषभूतप्रथमपशुसंघविधिः :- इन्द्राय राज्ञे सूकरो वरुणाय राज्ञे कृष्णो यमाय राज्ञ ऋश्य - - - - तै.ब्रा. ५.५.११.१

*- - - - एण्यह्ने कृष्णो रात्रियै - तै.सं. ५.५.१५.१

*शार्ङ्गस्तरक्षुः कृष्णः श्वा चतुरक्षो गर्दभस्त इतरजनानाम् - तै.सं. ५.५.१९.१

*आग्नेयः कृष्णग्रीवः सारस्वती मेषी बभ्रुः सौम्यः पौष्णः - - - तै.सं. ५.५.२२.१

*पिशङ्गौ तूपरौ मारुतः कल्माष आग्नेयः कृष्णोऽजः सारस्वती मेषी वारुणः कृष्ण एकशितिपात्पेत्वः। - तै.सं. ५.५.२४.१

*ब्रह्म वै छन्दांसि ब्रह्मण एतद्रूपं यत्कृष्णाजिनं कार्ष्णी उपानहावुपमुञ्चते छन्दोभिरेवाऽऽत्मानं छादयित्वाऽग्निमुप चरत्यात्मनोऽहिंसायै - तै.सं. ५.६.६.१

*तिस्रः कृष्णा वशा वारुण्यस्तिस्रः श्वेता वशाः सौर्यो - तै.सं. ५.६.११.१

*आग्नेन्द्राः कृष्णललामास्तूपराः - तै.सं. ५.६.१७.१

*वारुणी कृष्णे वशे अराड्यौ दिव्यावृषभौ परिमरौ - तै.सं. ५.६.२१.१

*चितिस्पर्शाद्यभिधानम् : अश्वावभितस्तिष्ठेतां कृष्ण उत्तरतः श्वेतो दक्षिणतस्तावालभ्येष्टका उप दध्यादेतद्वै प्रजापते रूपं प्राजापत्योऽश्वः - - - - - - - - एतद्वा अह्नो रूपं यच्छ्वेतोऽश्वो रात्रियै कृष्ण एतदह्नः रूपं यदिष्टका रात्रियै पुरीषमिष्टका उपधास्यञ्छ~वेतमश्वम् अभिमृशेत्पुरीषमुपधास्यन् कृष्णमहोरात्राभ्यामेवैनं चिनुते - तै.सं. ५.७.१.२

*पुनः परीन्धनाद्यभिधानम् : तमो वा एतं गृह्णाति यस्याग्निरुख्य उद्वायति मृत्युस्तमः कृष्णं वासः कृष्णा धेनुर्दक्षिणा - तै.सं. ५.७.५.१

*कृष्णाजिनादिभिर्दीक्षाकरणाभिधानम् : तामेष वा ऋचो वर्णो यच्छुक्लं कृष्णाजिनस्यैष साम्नो यत्कृष्णमृक्सामयोः शिल्पे स्थ इत्याहर्क्सामे एवाव रुन्ध एषः वा अह्नो वर्णो यच्छुक्लं कृष्णाजिनस्यैष रात्रिया यत्कृष्णं - तै.सं. ६.१.३.१

*ताँ (सूतवशां) हस्ते न्यवेष्टयत तां मृगेषु न्यदधात्सा कृष्णविषाणाऽभवदिन्द्रस्य योनिरसि मा मा हिंसीरिति कृष्णविषाणां प्र यच्छति - तै.सं. ६.१.३.७

*कृष्णविषाणया कण्डूयतेऽपिगृह्य स्मयते प्रजानां गोपीथाय न पुरा दक्षिणाभ्यो नेतोः कृष्णविषाणामव चृतेद्यत्पुरा - - - - - - - नीतासु दक्षिणासु चात्वाले कृष्णविषाणां प्रास्यति योनिर्वै यज्ञस्य चात्वालं योनिः कृष्णविषाणा - तै.सं. ६.१.३.८

*अश्वमेधगतमन्त्रकथनम् : कृष्णाय स्वाहा श्वेताय स्वाहा पिशङ्गाय स्वाहा - - - तै.सं. ७.३.१८.१

*य आसां कृष्णे लक्ष्मणि सर्दिगृदिं परावधीत्। - तै.सं. ७.४.१९.२

*- - - - सा या लोहितकुल्यास तां कृष्णो नग्नः पुरुषो मुसली जुगोप। अथ या घृतकुल्या तस्यै हिरण्मयाः पुरुषा हिरण्मयैश् चमसैस् सर्वान् कामान् उदचिरे। - जैमिनीय ब्राह्मण १.४२

*सा या लोहितकुल्याभूत् तां कृष्णो नग्नः पुरुषो मुसली जुगोप। - - - - - अथ य एनां कृष्णो नग्नः पुरुषो मुसल्य् अजुगुपत् क्रोधस् स तस्यो तद् एवान्नम् इति। तस्य का निष्कृतिर् इति। यद् एवैतत् स्रुचा प्राश्नाति सा तस्य निष्कृतिस् तया तद् अतिमुच्यत इति। - जै.ब्रा.१.४४

*स यत् प्रथमम् अपाहन् सा कृष्णाविर् अभवत्। यद्द्वितीयम् अपाहन् सा धूम्राविर् अभवत्। यत् तृतीयम् अपाहन् सा फाल्गुन्य् अविर् अभवत्। स यं कामयेत पापीयान् स्याद् इति कृष्णम् अस्य पवित्रे ऽप्यस्येत् पापीयान् एव भवति। - - - - जै.ब्रा. १.८१

*- - - -स एतत् पौष्कलं सामापश्यत्। तेनैषां रूपाणि व्यकरोत् ते नानारूपा अभवन् श्वेतो रोहितः कृष्णः। एकरूपा ह वाव। - जै.ब्रा. १.१६०

*अथ ह स्माह श्वेतकेतुर् आरुणेयो यथाश्वस्य श्वेतस्य कृष्णकर्णस्येत्थादानीतस्य रूपं स्याद् एवम् एवाहम् एतस्य स्तोमस्य रूपं वेद। तावद् दृशेन्यं तावद् वपुषेण्यम्। तस्माद् आत्मा। - जै.ब्रा. १.२४९

*अथोष्णिह्मùकुभौ। चक्षुषी ते। - - - - त्रिपदोर् ऋचोर् भवतः। तस्मात् त्रिवृच् चक्षुश् शुक्लं कृष्णं कनीनिका। - जै.ब्रा. १.२५४

*अथ यस्मात् पृष्ठोक्थैर् नानारूपा असुराः। नानादेवत्यासु स्तुवते। तस्माद् उ प्रजा नानारूपाश् श्वेतो रोहितः कृष्णः। - जै.ब्रा. १.२७८

*तस्य त्रिः प्ररोहति। त्रैष्टुभो वा असाव् आदित्यश् शुक्लं कृष्णं पुरुषः। त्रैष्टुभम् इदं चक्षुश् शुक्लं कृष्णं पुरुषः। - जै.ब्रा. १.३२४

*अथाध्यात्मम्। अयम् एव संवत्सरो यो ऽयं चक्षुषि पुरुषः। तस्य यच् छुक्लं तत् संवद्, येन मध्ये कृष्णं मण्डलं तत् सरः। - - - - - स ब्रूयात् त्रय्य् एव विद्या संवत्। तां हि सर्वे देवास् संवान्ताः। अहोरात्रे एव सरः। ते हीदं सर्वं सरतः। आदित्य एवायनम्। - - - - अन्नम् एव संवत्तद् धीदं सर्वं संवान्तम्। वाग् एव सरः। वाचा हि पुरुषस् सरति। - जै.ब्रा. २.२८-२९

*आदित्य एव संवत्सरः। - - - तस्य यद् भाति तत् संवद्, यन् मध्ये कृष्णं मण्डलं तत् सर इत्य् अधिदेवतम्। अथाध्यात्मम्। अयम् एव संवत्सरो यो ऽयं चक्षुषि पुरुषः। तस्य यच् छुक्लं तत् संवद्, यन् मध्यं कृष्णं मण्डलं तत् सरः। अथो आहुर् - आदित्य एव संवच्, चन्द्रमास् सरः। तम एष सरति। तं पौर्णमास्याम् आप्नोvतीति।। तद् उ वा आहुः - प्राण एव संवद् , वाक् सरः। एताभ्यां हि समश्नुत इति। - जै.ब्रा. २.६०

*अहोरात्रे एव कृष्णाजिनस्य रूपम्। अहर् एव शुक्लस्य रूपं, रात्रिः कृष्णस्य। अथ यद् एतन् मण्डलं ता आपस् तद् अन्नं तद् अमृतम्। - जै.ब्रा. २२.६२

*अयम् एव दीक्षितो यो ऽयं चक्षुषि पुरुषः। तस्य यान्य् अर्वाञ्चि पक्षाणि तानि श्मश्रूणि, यान्य् ऊर्ध्वानि ते केशाः। यद् एव शुक्लं च कृष्णं च तत् कृष्णाजिनस्य रूपम्। शुक्लम् एव शुक्लस्य रूपं, कृष्णं कृष्णस्य। - जै.ब्रा. २.६३

*कृष्णाजिनम् वाव दीक्षितयशसम्। एतद् धि सर्वेषां वेदानां रूपम्। यानि शुक्लानि तानि साम्नां रूपं, यानि कृष्णानि तान्य् ऋचाम्। यदि वेतरथा यान्य् एव बभ्रूणीव हरीणि तानि यजुषाम्। - जै.ब्रा. २.६६

*ऋषभो वृष्णिर् अवीनाम्। ऋषभः कृष्ण एणीनाम्। ऋषभ ऋष्यो रोहिताम्। - जै.ब्रा. २.८७

*एतद् वै केशानां रूपं यद् अतिरात्रः। ये शुक्ला अह्नस् ते रूपं, य कृष्णा रात्र्यै ते। जै.ब्रा. २.२०४

*- - - - तौ ह कृष्णपिशंगे संपादयांचक्रतुः। यस्य श्वेतस्य सतः कृष्णम् अस्ति, कृष्णस्य वा सत श्वेतं, स एव सः प्रजापतिन्यंगः। प्रजापतेर् अक्ष्य् अश्वयत्। तत् परापतत्। तद् अपः प्राविशत्। ततो ऽश्वस् समभवत्। यद् अश्वयत् तस्माद् अश्वः। यच् छ~वेथो समभवत्तस्मात् पूतिर्। यद् अपः प्राविशत् तस्माच् छ~वेतनः। श्वेतस्य वा वै सतो ऽक्ष्णः कृष्णम् अस्ति, कृष्णस्य वा सत श्वेतम्। - जै.ब्रा. २.२६८

*अथैता एण्य एककृष्णाः। एण्यो ह वै नामैता रात्रयः। तासु कृष्णो ऽपि मिथुनत्वाय प्रजननाय। - जै.ब्रा. २.३६९

*अयम् एव लोकः प्रायणीयो ऽतिरात्रः। तस्य यच् छुक्लं तद् अह्नो रूपं, यत् कृष्णं तद् रात्रेश्, चित्राण्य् एव नक्षत्राणाम्। - जै.ब्रा. २.४२९

*- - - -प्रायणीयं ह्य् एतद् अहः। त्वेषा अयासो अक्रमुर् घ्नन्तः कृष्णाम् अप त्वचम् इति पाप्मा वै कृष्णा त्वक्। ताम् एवैतेनापघ्नते। - जै.ब्रा. ३.६०

*कृष्णसर्प उ हैवैनां प्रत्युत्तस्थौ। - जै.ब्रा. ३.१२३

*अथो भूमा वै पशवः। भूमा सूक्तम्। - - - - -तस्मात् पशवो नानारूपाञ् जनयन्त्य् - उत श्वेता कृष्णं जनयन्त्य्, उत कृष्णा श्वेतम् , उत रोहिणी कल्माषम्, उत कल्माषी रोहितम्। - जै.ब्रा. ३.१७५, ३.२०६, ३.२४१

*आद् अस्य वातो अनु वाति शोचिर् अध स्म ते व्रजनं कृष्णम् अस्तीति। यदा वा अग्निं वात उपवाजयत्य् अथ स महद् दीप्यते। तद् एतद् दीप्तिर् एव ब्रह्मवर्चसस्य रूपम्। - जै.ब्रा. ३.२०७

*ये ऽभितप्यमानाद् असृज्यन्त ते ऽरुणाः। ये ऽभितप्ताद् असृज्यन्त ते बभ्रवः। ये दह्यमानाद् असृज्यन्त ते श्वेताश् च कृष्णाश् च। तस्माद् व् अयम् एवाग्निर् दहति श्वेतं चैव कृष्णं च। - जै.ब्रा. ३.२६३

*तद् यत् पर्जन्यस्य वर्षिष्यतः कृष्णं तन् नीलम्। अथ यद् अप्स्व् अन्तर् विद्योतते तत् सुवर्णम्। ताभ्यो ऽवर्षत्। तत् ओदनो ऽजायत। - - - - जै.ब्रा. ३.३४६

*अधिद्युर् नाम लोको यज्ञे विष्ट, आदित्या गोप्तारो, वरुणो ऽधिपतिर्, नीलं रूपं यत् पर्जन्यस्य वर्षिष्यतः कृष्णं तन् नीलं, यद्वा कार्तस्वरस्य मणेर्, अनृते प्रतिष्ठितः। - जै.ब्रा. ३.३४८

*उत्तरा द्वितीयं, सममेषस् तृतीयं, शुक्लं चतुर्थं, कृष्णं पञ्चमं, कनीनिका षष्ठम्। य एवैष पुरुषस् तस्य ये प्राणास् तान्य् उत्तराण्य् अहानि। प्राण एव सप्तमम् अहश्, चक्षुर् अष्टमम्, श्रोत्रं नवमं, वाग् एव दशमम् अहः। - जै.ब्रा. ३.३७९

*तम अस्याम् ऊर्ध्वायां दिशि मरुतो ऽन्वैच्छन्न ईशानमुखाः। ते ऽन्वविन्दन् यत् श्वेतं रूपं तत्। तद् एवास्य त उपासते। तम् एतस्मिन् परे लोके साध्याश् चाप्त्याश् चान्वैच्छन् सवितृमुखाः। ते ऽन्वविन्दन् यद् कृष्णं रूपं तत्। - - - - - जै.ब्रा. ३.३८२

*तं पशवो ऽन्वैच्छन् धातृमुखाः। ते ऽन्वविन्दन् हिरण्यशृङ्गो हिरण्यशफः कृष्ण ऋषभ इति। - - - - स य एतद् एवं वेद ऋषभ एव स्वानां भवति। - जै.ब्रा. ३.३८३

*विश्वमिव हि रूपं रराट्याः शुक्लमिव च कृष्णमिव च। - ऐतरेय ब्राह्मण १.२९

*पशुसृष्टिः :- यानि परिक्षाणान्यासंस्ते कृष्णाः पशवो वन्या लोहिनी मृत्तिका ते रोहिता अथ यद्भस्माऽसीत्तत्पुरुष्यं व्यसर्पद्गौरो गवय उष्ट्रो गर्दभ इति ये चैतेऽरुणा पशवस्ते च इति। - ऐतरेय ब्राह्मण ३.३४

*एतद्वा इयममुष्यां देवयजनमदधाद्यदेतच्चन्द्रमसि कृष्णमिव। - ऐ.ब्रा. ४.२७

*तदेनं समाकुर्वाणं पुरुषः कृष्णशवास्युत्तरत उपोत्थायाब्रवीन्मम वा इदं मम वै वास्तुहमिति - - - ऐ.ब्रा.५.१४

*आग्निमारुतशस्त्रस्य प्रतिपत्सूक्तं : अहश्च कृष्णमहरर्जुनं चेत्याग्निमारुतस्य प्रतिपदहश्चाहश्चेति पुनरावृत्तं पुनर्निनृत्तं षष्ठेऽहनि षष्ठस्याह्नो रूपम् इति - ऐ.ब्रा. ५.१५

*यथा वा अक्ष्येवं पृष्ठ्यः षळहस्तद्यथाऽन्तरमक्ष्णः कृष्णमेवं छन्दोमा अथ यैव कनीनिका येन पश्यति तद्दशममहः इति - ऐ.ब्रा. ५.२२

*त्रिवृद्वै चक्षुः शुक्लं कृष्णं लोहितमिति तौ न पशौ न सोमे करोति पशुना वै चक्षुष्मानध्वरो - शाङ्खायन ब्राह्मण ३.५

*तमाहुर्विरूपः स्याच्छुक्लं च कृष्णं चाहोरात्रयोरूपेण शुक्लं वाऽथ लोहितं वाऽग्नीषोमयोरूपेणेति - शां.ब्रा. १०.३

*अहश्च कृष्णमहरर्जुनं चेति वैश्वानरीयमहरर्जुनं चेति निनृत्तिरन्तः षष्ठमहर्नीव वा अन्तं गत्वा नृत्यति - शां.ब्रा. २३.८

*द्विस्तावद्यावन्मैत्रावरुणस्य कार्ष्णोऽहरहः पर्यासो भवति कृष्णो हैतदाङ्गिरसो ब्राह्मणाच्छंसीयायै तृतीयसवनं ददर्श तस्मात्कार्ष्णोऽहरहः पर्यासो भवति - शां.ब्रा. ३०.९

*तत्सत्यं सदिति प्राणस्तीत्यन्नं यमित्यसावादित्यस्तदेतत्त्रिवृत्त्रिवृदिव वै चक्षुः शुक्लं कृष्णं कनीनिकेति । - ऐतरेय आरण्यक २.१.५

*अथ स्वप्नाः। पुरुषं कृष्णं कृष्णदन्तं पश्यति स एनं हन्ति - - - ऐ.आ. ३.२.४

 

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