This note considers the esoteric aspect of word Ketu as expounded in sacred puraanic and vedic texts. Ketu is considered as one of the 9 planets in Hindu astrology, though modern science considers Rahu and Ketu as nothing but nodes of moon. Their existence is generally told by the famous story of lord Vishnu cutting the head of a demon whose head became Rahu and body became Ketu. But there are other facts which may help  understand the nature of  Ketu. One is that in puraanic texts,  there is mention of the nature of horses of warriors which draw their chariot in the battlefield. At the same time, there is mention of the flag or ketu on chariots of great warriors. This is peculiar that for small warriors, only the nature of horses has been mentioned, but in case of great warriors, both horses and flag have been mentioned. In case of gods, the nature of their carriers and flags will be same. The main difference between carrier and flag/ketu is that the movement of carrier is in horizontal direction, while the movement of flag/ketu is in vertical direction. The flag/ ketu is considered as symbolic of awakened Kundalini power and it is desirable that whatever power is engaged in horizontal movement, this be given a vertical direction. Until the power is confined to this body, this is the form of a horse or carrier, but when this power or Kundalini is able to leave this body and fly freely in the sky, it becomes a ketu. The situation of Ketumaala island has been stated as surrounding Kusha island. Kusha may be symbolic of  drawing our senses inward, while ketu may be a situation of going outward after the inward movement is completed.

          There are indications in vedic texts that ketu may be symbolic of the awakened part over the gross matter. Agni is considered the awakened part of earth, air as awakened part of mid-sky/antariksha and sun of sky. So all these can be called ketus. Not only that, there are various names of Aarun/dawn ketuka Agni according to 6 directions and when respective ketus are established in these six directions, they give rise to creation of various forms of creatures like gods, demons, humans etc.

          Agni is considered as ketu of night and Sun is considered as ketu of day. Goddess of dawn Ushaa has also been named as ketu, or the situation before dawn has been called as ketu. Dawn is a daily affair, a cycle, but vedic texts demand that  there should be no change in one dawn from the other, their entropy should remain the same. If their entropy changes, then these may be called as ketu, not Ushaa. In esoteric sense, Ushaa can be considered as the introduction of living force, awakening force in gross matter. Otherwise, no doubt ketu is a state of lower entropy.

 

केतु

टिप्पणी:  वैदिक साहित्य में ध्वज शब्द बहुत कम प्रकट हुआ है, जबकि पुराणों में प्रायः केतु को ध्वज का पर्याय माना गया है । अतः वर्तमान टिप्पणी हेतु केतु और ध्वज को पर्यायवाची शब्द मान कर विचार किया गया है । केतु शब्द कित् - ज्ञाने धातु से बना है । ध्वज के संदर्भ में पुराणों के कुछ उल्लेख महत्त्वपूर्ण हैं । एक तो यह कि ध्वज जाग्रत कुण्डलिनी शक्ति  का रूप है, और दूसरा यह कि देवताओं के संदर्भ में उनके वाहन और ध्वज के चिह्न एक जैसे हैं । महाभारत तथा पुराणों में विभिन्न योद्धाओं के रथों के अश्वों और रथकेतुओं के उल्लेख आते हैं और किसी योद्धा के रथ के अश्व पलाल धूम्र वर्ण के, किसी के इन्द्र गोप सम वर्ण के आदि आदि कहे गए हैं । प्रायः सभी रथी योद्धाओं के अश्वों का तो उल्लेख आता है, लेकिन रथ का केतु या ध्वज केवल महारथियों के रथों में ही होता है । रथ वाहक अश्वों के जिन वर्णों का उल्लेख पुराणों में मिलता है, पुराणेतर ज्योतिष साहित्य में केतु ग्रह के सम्बन्ध में भी ऐसे ही वर्णों का उल्लेख मिलता है जिसके लिए शब्दकल्पद्रुम (पृ. १८६) में विभिन्न पुस्तकों से उद्धृत अंश द्रष्टव्य हैं । पुराणों में तो सिंहिका व विप्रचित्ति से उत्पन्न १०० केतु संज्ञक पुत्रों का उल्लेख  मात्र ही है, लेकिन शब्दकल्पद्रुम के इस उद्धृत अंश में इन १०० केतुओं का १६ मृत्यु - पुत्र, १० रुद्र - पुत्र, ७ पितामह - पुत्र, १५ औद्दालकि - पुत्र, १७ मरीचि कश्यप - पुत्र, ५ प्रजापति के साथ उत्पन्न, १ धूम से उत्पन्न, १४ सोम के साथ उत्पन्न, एक ब्रह्म के कोप से उत्पन्न कहा गया है । अन्य ग्रन्थों में एक हजार केतुओं का कथन है जो विभिन्न ग्रहों आदि से उत्पन्न हुए हैं । ऋग्वेद १.११९.१ में भी सहस्रकेतुओं का उल्लेख आता है । इसके अतिरिक्त, केतुओं का भौम, अन्तरिक्ष और दिव्य, तीन प्रकार से विभाजन किया गया है । यह वर्गीकरण विभिन्न योद्धाओं के ध्वज चिह्नों जैसे हाथी, अश्व, पक्षी आदि के माध्यम से केतुओं की प्रकृति को समझने में सहायक हो सकता है । प्रश्न यह है कि रथ वाहक अश्व भी केतुओं का रूप हो सकते हैं, क्या इसका कोई वैदिक प्रमाण है ? ऋग्वेद २.११.६ में सूर्य के केतुरूप २ हरियों का उल्लेख है । अथर्ववेद १३.१.२४ में सूर्य के केतुमान हरि अश्वों का उल्लेख है । ऋग्वेद १०.१५६ सूक्त केतुराग्नेय ऋषि का है । इस सूक्त की प्रथम ऋचा में अग्नि को एक अश्व कहा गया है जिसकी सहायता से धन को जीता जाता है । दूसरी ऋचा में इस अग्नि की सहायता से गायों की सृष्टि करने का उल्लेख है । और पांचवी अन्तिम ऋचा में अग्नि को विशः में केतु कहा गया है । अतः यह हो सकता है कि अग्नि के अश्व रूप को केतु रूप में परिवर्तित करना अपेक्षित हो । अश्व की गति तिर्यक् होती है, जबकि केतु ऊर्ध्व दिशा में होता है ।

          ऋग्वेद १.३६.१४, ३.८.८, ३.६१.३, ४.१४.२ में ऊर्ध्व केतु के उल्लेख हैं । यह ऊर्ध्व केतु यज्ञ का यूप भी हो सकता है, अथवा सूर्य या अग्नि या उषा हो सकते हैं । ऋग्वेद ३.८.८ में आदित्यों, रुद्रों, वसुओं आदि की सहायता से यज्ञ के केतु को ऊर्ध्व करने की प्रार्थना की गई है । जैसा कि ध्वज के लौकिक रूप में देखा जाता है, प्रासाद आदि पर सबसे ऊपर ध्वज दण्ड पर ध्वज होता है । अतः पहले केतु को तिर्यक् से ऊर्ध्व रूप देना होता है और सबसे ऊपर बृहत् रूप । केतु ग्रह की उत्पत्ति कुश द्वीप में कही जाती है । पुराणों में कुश द्वीप के परितः केतुमाल द्वीप की स्थिति कही गई है । कुश संकोच का, अन्तर्मुखी होने का प्रतीक है । विपश्यना नामक ध्यान साधना में पहले चेतना को सारे शरीर में घुमाया जाता है । जब चेतना सुई की नोक की भांति पैनी होकर शरीर के कण - कण में प्रविष्ट होने लगे, तब उसे ऊपर ले जाकर शरीर से बाहर ब्रह्माण्ड में ले जाया जाता है और फिर ऊपर, और ऊपर ले जाया जाता है । यह वास्तविक केतु हो सकता है । जब तक वह शरीर में है, वह अश्व रूप हो सकता है । अथवा वह आसुरी केतु का रूप हो सकता है ।

          केतु का यज्ञीय स्वरूप क्या होगा, इस विषय में तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.१०.८.२ का कथन है कि मन्द्र अभिभूति यज्ञों की वाक् है । कहा गया है कि सामान्य अवस्था में प्राण जाग्रत है लेकिन अन्धा है । अपान क्रन्दन करता है, लेकिन बधिर है । चक्षु बिना हस्त वाला है । मन बिना पाद वाला है । श्रोत्र विप्रचित्ति हैं । अतः यह अपेक्षित कि कि वाक् के साथ अग्नि जुडे, प्राण के साथ वायु, चक्षु के साथ सूर्य, मन के साथ चन्द्रमा, श्रोत्र के साथ दिशाएं, रेतः के साथ आपः, शरीर के साथ पृथिवी, लोमों के साथ ओषधि - वनस्पतियां, बल के साथ इन्द्र, मूर्धा के साथ पर्जन्य, मन्यु के साथ ईशान, आत्मा के साथ आत्मा । ऋग्वेद १.१०३.१ में इन्द्र की इन्द्रियों की तुलना केतु से की गई है

          ऋग्वेद की ऋचाओं में सार्वत्रिक रूप से अह के केतु का उल्लेख आया है ( ऋग्वेद ३.३४.४, ६.७.५, ७.५.५, १०.८५.१९, १०.८८.१२ आदि ) । अह के इस केतु को कहीं अग्नि, कहीं सूर्य, कहीं उषाएं कहा गया है । अह के संदर्भ में डा. लक्ष्मीश्वर झा आदि का विचार है कि अह में अ से लेकर ह तक सब अक्षरों का समावेश है, अतः यह सम्पूर्ण का वाचक है । जैमिनीय ब्राह्मण ३.५८ के अनुसार जो ध्रुव है, वही अह है । पुराणों के अनुसार ध्रुव ग्रह सब नक्षत्रों की ज्योतियों को एकत्र करके उन्हें नीचे की ओर भेजता है ।अतः कहा जा सकता है कि अह शब्द में सारी ज्योतियां सुरक्षित रहती हैं, अक्षर रहती हैं । जैमिनीय ब्राह्मण ३.५८ में ध्रुव के केतुओं के रूप में छन्दों का उल्लेख आया है । जैमिनीय ब्राह्मण २.२८७ में चतूरात्र यज्ञ में प्रथम दिन के यज्ञ से अह की प्राप्ति, द्वितीय दिन के यज्ञ से अह के केतु की, तृतीय दिन के यज्ञ से रात्रि की और चौथे दिन के यज्ञ से प्रातरह के केतु की प्राप्ति कही गई है ।

          ऋग्वेद की ऋचाओं में कहीं तो केतु/केतुओं को उषाओं के पूर्व ( पुरस्ताद् ) कहा गया है ( ऋग्वेद ७.६७.२), कहीं उषाओं को ही केतु कहा गया है ( ऋग्वेद ३.६१.३, १.९२.१ ) और ऋग्वेद ३.६१.३ में प्रतीची उषाओं को केतु कहा गया है । प्रतीची उषा के संदर्भ में अन्यत्र सायण भाष्य में कहा गया है कि जो उषाएं उदित होकर फिर वैसी ही उदित नहीं होती, नष्ट हो जाती हैं, वह प्रतीची हैं । उषा शब्द की टिप्पणी में यह स्पष्ट किया जा चुका है कि जीवों का प्रबोधन करने के कारण, उनको शान्त अवस्था से अव्यवस्था की ओर ले जाने के कारण उषा आधुनिक विज्ञान की शब्दावली में एण्ट्रापी से सम्बन्धित है । ऋग्वेद की इस ऋचा में यह अपेक्षा की गई है कि प्रतीची उषाएं भी एक चक्र में आएं । जैसी पहले उदित हुई थी, वैसी ही अगले दिन भी उदित हों । इसका अर्थ होगा कि उषा रूप केतु की एण्ट्रापी में, अव्यवस्था के माप में परिवर्तन नहीं होना चाहिए । आधुनिक विज्ञान के दृष्टिकोण से जड जगत में ऐसा कोई उदाहरण नहीं है जहां एक ही चक्र चलता रहे, एण्ट्रापी में परिवर्तन न होने पाए । यह विचारणीय है कि जहां यज्ञ के पूर्व्य केतुओं का उल्लेख आता है ( ऋग्वेद ३.११.३, ७.६७.२ आदि ), क्या वहां प्रतीची उषाओं से तात्पर्य है ? तथा एण्ट्रापी के दृष्टिकोण से अग्नि, उषाओं व सूर्य के केतु बनने में क्या अन्तर है ? । केतुओं के एण्ट्रापी से सम्बन्ध की पुष्टि शतपथ ब्राह्मण ८.२.१.४ से भी होती है जहां उख्य अग्नि की प्रथम चिति को अग्नि का प्रथम केतु कहा गया है ।  चिति अर्थात् विशेष व्यवस्था । तैत्तिरीय आरण्यक १.२३.५ में अरुण केतु को ६ दिशाओं में स्थापित किया गया है (आरुणकेतुक अग्नि पर टिप्पणी पठनीय है) । दक्षिण में स्थापना से अग्नि, पश्चिम् में वायु, उत्तर में इन्द्र, मध्य में पूषा, ऊर्ध्व में देव, मनुष्य, पितर, गन्धर्व, अप्सराओं की उत्पत्ति हुई तथा अधो दिशा में असुर, राक्षस, पिशाच आदि की । यह उल्लेख ऋग्वेद की ऋचाओं में केतुओं की पहेली को हल कर सकता है । केतु के एण्ट्रापी से सम्बन्ध के संदर्भ में एक विरोधाभास उत्पन्न होता है । यदि केतु को चिति की सर्वाधिक व्यवस्था की स्थिति ( न्यूनतम एण्ट्रापी ) मानते हैं तो वह स्थिति बृहत् नहीं हो सकती, जबकि केतु बृहत् की स्थिति है । बृहत् की स्थिति में एण्ट्रापी अधिकतम होती है । इसकी व्याख्या ऐसे की जा सकती है कि बृहत् की स्थिति, जीव की जाग्रत चेतना की स्थिति में ही अधिकतम व्यवस्था उत्पन्न हो, यह अपेक्षित है ।

          जितने सार्वत्रिक रूप से ऋग्वेद की ऋचाओं में अह के केतु का उल्लेख आया है, उससे भी अधिक यज्ञ के केतु का उल्लेख आता है ( ऋग्वेद १.९६.६, १.११३.१९, १.१२७.६, ३.२९.५, ५.११.२, ६.२.३, ६.४.२, ८.४४.१, ९.८६.७, १०.१२२.४ ) । अधिकांश रूप में यज्ञ के केतु के रूप में अग्नि का उल्लेख है । लेकिन १.११३.१९ आदि में उषा का भी यज्ञ के केतु के रूप में उल्लेख है । ऋग्वेद ३.२९.५, ५.११.२ तथा १०.१२२.४ में अग्नि को यज्ञ का प्रथम केतु कहा गया है जो अग्नि मन्थन करने पर उत्पन्न होती है । हो सकता है कि इसी अग्नि रूपी केतु का विकास सूर्य के रूप में होता हो जो अह का केतु बनता हो । रात्रि का केतु अग्नि है ( ऋग्वेद ५.७.४) जो दूर से दिखाई पडता है ।

          पुराणों में राहु और केतु का जो आख्यान रचा गया है, उसका कोई प्रत्यक्ष प्रमाण तो वैदिक साहित्य में नहीं मिलता । ऋग्वेद १०.१५९.२ में केतु और मूर्धा शब्द आए हैं जिससे प्रतीत होता है कि केतु अलग है, मूर्धा अलग, और यह राहु और केतु हो सकते हैं क्योंकि राहु मूर्धा ही है । राहु को वैदिक साहित्य का स्वर्भानु कहा जा सकता है जो सूर्य को तम से आच्छादित करने का प्रयास करता है और उसके निराकरण के लिए विषुवत् अह नामक विशेष याग की आवश्यकता होती है । राहु शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार की गई है कि जो ग्रस कर त्याग देता है ( रह - त्यागे ), जो दोषों को ग्रसता है । राहु रूपी मूर्धा या शिर एकान्तिक साधना का तथा केतु रूपी शरीर सार्वत्रिक साधना का, समाधि से नीचे उतरकर सर्वत्र कोशों में फैलने का प्रतीक हो सकता है । आपस्तम्ब श्रौत सूत्र १.४.१५ में केतु का सम्बन्ध बर्हि से जोडा गया है । बर्हि बृह धातु से निष्पन्न होता है, फैलना । ऋग्वेद ८.१२.७ में भी केतुओं के वक्षन् का, फैलने का उल्लेख है जो विशेष परिस्थिति में ही संभव है । लेकिन छान्दोग्य उपनिषद के छठे अध्याय(६.८) में उद्दालक आरुणि अपने पुत्र श्वेतकेतु को ब्रह्माण्ड में सब कुछ जानने के लिए अणिमा ( सूक्ष्मतम ) को सिद्ध करने का निर्देश देते हैं जो पठनीय है ।

          पुराणों में सूर्य के रथ में घर्म रूपी ध्वज के उल्लेख के संदर्भ में यह कहा जा सकता है कि सभी ध्वज घर्म का ही रूप हैं । शतपथ ब्राह्मण १४.२.२.४१ में घर्म प्रचरण के संदर्भ में रौहिण पुरोडाश की आहुतियां देने का निर्देश है - अह: केतुना जुषतां सुज्योतिर्ज्योतिषा स्वाहा ( प्रातःकाल )और रात्रि: केतुना जुषतां सुज्योतिर्ज्योतिषां स्वाहा ( सायंकाल ) ।

          ध्वज व केतु में अन्तर के संदर्भ में भविष्य पुराण में केतुओं के १० प्रकारों में केतु को ध्वज से नीचे स्थान दिया गया है । शतपथ ब्राह्मण आदि में केतु को चितियों से सम्बद्ध किया गया है । अग्नि की ५ चितियां पूर्ण होने पर फिर अग्नि रूपी सुपर्ण आकाश में उडने के लिए तैयार हो जाता है । अतः यह कहा जा सकता है कि ध्वज में विश्व में व्याप्त होने की जो शक्ति है, वह केतु में नहीं है ।

प्रथम प्रकाशित २००५ई.(विक्रमी संवत् २०६२)

http://www.vedicastrologycenter.net/astrologychart.html

There is much speculation about why they are in this order. I have heard many theories and I like them all. There is a strange harmony to this dasa order that seems to work. It is relevant to view the dasa system as a microcosm of the human life. The dasa system starts with Ketu, as it is the planet where we are closest to God, where the soul is not yet rooted in the body as we often observe in very young children. Ketu is the dasa where we become aware of all that we do not need. Just as the infant only needs breath and minimal sustenance, beyond that he is more essence than substance. Relative human age 0-1 years  


Venus dasa is when this baby is nurtured and cared for by Venus, the nurturer. Venus is the dasa that feeds the fat baby. Hers is the longest dasa as on Earth as we come here to learn to care for each other, in a body first. So this body needs care and courtesy while it is learning. This is the most important time in our lives, when our mind and perceptions about the world are forming. Relative human age 1 -3 years

Sun dasa shows the emergence of our individual identity, ready to shine from his light, no longer feeling the need to be supported by others. This necessary ego-centricity allows a healthy sense of self to emerge, a healthy ego is one where we feel positively empowered, not allowing others to run over our boundaries or us to over run theirs.  Relative human age 4-12 years
Moon dasa is the need to connect this individual experience with others in a meaningful way. It is no longer enough to just feel ourselves shine; we must learn to see ourselves as a reflection through the eyes and experiences of others and reflected back to us in society. We become sensitive like the awkward teenager in the Moon dasa. Relative human age 13 - 19 years
Mars dasa is when we learn to compete with others in the world and learn to make allies instead of enemies out of our competitors; through courage and disciplined action we test our principles in a world of consequence through the gregarious and raucous energy of Mars. Relative human age 20 - 27 years 

Rahu shows our worldly life and our material existence. With the exuberance of youth behind us we are in the world, enmeshed in Maya and accumulation. Marriage, Children, career, and all the trappings of adult worldly life and its ability to veil our higher intelligence is the soul in Rahu dasa. Relative human age 28 - 40   

Jupiter dasa is where we can reclaim our inherent wisdom after Rahu runs us crazy! It is a time when we feel our load has been lightened or at least we feel back in control of our mind. Jupiter comes to provide insight, maturity and life lessons, as he is also Guru, teacher, so we can share some of our wisdom with others. Relative human age 40-55

Saturn dasa is when we will become aware of our limitations and learn to be practical about them. After the enthusiasm of Jupiter, Saturn will bring us back to Earth and make us face reality. Reality is not the optimism of Jupiter it is the cold hard facts of Saturn. Those facts are the death of our body and the temporal nature of all material life. Saturn will give us the time to work through our karma in isolation.  Relative human age 55 – 65

Mercury dasa is when we can become like a child again, playful and non-judgmental, but through knowledge and clear thinking, not through ignorance. After the practical heaviness of Saturn our mind is clear and open and capable of discrimination, jnana yoga. Relative human age 65 - ? 

 

 

2 http://www.goravani.com/lessons/RahuKetu.html

 

Ketu is the highest planet in Jyotish spiritually, because he rules the ultimate truth for us here. Jupiter can teach us all about Dharma, but Ketu really drives it home. Ketu and Saturn help us to realize the teachings of Jupiter and they alone teach us that we must be humble. Jupiter is too soft as is Venus

 

http://www.vedicastrologycenter.net/rahuketu.html

 

Rahu and Ketu

 Rahu and Ketu are the karmic forces that pull us into a body so that we may experience the fruit of our karmas and evolve toward that state where desires cease and perfection is realized. Rahu is the main subconscious force of desire that we are struggling with in this life and Ketu the lessons we are trying to finish from previous lives. They are always opposite each other in the chart. They will reside in a house and sign and may also join other planets. 

            Rahu will obsess over all it is associating with as a way to bind us to those areas of life so we will learn those lessons. Ketu will withdrawal from the things he is associated with as those are recently learned lessons or areas of life where we are developing detachment. Where Ketu is there can be a sense of feeling used up in that area of life. The Houses of Nodal location show the areas of life affected, the signs show the mental quality of this affectation.

            Having just learned these things in previous lives, Ketu will not put much effort into them, yet he will have much skill and understanding with them and an expectation of fulfillment in that area, in spite of the neglect. Still, Ketu’s shows where we must finish a cycle of karma, so there is still work left to be done with where he is.

 

 

http://www.sanatansociety.org/vedic_astrology_and_numerology/vedic_astrology_horoscopes_ketu.htm

 

 

http://www.astrologicalgem.com/brahaart3.html

 

third house, the house of music, dance, and drama (this differs from Western astrology which attributes fine arts to the fifth house). 

 

 

http://www.komilla.com/pages/rahu-ketu.html#UnderstandingRahuand

 

Vedic Hymn to Ketu

' Decked with silk, flowers, garlands, sandal paste and an umbrella, of variegated colour, born of Jaimini's family under Abhijit Nakshatra…'

Ketu is the lower part of the celestial snake.

This hymn shows the main difference between Rahu and Ketu, Rahu is dark in colour but Ketu has a variegated colour. Therefore it has the capacity to shine a light on you suddenly, bring about enlightenment.

Ketu is born to the Jaimini family who followed the Mimasa school of philosophy. Their main concern was the correct interpretations of the vedic rituals and settling any controversies about the Vedic texts.  Ketu himself is guiding towards meditation of the nature of creation, intuitiveness, the true understanding of universe and the guidance of the soul towards it's final salvation or Moksha.

Ketu causes great impediments in your paths. It sets up roadblocks, traffic jams, boulders in your journey of life. It causes pain. It wants to change your psyche. You learn to leave your excess baggage of past Karma behind. Travel lightly into your this existence so that you can understand there are areas of your life which need to address and some left behind. Those unable to harness the power of Ketu or understand its karmic path can be lead to a sorrowful existence. Sometimes it is difficult for any one do stand in the way of Ketu power. We need to accept and understand the divine plan which is part of our destiny and Ketu is doing its work to produce in you the enlightenment  which would lead to true enlightenment and honour. The effect of the Ketu problems are like the going through the ritual of fire from which one comes out stronger more powerful to be able to take on the problems thrown at us

 Ketu will act like Mars and so will it's dispositor. Fiery in nature, it signifies accidents or injury specially due to fire.

Ketu rules 7 years in the planetary life cycle. Ketu always has a sting in it's tale. So the ending of Ketu Maha Dasha one has to be vary of unexpected happening

Ketu is considered the keeper of the book of our life- past and present Karmas.

Ketu is known as Dhwajah- flag. It's association  with in dignity with a planet has the capacity to boost it's capabilities- good or bad beyond recognition for lotteries and windfall.  Ketu in conjunction with a benefic can give beyond your wildest expectations.

Some of the signification of Ketu are Ascetics, assassinations, trouble through cats, calirvoyance, contemplation, desire for knowledge, deep thinking, imprisonment, poison, intrigues, magical powers, poverty, mysticism etc.

Ketu and the Nakshatras

The Nakshatra's Ketu rules are Ashwini (Aries), Magha (Leo) and Mula (Sagittarius), the fire triplicity.  These are the beginning stages in the cycles of life. Mars, Sun and Jupiter the rulers of Aries, Leo and Sagittarius are friends with each other. Together  they represent strength, the soul and wisdom, Ketu has the capacity to give in these areas. A proper blending of these three planets in our  natal charts direct us towards seeking Moksha- the final liberation from the cycle of life and death.

Aries deals with birth, a new life, freshness of approach and start of the cycle of Life.

0 degrees to 13 degrees 20 is Ashwini, the first Nakshatra ruled by Ketu. Ashwini indicates the beginning of the soul's journey into the earthly life. Ketu's rulership of this part of the Zodiac is full of occult significations. Ketu is the significator for Moksha. The beginning part of life indicated by Aries ruled by Ketu Nakshatra shows that the true reason of our manifestation on earth is to find the Moksha- the final salvation from the cycles of life and death. This is the stage where mind is pure and we have not yet entangled ourselves into knots which represent the attachment to life. Sun, the signifactor of the soul, our inner consciousness is exalted in Ashwini. Ashwini is in Aries ruled by Mars.  Ketu acts like Mars but on a psychological level so the purity of Martian action, courage and protection of humanity is powerfully indicated by the planets located here. The past life connection is very strong as Ketu, specially if the Moon is located here.

Magha is the second Nakshatra ruled by Ketu. Magha is in the sign of Leo ( 0 degrees to 13 degrees 20' Leo) ruled by the Sun.  Magha is the beginning of the second cycle in the soul's Journey. The signs Leo to Scorpio indicate the soul's full involvement into the pleasures and pains of the earthly life. Ketu, the significator of spiritual realisation ruling the commencing point of the materialistic journey shows the importance of the experience of the realities of life in fulfilling the divine mission of the Soul. Magha's ruling deity is Pitris, who are the fathers of humanity whose mission is to guide their children to the right course of life. The father's only interfere if you are going off the right path. Ketu and Pitris both guide the soul towards it's special mission in life. Planets in Magha are idealistic even if their mission is to fulfil their materialistic needs. This does create misunderstandings at times. Others suspect their honour and sincerity. Magha gives a lot materially, but the person ruled by Magha knows intuitively that the material happiness is only an experience, he still needs to  follow the inner purpose of life and move towards Moksha.

Mula is the third Nakshatra ruled by Ketu. Mula is 0 degrees to 13 degrees 20' Sagittarius. This is the start of the final part of the Soul's mission towards finding the answers that will lead to his breaking away from the cycles of life and death. This is one of the most difficult Nakshatra for planets to be situated in specially the Moon. The deity that rules Mula is Nittriti, the goddess of death and destruction. This personifies the destruction of the material sheaths and the foundation on which the spiritual enfoldment can be undertaken. The pain experienced by the influence of Mula changes the personality. Attachment to the lower nature and material tendencies have to be severed so that a new spiritual beginning can happen.  This is the Nakshatra of initiation towards spiritual realisation. Ketu fulfills it's role as Moksha karaka by arousing the soul towards it's ultimate destination. Mula means root and it also is Muladhara chakra (Base Chakra) where the Kundalini power lies dormant and has to be activated. Ketu rules this and Rahu with it's rulership of Shatabishak- the Crown Chakra indicate the real spiritual insight provided by the nodes. At times they create powerful negativity to focus your mind towards the absolute knowledge.

The quarters of  Ketu's Nakshatras are ruled by Mars, Venus, Gemini and the Moon. Mars is courage, Venus- the guide to material fulfilment, Mercury the pure intellect and Moon, the emotional Mind. The signs these planets rule are Aries, Taurus, Gemini and Cancer- the four sign that lead the soul towards experiencing the life on earth. Each pada (quarter) represents the ninth harmonic of the natal chart. Together these four signs represent the beginning stages of spiritual development. As  the Ketu Nakshatras represent a point in cycle of life where we have to move towards the divine mission of the soul. They always indicate a beginning and an ending at two different levels. Aries is about discovery of new ideas and the courage to explore them. Taurus is where we nurture the creative potential of our new beginnings. Gemini develops the mind and the recognition of time, space, the working of the universal law. Cancer makes time and space possible. It is ruled by the Moon and Water which also leads us towards purification of mind and harmonising the spiritual and the material. The stages of the soul's journey are different in Ashwini (Mars) Magha (Leo) and Mula (Sagittarius) the underlying urge, represented by the quarters, is still the same- to evolve. The ending of one way of life and the beginning of another.

 

http://www.goravani.com/lessons/Astrologers.html

Ketu and Rahu are like big antennas too however, and can provide an "upline" to God even from a deep cave. Get that? There's your telephone line out if you're buried deep. They are always anti the Gods, ready to do something really intense to the established order of the signs and planets. They're armed and dangerous, as are the less effective but highly malefic outer planets three.

संदर्भ

केतः

*तदिन्नक्तं तद् दिवा मह्यमाहुस् तदयं केतो हृद आ वि चष्टे। शुनःशेपो यमह्वद् गृभीतः सो अस्मान् राजा वरुणो मुमोक्तु ॥ - ऋ. १.२४.१२

*एतायामोप गव्यन्त इन्द्रमस्माकं सु प्रमतिं वावृधाति। अनामृणः कुविदादस्य रायो गवां केतं परमावर्जते नः ॥ - ऋ. १.३३.१

ऊर्ध्वो नः पाह्यंहसो नि केतुना विश्वं समत्रिणं दह । कृधी न ऊर्ध्वाञ्चरथाय जीवसे विदा देवेषु नो दुवः ॥१.३६.१४

एता त्या उषसः केतुमक्रत पूर्वे अर्धे रजसो भानुमञ्जते।

निष्कृण्वाना आयुधानीव धृष्णवः प्रति गावोऽरुषीर्यन्ति मातरः॥ .०९२.०१

रायो बुध्नः संगमनो वसूनां यज्ञस्य केतुर्मन्मसाधनो वेः । अमृतत्वं रक्षमाणास एनं देवा अग्निं धारयन्द्रविणोदाम् ॥१.९६.

*अव त्मना भरते केतवेदा अव त्मना भरते फेनमुदन्। क्षीरेण स्नातः कुयवस्य योषे हते ते स्यातां प्रवणे शिफायाः ॥ - ऋ. १.१०४.३

माता देवानामदितेरनीकं यज्ञस्य केतुर्बृहती वि भाहि । प्रशस्तिकृद्ब्रह्मणे नो व्युच्छा नो जने जनय विश्ववारे ॥१.११३.१९

स हि शर्धो न मारुतं तुविष्वणिरप्नस्वतीषूर्वरास्विष्टनिरार्तनास्विष्टनिः । आदद्धव्यान्याददिर्यज्ञस्य केतुरर्हणा । अध स्मास्य हर्षतो हृषीवतो विश्वे जुषन्त पन्थां नरः शुभे न पन्थाम् ॥१.१२७.

स्तवा नु इन्द्र पूर्व्या महान्युत स्तवाम नूतना कृतानि।

स्तवा वज्रं बाह्वोरुशन्तं स्तवा हरी सूर्यस्य केतू॥ .०११.०६

*नानौकांसि दुर्यो विश्वमायुर्वि तिष्ठते प्रभवः शोको अग्नेः। ज्येष्ठं माता सूनवे भागमादादन्वस्य केतमिषितं सवित्रा ॥ - ऋ. २.३८.५

आदित्या रुद्रा वसवः सुनीथा द्यावाक्षामा पृथिवी अन्तरिक्षम् । सजोषसो यज्ञमवन्तु देवा ऊर्ध्वं कृण्वन्त्वध्वरस्य केतुम् ॥३.८.

मन्थता नरः कविमद्वयन्तं प्रचेतसममृतं सुप्रतीकम् ।यज्ञस्य केतुं प्रथमं पुरस्तादग्निं नरो जनयता सुशेवम् ॥३.२९.

इन्द्रः स्वर्षा जनयन्नहानि जिगायोशिग्भिः पृतना अभिष्टिः ।प्रारोचयन्मनवे केतुमह्नामविन्दज्ज्योतिर्बृहते रणाय ॥३.३४.

उषः प्रतीची भुवनानि विश्वोर्ध्वा तिष्ठस्यमृतस्य केतुः । समानमर्थं चरणीयमाना चक्रमिव नव्यस्या ववृत्स्व ॥३.६१.

ऊर्ध्वं केतुं सविता देवो अश्रेज्ज्योतिर्विश्वस्मै भुवनाय कृण्वन् ।आप्रा द्यावापृथिवी अन्तरिक्षं वि सूर्यो रश्मिभिश्चेकितानः ॥४.१४.

*अहं भूमिमददामार्यायाहं वृष्टिं दाशुषे मर्त्याय ।अहमपो अनयं वावशाना मम देवासो अनु केतमायन् - ऋ. ४.२६.२

स्मा कृणोति केतुमा नक्तं चिद्दूर सते।पावको यद्वनस्पतीन्प्र स्मा मिनात्यजरः॥ .००७.०४

यज्ञस्य केतुं प्रथमं पुरोहितमग्निं नरस्त्रिषधस्थे समीधिरे । इन्द्रेण देवैः सरथं स बर्हिषि सीदन्नि होता यजथाय सुक्रतुः ॥५.११.

*शुष्मासो ये ते अद्रिवो मेहना केतसापः। उभा देवावभिष्टये दिवश्च ग्मश्च राजथः ॥ - ऋ. ५.३८.३

सजोषस्त्वा दिवो नरो यज्ञस्य केतुमिन्धते । यद्ध स्य मानुषो जनः सुम्नायुर्जुह्वे अध्वरे ॥६.२.

वैश्वानर तव तानि व्रतानि महान्यग्ने नकिरा दधर्ष । यज्जायमानः पित्रोरुपस्थेऽविन्दः केतुं वयुनेष्वह्नाम् ॥६.७.

वैश्वानरस्य विमितानि चक्षसा सानूनि दिवो अमृतस्य केतुना । तस्येदु विश्वा भुवनाधि मूर्धनि वया इव रुरुहुः सप्त विस्रुहः ॥६.७.

त्वामग्ने हरितो वावशाना गिरः सचन्ते धुनयो घृताचीः । पतिं कृष्टीनां रथ्यं रयीणां वैश्वानरमुषसां केतुमह्नाम् ॥७.५.

*इमं नरो मरुतः सश्चतानु दिवोदासं न पितरं सुदासः। अविष्टना पैजवनस्य केतं दूणाशं क्षत्रमजरं दुवोयु ॥ - ऋ. ७.१८.२५

केतं मन्त्रं गृहं वा अविष्टन रक्षत ।

अशोच्यग्निः समिधानो अस्मे उपो अदृश्रन्तमसश्चिदन्ताः।

अचेति केतुरुषसः पुरस्ताच्छ्रिये दिवो दुहितुर्जायमानः॥ .०६७.०२

ववक्षुरस्य केतवो उत वज्रो गभस्त्योः।

यत्सूर्यो रोदसी अवर्धयत्॥ .०१२.०७

विप्रं होतारमद्रुहं धूमकेतुं विभावसुम् । यज्ञानां केतुमीमहे ॥८.४४.१०

*केतेन शर्मन् त्सचते सुषामण्यग्ने तुभ्यं चिकित्वना। इषण्यया नः पुरुरूपमा भर वाजं नेदिष्ठमूतये ॥ - ऋ. ८.६०.१८

*ऋभुर्न रथ्यं नवं दधाता केतमादिशे। शुक्राः पवध्वमर्णसा ॥ - ऋ. ९.२१.६

आदिशे स्वामिनि "केतं प्रज्ञानं दधात स्थापयत ।

विश्वा धामानि विश्वचक्ष ऋभ्वसः प्रभोस्ते सतः परि यन्ति केतवः । व्यानशिः पवसे सोम धर्मभिः पतिर्विश्वस्य भुवनस्य राजसि ॥५॥

उभयतः पवमानस्य रश्मयो ध्रुवस्य सतः परि यन्ति केतवः । यदी पवित्रे अधि मृज्यते हरिः सत्ता नि योना कलशेषु सीदति ॥६॥

यज्ञस्य केतुः पवते स्वध्वरः सोमो देवानामुप याति निष्कृतम् । सहस्रधारः परि कोशमर्षति वृषा पवित्रमत्येति रोरुवत् ॥९.८६.

*अधा ह्यग्ने मह्ना निषद्या सद्यो जज्ञानो हव्यो बभूथ। तं ते देवासो अनु केतमायन्नधावर्धन्त प्रथमास ऊमाः ॥ - ऋ. १०.६.७

नवोनवो भवति जायमानोऽह्नां केतुरुषसामेत्यग्रम् । भागं देवेभ्यो वि दधात्यायन्प्र चन्द्रमास्तिरते दीर्घमायुः ॥१०.८५.१९

विश्वस्मा अग्निं भुवनाय देवा वैश्वानरं केतुमह्नामकृण्वन् । आ यस्ततानोषसो विभातीरपो ऊर्णोति तमो अर्चिषा यन् ॥१०.८८.१२

*त्रिः स्म माह्नः श्नथयो वैतसेनोत स्म मेऽव्यत्यै पृणासि। पुरूरवोऽनु ते केतमायं राजा मे वीर तन्वस्तदासीः ॥ - ऋ. १०.९५.५

यज्ञस्य केतुं प्रथमं पुरोहितं हविष्मन्त ईळते सप्त वाजिनम्।

शृण्वन्तमग्निं घृतपृष्ठमुक्षणं पृणन्तं देवं पृणते सुवीर्यम्॥ १०.१२२.०४

*अप्सरसां गन्धर्वाणां मृगाणां चरणे चरन्। केशी केतस्य विद्वान् त्सखा स्वादुर्मदिन्तमः ॥ - ऋ. १०.१३६.६

अहं केतुरहं मूर्धाहमुग्रा विवाचनी।

ममेदनु क्रतुं पतिः सेहानाया उपाचरेत्॥ १०.१५९.०२

सूर्यस्याश्वा हरयः केतुमन्तः सदा वहन्त्यमृताः सुखं रथम् ।
घृतपावा रोहितो भ्राजमानो दिवं देवः पृषतीमा विवेश ॥अ. १३.१.२४

*वाजपेय यज्ञः :- देवः सवितः प्रसुव यज्ञं प्रसुव यज्ञपतिं भगाय। दिव्यो गन्धर्वः केतपूः केतं नः पुनातु, वाचस्पतिर्वाजं नः स्वदतु स्वाहा इति। - शतपथ ब्राह्मण ५.१.१.१६

*दिव्यो गन्धर्वः केतपूः केतं नः पुनातु इति। असौ वाऽआदित्यो दिव्यो गन्धर्वः। अन्नं केतः। अन्नपूरन्नं नः पुनात्वित्येतत्। वाचस्पतिर्वाचं नः स्वदतु इति। वाग्वा इदं कर्म, प्राणो वाचस्पतिः। प्राणो न इदं कर्म स्वदत्वित्येतत्। - श.ब्रा. ६.३.१.१९

*समानो मन्त्रः समितिः समानी। समानं मनः सह चित्तमेषाम्। समानं केतो अभि संरभध्वम्। संज्ञानेन वो हविषा यजामः ॥ - तैत्तिरीय ब्राह्मण २.४.४.५

**चित्तिः स्रुक्। चित्तमाज्यम्। वाग्वेदिः। आधीतं बर्हिः। केतो अग्निः। विज्ञातमग्निः। वाक्पतिर्होता। मन उपवक्ता। प्राणो हविः। सामाध्वर्युः। - तैत्तिरीय आरण्यक ३.१.१

*पुनराधानमन्त्राः :- लेकः सलेकः सुलेकस्ते न आदित्या आज्यं जुषाणा वियन्तु केतः सकेतः सुकेतस्ते न आदित्या आज्यं जुषाणा वियन्तु - तैत्तिरीय संहिता १.५.३.३

*वाजपेयोपयुक्तरथविषयमन्त्राभिधानम् : देव सवितः प्र सुव यज्ञं प्र सुव यज्ञपतिं भगाय दिव्यो गन्धर्वः केतपूः केतं न पुनातु वाचस्पतिर्वाचमद्य स्वदाति नः। - तै.सं. १.७.७.१

*अभ्र्यादानम् : दिव्यो गन्धर्वः। केतपूः केतं नः पुनातु वाचस्पतिर्वाचमद्य स्वदाति नः। - तै.सं. ४.१.१.३

*विश्वज्योतिरादीष्टकाभिधानम् : - - केताय त्वा प्रचेतसे त्वा विवस्वते त्वा - - - तै.सं. ४.४.६.२

*तेषां चित्तिः स्रुगासीत्। चित्तमाज्यमासीत्। वाग्वेदिरासीत् , आधीतं बर्हिरासीत् , केतो अग्निरासीत् , विज्ञातमग्नीदासीत्, प्राणो हविरासीत् , सामाध्वर्युरासीत्, वाचस्पतिर्होताऽऽसीत् , मन उपवक्ताऽऽसीत्। ते वा एतं ग्रहमगृह्णत। - ऐतरेय ब्राह्मण ५.२५

 

केतु

*महो अर्ण: सरस्वती प्र चेतयति केतुना। धिया विश्वा वि राजति। - ऋग्वेद १.३.१२

*केतुं कृण्वन्नकेतवे पेशो मर्या अपेशसे। समुषद्भिरजायथाः ॥ (दे. इन्द्रः) - ऋ.१.६.३

*अबुध्ने राजा वरुणो वनस्योर्ध्वं स्तूपं ददते पूतदक्षः। नीचीनाः स्थुरुपरि बुध्न एषामस्मे अन्तर्निहिताः केतवः स्युः ॥ - ऋ. १.२४.७

*स रेवाँ इव विश्पतिर्दैव्यः केतुः शृणोतु नः। उक्थैरग्निर्बृहद्भानुः ॥ - ऋ. १.२७.१२

*ऊर्ध्वो नः पाह्यंहसो नि केतुना विश्वं समत्रिणं दह। कृधी न ऊर्ध्वाञ्चरथाय जीवसे विदा देवेषु नो दुवः ॥(दे. अग्निः, यूपो वा) - ऋ. १.३६.१४

*उदु त्यं जातवेदसं देवं वहन्ति केतवः। दृशे विश्वाय सूर्यम् ॥ (दे.सूर्यः) - ऋ.१.५०.१

*अदृश्रमस्य केतवो वि रश्मयो जनाँ अनु। भ्राजन्तो अग्नयो यथा ॥ (दे.सूर्यः) - ऋ. १.५०.३

*वह्निं यशसं विदथस्य केतुं सुप्राव्यं दूतं सद्योअर्थम्। द्विजन्मानं रयिमिव प्रशस्तं रातिं भरद् भृगवे मातरिश्वा ॥ - ऋ. १.६०.१

*वीळु चिद् दृह्ळा पितरो न उक्थैरद्रिं रुजन्नङ्गिरसो रवेण। चक्रुर्दिवो बृहतो गातुमस्मे अहः स्वर्विविदुः केतुमुस्राः ॥ (दे. अग्निः) - ऋ. १.७१.२

*एता उ त्या उषसः केतुमक्रत पूर्वे अर्धे रजसो भानुमञ्जते। निष्कृण्वाना आयुधानीव धृष्णवः प्रति गावोऽरुषीर्यन्ति मातरः ॥ - ऋ.१.९२.१

*रायो बुध्नः संगमनो वसूनां यज्ञस्य केतुर्मन्मसाधनो वेः। अमृतत्वं रक्षमाणास एनं देवा अग्निं धारयन् द्रविणोदाम् ॥ - ऋ. १.९६.६

*तत् त इन्द्रियं परमं पराचैरधारयन्त कवयः पुरेदम्। क्षमेदमन्यद्दिव्यन्यदस्य समी पृच्यते समनेव केतुः ॥ (दे. इन्द्रः) - ऋ.१.१०३.१

*आवहन्ती पोष्या वार्याणि चित्रं केतुं कृणुते चेकिताना। ईयुषीणामुपमा शश्वतीनां विभातीनां प्रथमोषा व्यश्वैत् ॥ - ऋ.१.११३.१५

*माता देवानामदितेरनीकं यज्ञस्य केतुर्बृहती वि भाहि। प्रशस्तिकृद् ब्रह्मणे नो व्युच्छा नो जने जनय विश्ववारे ॥ - ऋ.१.११३.१९

*आ वां रथं पुरुमायं मनोजुवं जीराश्वं यज्ञियं जीवसे हुवे। सहस्रकेतुं वनिनं शतद्वसुं श्रुष्टीवानं वरिवोधामभि प्रयः ॥ (दे. अश्विनौ) - ऋ. १.११९.१

*पूर्वे अर्धे रजसो अप्त्यस्य गवां जनित्र्यकृत प्र केतुम्। व्यु प्रथते वितरं वरीय ओभा पृणन्ती पित्रोरुपस्था ॥ - ऋ.१.१२४.५

*अवेयमश्वैद् युवतिः पुरस्ताद् युङ्क्ते गवामरुणानामनीकम्। वि नूनमुच्छादसति प्र केतुर्गृहंगृहमुप तिष्ठाते अग्निः ॥ - ऋ. १.१२४.११

*स हि शर्धो न मारुतं तुविष्वणिरप्नस्वतीषूर्वरास्विष्टनिरार्तनास्विष्टनि१:। आदद्धव्यान्याददिर्यज्ञस्य केतुरर्हणा। अध स्मास्य हर्षतो हृषीवतो विश्वे जुषन्त पन्थां नरः शुभे न पन्थाम् ॥ (दे. अग्निः) - ऋ. १.१२७.६

*तन्नु वोचाम रभसाय जन्मने पूर्वं महित्वं वृषभस्य केतवे। ऐधेव यामन् मरुतस्तुविष्वणो युधेव शक्रास्तविषाणि कर्तन ॥ (दे. मरुतः) - ऋ. १.१६६.१

*त्वे पितो महानां देवानां मनो हितम्। अकारि चारु केतुना तवाहिमवसावधीत् ॥ (दे. अन्नं) - ऋ. १.१८७.६

*नि गावो गोष्ठे असदन् नि मृगासो अविक्षत। नि केतवो जनानां न्यदृष्टा अलिप्सत ॥ (दे. अप्तृणसूर्याः ) - ऋ. १.१९१.४

*स्तवा नु त इन्द्र पूर्व्या महान्युत स्तवाम नूतना कृतानि। स्तवा वज्रं बाह्वोरुशन्तं स्तवा हरी सूर्यस्य केतू ॥ - ऋ. २.११.६

*आ देवानामभवः केतुरग्ने मन्द्रो विश्वानि काव्यानि विद्वान्। प्रति मर्तां अवासयो दमूना अनु देवान् रथिरो यासि साधन् ॥ - ऋ. ३.१.१७

*शुचिं न यामन्निषिरं स्वर्दृशं केतुं दिवो रोचनस्थामुषर्बुधम्। अग्निं मूर्धानं दिवो अप्रतिष्कुतं तमीमहे नमसा वाजिनं बृहत् ॥ - ऋ. ३.२.१४

*केतुं यज्ञानां विदथस्य साधनं विप्रासो अग्निं महयन्त चित्तिभिः। अपांसि यस्मिन्नधि संदधुर्गिरस्तस्मिन्त्सुम्नानि यजमान आ चके ॥ - ऋ. ३.३.३

*स केतुरध्वराणामग्निर्देवेभिरा गमत्। अञ्जानः सप्त होतृभिर्हविष्मते ॥ - ऋ. ३.१०.४

*अग्निर्धिया स चेतति केतुर्यज्ञस्य पूर्व्यः। अर्थं ह्यस्य तरणि ॥ - ऋ. ३.११.३

*आदित्या रुद्रा वसवः सुनीथा द्यावाक्षामा पृथिवी अन्तरिक्षम्। सजोषसो यज्ञमवन्तु देवा ऊर्ध्वं कृण्वन्त्वध्वरस्य केतुम् ॥ - ऋ. ३.८.८

*मन्थता नरः कविमद्वयन्तं प्रचेतसममृतं सुप्रतीकम्। यज्ञस्य केतुं प्रथमं पुरस्तादग्निं नरो जनयता सुशेवम् ॥ - ऋ. ३.२९.५

*इन्द्रः स्वर्षा जनयन्नहानि जिगायोशिग्भिः पृतना अभिष्टिः। प्रारोचयन्मनवे केतुमह्नामविन्दज्ज्योतिर्बृहते रणाय ॥ - ऋ. ३.३४.४

*मो षु णो अत्र जुहुरन्त देवा मा पूर्वे अग्ने पितरः पदज्ञाः। पुराण्योः सद्मनोः केतुरन्तर्महद् देवानामसुरत्वमेकम् ॥ - ऋ. ३.५५.२

*उषः प्रतीची भुवनानि विश्वोर्ध्वा तिष्ठस्यमृतस्य केतुः। समानमर्थं चरणीयमाना चक्रमिव नव्यस्या ववृत्स्व ॥ - ऋ. ३.६१.३

*आशुं दूतं विवस्वतो विश्वा यश्चर्षणीरभि। आ जभ्रुः केतुमायवो भृगवाणं विशेविशे ॥ - ऋ. ४.७.४

*ऊर्ध्वं केतुं सविता देवो अश्रेज्ज्योतिर्विश्वस्मै भुवनाय कृण्वन्। आप्रा द्यावापृथिवी अन्तरिक्षं वि सूर्यो रश्मिभिश्चेकितानः ॥ (दे. अग्निः) - ऋ. ४.१४.२

*सः स्मा कृणोति केतुमा नक्तं चिद् दूर आ सते। पावको यद्वनस्पतीन् प्र स्मा मिनात्यजरः ॥ - ऋ. ५.७.४

*यज्ञस्य केतुं प्रथमं पुरोहितमग्निं नरस्त्रिषधस्थे समीधिरे। इन्द्रेण देवैः सरथं स बर्हिषि सीदन्नि होता यजथाय सुक्रतुः ॥ असंमृष्टो जायसे मात्रोः शुचिर्मन्द्रः कविरुदतिष्ठो विवस्वतः। घृतेन त्वावर्धयन्नग्न आहुत धूमस्ते केतुरभवद् दिवि श्रितः ॥ - ऋ. ५.११.२-३

*सहस्रसामाग्निवेशिं गृणीषे शत्रिमग्न उपमां केतुमर्यः। तस्मा आपः संयतः पीपयन्त तस्मिन् क्षत्रममवत्त्वेषमस्तु ॥ - ऋ. ५.३४.९

*ज्यायांसमस्य यतुनस्य केतुन ऋषिस्वरं चरति यासु नाम ते। यादृश्मिन् धायि तमपस्यया विदद् य उ स्वयं वहते सो अरं करत् ॥ - ऋ. ५.४४.८

*अग्ने मरुद्भिः शुभयद्भिर्ऋक्वभिः सोमं पिब मन्दसानो गणश्रिभिः। पावकेभिर्विश्वमिन्वेभिरायुभिर्वैश्वानर प्रदिवा केतुना सजूः ॥ - ऋ. ५.६०.८

*अधा हि काव्या युवं दक्षस्य पूर्भिरद्भुता। नि केतुना जनानां चिकेथे पूतदक्षसा ॥ दे.(मित्रावरुणौ) - ऋ. ५.६६.४

*सजोषस्त्वा दिवो नरो यज्ञस्य केतुमिन्धते। यद्ध स्य मानुषो जनः सुम्नायुर्जुह्वे  अध्वरे ॥ (दे. अग्निः- ऋ. ६.२.३

*नाभिं यज्ञानां सदनं रयीणां महामाहावमभि सं नवन्त। वैश्वानरं रथ्यमध्वराणां यज्ञस्य केतुं जनयन्त देवाः ॥ - ऋ. ६.७.२

*वैश्वानर तव तानि व्रतानि महान्यग्ने नकिरा दधर्ष। यज्जायमानः पित्रोरुपस्थे ऽविन्दः केतुं वयुनेष्वह्नाम् ॥ वैश्वानरस्य विमितानि चक्षसा सानूनि दिवो अमृतस्य केतुना। तस्येदु विश्वा भुवनाधि मूर्धनि वया इव रुरुहुः सप्त विस्रुहः ॥ - ऋ. ६.७.५-६

*अयं द्योतयदद्युतो व्यक्तून् दोषा वस्तोः शरद इन्दुरिन्द्र। इमं केतुमदधुर्नू चिदह्नां शुचिजन्मन उषसश्चकार ॥ - ऋ. ६.३९.३

*आमूरज प्रत्यावर्तयेमाः केतुमद् दुन्दुभिर्वावदीति। समश्वपर्णाश्चरन्ति नो नरो ऽस्माकमिन्द्र रथिनो जयन्तु ॥ - ऋ. ६.४७.३१

*विशोविश ईड्यमध्वरेष्वदृप्तक्रतुमरतिं युवत्योः। दिवः शिशुं सहसः सूनुमग्निं यज्ञस्य केतुमरुषं यजध्यै ॥ - ऋ. ६.४९.२

*त्वामग्ने हरितो वावशाना गिरः सचन्ते धुनयो घृताचीः। पतिं कृष्टीनां रथ्यं रयीणां वैश्वानरमुषसां केतुमह्नाम् ॥ - ऋ. ७.५.५

*कविं केतुं धासिं भानुमद्रेर्हिन्वन्ति शं राज्यं रोदस्योः। पुरंदरस्य गीर्भिरा विवासे ऽग्नेर्व्रतानि पूर्व्या महानि ॥ - ऋ. ७.६.२

*अबोधि जार उषसामुपस्थाद्धोता मन्द्रः कवितमः पावकः। दधाति केतुमुभयस्य जन्तोर्हव्या देवेषु द्रविणं सुकृत्सु ॥ - ऋ. ७.९.१

*अहा यदिन्द्र सुदिना व्युच्छान् दधो यत् केतुमुपमं समत्सु। न्यग्निः सीददसुरो न होता हुवानो अत्र सुभगाय देवान् ॥ - ऋ. ७.३०.३

*त्मना समत्सु हिनोत यज्ञं दधात केतुं जनाय वीरम् ॥ - ऋ. ७.३४.६

*उद्वेति प्रसवीता जनानां महान् केतुरर्णवः सूर्यस्य। समानं चक्रं पर्याविवृत्सन् यदेतशो वहति धूर्षु युक्तः ॥ - ऋ. ७.६३.२

*अशोच्यग्निः समिधानो अस्मे उपो अदृश्रन् तमसश्चिदन्ताः। अचेति केतुरुषसः पुरस्ताच्छ्रिये दिवो दुहितुर्जायमानः ॥ - ऋ. ७.६७.२

*प्र मे पन्था देवयाना अदृश्रन्नमर्धन्तो वसुभिरिष्कृतासः। अभूदु केतुरुषसः पुरस्तात् प्रतीच्यागादधि हर्म्येभ्यः ॥ - ऋ. ७.७६.२

*प्रति केतवः प्रथमा अदृश्रन्नूर्ध्वा अस्या अञ्जयो वि श्रयन्ते। उषो अर्वाचा बृहता रथेन ज्योतिष्मता वाममस्मभ्यं वक्षि ॥ - ऋ. ७.७८.१

*ववक्षुरस्य केतव उत वज्रो गभस्त्योः। यत् सूर्यो न रोदसी अवर्धयत् ॥ - ऋ. ८.१२.७

हरयो धूमकेतवो वातजूता उप द्यवि।

यतन्ते वृथगग्नयः॥ .०४३.०४

*एते त्ये वृथगग्नय इद्धासः समदृक्षत। उषसामिव केतवः ॥ - ऋ. ८.४३.५

*विप्रं होतारमद्रुहं धूमकेतुं विभावसुम्। यज्ञानां केतुमीमहे ॥ - ऋ. ८.४४.१०

*ज्योतिष्मन्तं केतुमन्तं त्रिचक्रं सुखं रथं सुषदं भूरिवारम्। चित्रामघा यस्य योगेऽधिजज्ञे तं वां हुवे अति रिक्तं पिबध्यै ॥ - ऋ. ८.५८.३

*मन्ये त्वा यज्ञियं यज्ञियानां मन्ये त्वा च्यवनमच्युतानाम्। मन्ये त्वा सत्वनामिन्द्र केतुं मन्ये त्वा वृषभं चर्षणीनाम् ॥ - ऋ. ८.९६.४

*केतुं कृण्वन् दिवस्परि विश्वा रूपाभ्यर्षसि। समुद्रः सोम पिन्वसे ॥ - ऋ. ९.६४.८

*ते अस्य सन्तु केतवोऽमृत्यवो ऽदाभ्यासो जनुषी उभे अनु। येभिर्नृम्णा च देव्या च पुनत आदिद्राजानं मनना अगृभ्णत ॥ - ऋ. ९.७०.३

*विश्वा धामानि विश्वचक्ष ऋभ्वसः प्रभोस्ते सतः परि यन्ति केतवः। व्यानशिः पवसे सोम धर्मभिः पतिर्विश्वस्य भुवनस्य राजसि ॥ - ऋ. ९.८६.५

*यज्ञस्य केतुः पवते स्वध्वरः सोमो देवानामुप याति निष्कृतम्। सहस्रधारः परि कोशमर्षति वृषा पवित्रमत्येति रोरुवत्॥ - ऋ. ९.८६.७

*होतारं चित्ररथमध्वरस्य यज्ञस्ययज्ञस्य केतुं रुशन्तम्। प्रत्यर्धि देवस्यदेवस्य मह्ना श्रिया त्वग्निमतिथिं जनानाम् ॥ - ऋ. १०.१.५

*विश्वेषां ह्यध्वराणामनीकं चित्रं केतुं जनिता त्वा जजान। स आ यजस्व नृवतीरनु क्षाः स्पार्हा इषः क्षुमतीर्विश्वजन्याः ॥ - ऋ. १०.२.६

*प्र केतुना बृहता यात्यग्निरा रोदसी वृषभो रोरवीति। दिवश्चिदन्ताँ उपमाँ उदानळपामुपस्थे महिषो ववर्ध ॥ - ऋ. १०.८.१

*नमो मित्रस्य वरुणस्य चक्षसे महो देवाय तदृतं सपर्यत। दूरेदृशे देवजाताय केतवे दिवस्पुत्राय सूर्याय शंसत ॥ - ऋ. १०.३७.१

*यस्य ते विश्वा भुवनानि केतुना प्र चेरते नि च विशन्ते अक्तुभिः। अनागास्त्वेन हरिकेश सूर्याऽह्नाह्ना नो वस्यसावस्यसोदिहि ॥ - ऋ. १०.३७.९

*विश्वस्य केतुर्भुवनस्य गर्भ आ रोदसी अपृणाज्जायमानः। वीळुं चिदद्रिमभिनत् परायञ्जना यदग्निमयजन्त पञ्च ॥ - ऋ. १०.४५.६

*उषसां न केतवोऽध्वरश्रियः शुभंयवो नाञ्जिभिर्व्यश्वितन्। सिन्धवो न ययियो भ्राजदृष्टयः परावतो न योजनानि ममिरे ॥ (दे. मरुतः)- ऋ. १०.७८.७

*नवोनवो भवति जायमानो ऽह्नां केतुरुषसामेत्यग्रम्। भागं देवेभ्यो वि दधात्यायन् प्र चन्द्रमास्तिरते दीर्घमायुः ॥ - ऋ. १०.८५.१९

*विश्वस्मा अग्निं भुवनाय देवा वैश्वानरं केतुमह्नामकृण्वन्। आ यस्ततानोषसो विभातीरपो ऊर्णोति तमो अर्चिषा यन् ॥ - ऋ. १०.८८.१२

*प्र शोशुचत्या उषसो न केतुरसिन्वा ते वर्ततामिन्द्र हेतिः। अश्मेव विध्य दिव आ सृजानस्तपिष्ठेन हेषसा द्रोघमित्रान् ॥ - ऋ. १०.८९.१२

*तव श्रियो वर्ष्यस्येव विद्युतश्चित्राश्चिकित्र उषसां न केतवः। यदोषधीरभिसृष्टो वनानि च परि स्वयं चिनुषे अन्नमास्ये ॥ - ऋ. १०.९१.५

*यज्ञस्य वो रथ्यं विश्पतिं विशां होतारमक्तोरतिथिं विभावसुम्। शोचञ्छुष्कासु हरिणीषु जर्भुरद् वृषा केतुर्यजतो द्यामशायत ॥ - ऋ. १०.९२.१

*दिवि न केतुरधि धायि हर्यतो विव्यचद्वज्रो हरितो न रंह्या। तुददहिं हरिशिप्रो य आयसः सहस्रशोका अभवद्धरिंभरः ॥ - ऋ. १०.९६.४

*सचन्त यदुषसः सूर्येण चित्रामस्य केतवो रामविन्दन्। आ यन्नक्षत्रं ददृशे दिवो न पुनर्यतो नकिरद्धा नु वेद ॥ - ऋ. १०.१११.७

*यज्ञस्य केतुं प्रथमं पुरोहितं हविष्मन्त ईळते सप्त वाजिनम्। शृण्वन्तमग्निं घृतपृष्ठमुक्षणं पृणन्तं देवं पृणते सुवीर्यम् ॥ - ऋ. १०.१२२.४

*नृचक्षा एष दिवो मध्य आस्त आपप्रिवान् रोदसी अन्तरिक्षम्। स विश्वाचीरभि चष्टे घृताचीरन्तरा पूर्वमपरं च केतुम् ॥ - ऋ. १०.१३९.२

*अग्निं हिन्वन्तु नो धियः सप्तिमाशुमिवाजिषु। तेन जेष्म धनंधनम् ॥ यया गा आकरामहे सेनयाग्ने तवोत्या। तां नो हिन्व मघत्तये ॥ आग्ने स्थूरं रयिं भर पृथुं गोमन्तमश्विनम्। अङ्घि खं वर्तया पणिम् ॥ अग्ने नक्षत्रमजरमा सूर्यं रोहयो दिवि। दधज्ज्योतिर्जनेभ्यः ॥ अग्ने केतुर्विशामसि प्रेष्ठः श्रेष्ठ उपस्थसत्। बोधा स्तोत्रे वयो दधत् ॥ (ऋ. केतुराग्नेयः, दे. अग्निः) - ऋ. १०.१५६.१-५

*अहं केतुरहं मूर्धा ऽहमुग्रा विवाचनी। ममेदनु क्रतुं पतिः सेहानाया उपाचरेत् ॥(दे. शची) - ऋ. १०.१५९.२

*शकटारोपितस्य सोमस्य प्राचीनवंशं प्रति गमनम् : (अथाग्रेण शालां तिष्ठन्नोह्यमानं राजानं प्रति मन्त्रयते) : नमो मित्रस्य वरुणस्य चक्षसे महो देवाय तदृतं सपर्यत। दूरेदृशे देवजाताय केतवे दिवस्पुत्राय सूर्याय शंसत ॥ - तैत्तिरीय संहिता १.२.९.१

*पुरोनुवाक्या : नवोनवो भवति जायमानोऽह्नां केतरुषसामेत्यग्रे। भागं देवेभ्यो वि दधात्यायन्प्र चन्द्रमास्तिरति दीर्घमायुः। - तै.सं. २.४.१४.१

*भक्षमन्त्राभिधानम् : मन्द्राभिभूतिः केतुर्यज्ञानां वाग्जुषाणा सोमस्य तृप्यतु - - -तै.सं. ३.२.५.१

*आसन्दीस्थापिताग्नेरुपस्थानम् : इयर्ति धूममरुषं भरिभ्रदुच्छुक्रेण शोचिषा द्यामिनक्षत्। विश्वस्य केतुर्भुवनस्य गर्भ आ रोदसी अपृणाज्जायमानः। - तै.सं. ४.२.२.२

*द्वितीयाचितावाश्विन्याख्येष्टकाभिधानम् : उख्यस्य केतुं प्रथमं पुरस्तादश्विनाऽध्वर्यू सादयतामिह त्वा। - तै.सं. ४.३.४.१

*व्युष्टिनामकेष्टकाभिधानम् : त्रिंशत्स्वसार उप यन्ति निष्कृतं समानं केतुं प्रतिमुञ्चमानाः। - तै.सं. ४.३.११.२

*छन्दोभिधेष्टकाभिधानम् : यज्ञस्य केतुं प्रथमं पुरोहितमग्निं नरस्त्रिषधस्थे समिन्धते - तै.सं. ४.४.४.३

*अग्निप्रणयनाभिधानम् : विमान एष दिवो मध्य आस्त आपप्रिवान्रोदसी अन्तरिक्षम्। स विश्वाचीरभि चष्टे घृताचीरन्तरा पूर्वमपरं च केतुम् ॥ (इति द्वाभ्यां आग्निध्रे ऽश्मानं निधाय) - तै.सं. ४.६.३.३

*अश्वमेधकर्तू रथसज्जीकरण भाविकवचस्वीकाराद्यङ्गाभिधानम् : आऽमूरज प्रत्यावर्तयेमाः केतुमद् दुन्दुभिर्वावदीति। समश्वपर्णाश्चरन्ति नो नरोऽस्माकमिन्द्र रथिनो जयन्तु ॥ (इति दुन्दुभिं संह्रादयति) - तै.सं. ४.६.६.७

*अश्वमेधाङ्गमन्त्रकथनम् : केतुं कृणवन्नकेतवे पेशो मर्या अपेशसे। समुषद्भिरजायथाः। (इति रथे ध्वजमुपगूहति) - तै.सं. ७.४.२०.१

*उद्धर्षन्तां मघवन् वाजिनान्युद् वीराणां जयतामेतु घोषः। पृथग् घोषा उलुलयः केतुमन्त उदीरताम्। देवा इन्द्रज्येष्ठा मरुतो यन्तु सेनया ॥ - अथर्ववेद ३.१९.६

*अमी ये युधमायन्ति केतून् कृत्वानीकशः। इन्द्रस्तान् पर्यहार्दाम्ना तानग्ने सं द्या त्वम् ॥ - अ. ६.१०३.३

*प्रामूं जयाभीमे जयन्तु केतुमद् दुन्दुभिर्वावदीतु। समश्वपर्णाः पतन्तु नो नरोऽस्माकमिन्द्र रथिनो जयन्तु ॥ - अथर्ववेद ६.१२६.३

*यस्ते पृथु स्तनयित्नुर्य ऋष्वो दैवः केतुर्विश्वमाभूषतीदम्। मा नो वधीर्विद्युता देव सस्यं मोत वधी रश्मिभिः सूर्यस्य ॥ (दे. सरस्वती) - अ. ७.१२.१

*नवोनवो भवसि जायमानोऽह्नां केतुरुषसामेष्यग्रम्। भागं देवेभ्यो वि दधास्यायन् प्र चन्द्रमस्तिरसे दीर्घमायुः ॥ - अ. ७.८६.२

*छन्दःपक्षे उषसा पेपिशाने समानं योनिमनु सं चरेते। सूर्यपत्नी सं चरतः प्रजानती केतुमती अजरे भूरिरेतसा ॥ - अ. ८.९.१२

*यथा सूर्यो मुच्यते तमसस्परि रात्रिं जहात्युषसश्च केतून्। एवाहं सर्वं दुर्भूतं कर्त्रं कृत्याकृता कृतं हस्तीव रजो दुरितं जहामि ॥ - अ. १०.१.३२

*प्रजापतिश्चरति गर्भे अन्तरदृश्यमानो बहुधा वि जायते। अर्धेन विश्वं भुवनं जजान यदस्यार्धं कतमः स केतुः ॥ - अ. १०.८.१३

*अष्टाचक्रं वर्तत एकनेमि सहस्राक्षरं प्र पुरो नि पश्चा। अर्धेन विश्वं भुवनं जजान यदस्यार्धं कतमः स केतुः ॥ - अ. ११.६.२२

*उत् तिष्ठत सं नह्यध्वमुदाराः केतुभिः सह। सर्पा इतरजना रक्षांस्यमित्राननु धावत ॥ ईशां वो वेद राज्यं त्रिषंधे अरुणैः केतुभिः सह। ये अन्तरिक्षे ये दिवि पृथिव्यां ये च मानवाः। त्रिषंधेस्ते चेतसि दुर्णामान उपासताम् ॥ - अ. ११.१२.१-२

*धूमाक्षी सं पततु कृधुकर्णी च क्रोशतु। त्रिषंधेः सेनया जिते अरुणाः सन्तु केतवः ॥ - अ. ११.१२.७

*सूर्यस्याश्वा हरयः केतुमन्तः सदा वहन्त्यमृताः सुखं रथम्। घृतपावा रोहितो भ्राजमानो दिवं देवः पृषतीमा विवेश ॥ - अ. १३.१.२४

*उदस्य केतवो दिवि शुक्रा भ्राजन्त ईरते। आदित्यस्य नृचक्षसा महिव्रतस्य मीढुषः ॥ - अ. १३.२.१

*उत केतुना बृहता देव आगन्नपावृक् तमोऽभि ज्योतिरश्रैत्। दिव्यः सुपर्णः स वीरो व्यख्र्यददितेःपुत्रो भुवनानि विश्वा ॥ - अ. १३.२.९

*उदु त्यं जातवेदसं देवं वहन्ति केतवः। दृशे विश्वाय सूर्यम् ॥ - अ. १३.२.१६

*अदृश्रन्नस्य केतवो वि रश्मयो जनाँ अनु। भ्राजन्तो अग्नयो यथा ॥ - अ. १३.२.१८

*अतन्द्रो यास्यन् हरितो यदास्थाद् द्वे रूपे कृणुते रोचमानः। केतुमानुद्यन्त्सहमानो रजांसि विश्वा आदित्य प्रवतो वि भासि ॥ - अ. १३.२.२८

*अर्वाङ् परस्तात् प्रयतो व्यध्व आशुर्विपश्चित् पतयन् पतङ्गः। विष्णुर्विचित्तः शवसाधितिष्ठन् प्र केतुना सहते विश्वमेजत् ॥ - अ. १३.२.३१

*चित्रं देवानां केतुरनीकं ज्योतिष्मान् प्रदिशः सूर्य उद्यन्। दिवाकरोऽति द्युम्नैस्तमांसि विश्वातारीद् दुरितानि शुक्रः ॥ - अ. १३.२.३४

*त्वमग्ने क्रतुभिः केतुभिर्हितो३र्कः समिद्ध उदरोचथा दिवि। किमभ्यार्चन् मरुतः पृश्निमातरो यद्रोहितमजनयन्त देवास्तस्य देवस्य। - - - - - - अ. १३.३.२३

*नवोनवो भवसि जायमानो ऽह्नां केतुरुषसामेष्यग्रम्। भागं देवेभ्यो वि दधास्यायन् प्र चन्द्रमस्तिरसे दीर्घमायुः ॥ - अ. १४.१.२४

*प्र केतुना बृहता भात्यग्निरा रोदसी वृषभो रोरवीति। दिवश्चिदन्तादुपमामुदानडपामुपस्थे महिषो ववर्ध ॥ - अ. १८.३.६५

*इन्द्रः स्वर्षा जनयन्नहानि जिगायोशिग्भिः पृतना अभिष्टिः। प्रारोचयन्मनवे केतुमह्नामविन्दज्ज्योतिर्बृहते रणाय ॥ - अ. २०.११.४

*केतुं कृण्वन्नकेतवे पेशो मर्या अपेशसे। समुषद्भिरजायथाः ॥ - अ. २०.२६.६

*दिवि न केतुरधि धायि हर्यतो विव्यचद् वज्रो हरितो न रंह्या। तुददहिं हरिशिप्रो य आयसः सहस्रशोका अभवद्धरिंभरः ॥ - अ. २०.३०.४

*केतुं कृण्वन्नकेतवे पेशो मर्या अपेशसे। समुषद्भिरजायथाः ॥ उदु त्यं जातवेदसं देवं वहन्ति केतवः। दृशे विश्वाय सूर्यम् ॥- अ. २०.४७.१२-१३

*अदृश्रन्नस्य केतवो वि रश्मयो जनाँ अनु। भ्राजन्तो अग्नयो यथा ॥ - अ. २०.४७.१५

*केतुं कृणवन्नकेतवे पेशो मर्या अपेशसे। समुषद्भिरजायथाः ॥ - अ. २०.६९.११

*चित्रं देवानां केतुरनीकं ज्योतिष्मान् प्रदिशः सूर्य उद्यन्। दिवाकरोऽति द्युम्नैस्तमांसि विश्वातारीद् दुरितानि शुक्रः ॥ - अ. २०.१०७.१३

*सोमानयनम् : तस्मिन्वाचयति - नमो मित्रस्य वरुणस्य चक्षसे महो देवाय तदृतं सपर्यत। दूरेदृशे देवजाताय केतवे दिवस्पुत्राय सूर्याय शंसत इति। - शतपथ ब्राह्मण ३.३.४.२४

*दक्षिणादानम् : स जुहोति - उदु त्यं जातवेदसं देवं वहन्ति केतवः। दृशे विश्वाय सूर्यं स्वाहा - इत्येतया गायत्र्या। - श.ब्रा. ४.३.४.९

*अतिग्राह्या ग्रहाः :-अदृश्रमस्य केतवः विरश्मयो जनां अनु। भ्राजन्तो अग्नयो यथा। उपयामगृहीतोऽसि सूर्याय त्वा भ्राजायैष ते योनिः सूर्याय त्वा भ्राजाय इति। - श.ब्रा. ४.५.४.११

*विषुवदहः :- अथातो गृह्णात्येव - उदु त्यं जातवेदसं देवं वहन्ति केतवः। दृशे विश्वाय सूर्यम्। उपयामगृहीतोऽसि सूर्याय त्वा भ्राजाय, एष ते योनिः सूर्याय त्वा भ्राजाय इति। - श.ब्रा. ४.६.२.२

*द्वितीया चितिः : ध्रुवं योनिमासीद साधुया इति। स्थिरं योनिमासीद साधुयेत्येतत्। उख्यस्य केतुं प्रथमं जुषाणा इति। अयं वाऽअग्निरुख्यः। तस्यैष प्रथमः केतुः - यत्प्रथमा चितिः। तं जुषाणेत्येतत्। - श.ब्रा. ८.२.१.४

*स उपदधाति। विमान एष दिवो मध्य आस्ते इति। - - - आपप्रिवान्रोदसी अन्तरिक्षम् इति। - - - - स विश्वाचीरभिचष्टे घृताचीः इति। स्रुचश्चैतद्वेदीश्चाह। अन्तरा पूर्वमपरञ्च केतुम् इति। अन्तरेमं च लोकममुं चेत्येतत्। अथो यच्चेदमेतर्हि चीयते, यच्चादः पूर्वमचीयतेति। - श.ब्रा. ९.२.३.१७

*गवाजपयोऽवसेचनं ब्राह्मणम् : अथातो रौहिणौ जुहोति - अहः केतुना जुषतां सुज्योतिर्ज्योतिषा स्वाहा इति। उभावेतेने यजुषा प्रातः। रात्रिः केतुना जुषतां सुज्योतिर्ज्योतिषा स्वाहा इति। उभावेतेन यजुषा सायम्। - श.ब्रा. १४.२.१.१

*घर्मप्रचरणम् : अथ रौहिणौ जुहोति - अहः केतुना जुषतां सुज्योतिर्ज्योतिषा स्वाहा इति। असावेव बन्धुः। रात्रिः केतुना जुषतां सुज्योतिर्ज्योतिषा स्वाहा इति। असावेव बंधुः। - श.ब्रा. १४.२.२.४१

*- - - - - - उभे ऽस्याहोरात्रे स्पृते अवरुद्धे भवतो भोगायास्मा आदित्या केतूंश् चरति। - जैमिनीय ब्राह्मण १.२१२

*अहर् एव प्रथमेनाह्ना स्तृणुते, ऽह्नः केतुं द्वितीयेन, रात्रिम् एव तृतीयेनाह्ना स्तृणुते, यः प्रातरह्नः केतुस् तं चतुर्थेन। - जै.ब्रा. २.२८७

*ध्रुवस्य सतः पर्यन्ति केतव इत्य् अहर् वै ध्रुवं छन्दांसि केतवः। - - - - -विश्वा धामानि विश्वचक्ष ऋभ्वसः प्रभोष् टे सतः पर्यन्ति केतव इत्य् अग्निर् ह वा इमान् लोकान् अनु प्रभुः। - जै.ब्रा. ३.५८

*त्वाम् आहुस् सहसस् पुत्रम् अङ्गिर इति सहसेवं ह्य् एतं जनयन्ति। यज्ञस्य केतुम् इत्य् एष ह वाव यज्ञस्य केतुः। यत्र ह वै क्व च सूयते तद् एष एव पुरस्तात् केतुर् उच्छ्रियते। - जै.ब्रा. ३.६२

*केतुं कृण्वन् दिवस् परि विश्वा रूपाभ्य् अर्षसीत्य् अभीति भवति रथन्तरस्य रूपम्। राथन्तरम् एतद् अहः। - जै.ब्रा. ३.८५

*दर्शपूर्णमासौ : आपस्त्वामश्विनौ त्वामृषयः सप्त मामृजुः। बर्हिः सूर्यस्य रश्मिभिरुषसां केतुमारभ इति बर्हिरारभते। इन्द्रस्य त्वा बाहुभ्यामुद्यच्छ इत्युद्यच्छते। - आपस्तम्ब श्रौत सूत्र १.४.१५

*सौत्रामणिविशेष मन्त्रकथनम् : द्वे स्रुती अशृणवं पितॄणाम्। अहं देवानामुत मर्त्यानाम्। ताभ्यामिदं विश्वं भुवनं समेति। अन्तरा पूर्वमपरं च केतुम्।(इति वा वल्मीकवपायामवनयेत्) - तैत्तिरीय ब्राह्मण १.४.२.३

*वह्निविषयक प्रायश्चित्तानि :-पराची वा एतस्मै व्युच्छन्ती व्युच्छति। यस्याग्निमनुद्धृतं सूर्योऽभ्युदेति। उषाः केतुना जुषताम्। यज्ञं देवेभिरिन्वितम्। देवेभ्यो मधुमत्तमं स्वाहेति प्रत्यङ्निषद्याऽऽज्येन जुहुयात्। प्रतीचीमेवास्मै विवासयति। - तै.ब्रा. १.४.४.५

*असंसृष्टो जायसे मातृवोः शुचिः। मन्द्रः कविरुदतिष्ठो विवस्वतः। घृतेन त्वा वर्धयन्नग्न आहुत। धूमस्ते केतुरभवद्दिवि श्रितः। - तै.ब्रा. २.४.३.३

*इन्द्रः सुवर्षा जनयन्नहानि। जिगायोशिग्भिः पृतना अभिश्रीः। प्रारोचयन्मनवे केतुमह्नाम्। अविन्दज्ज्योतिर्बृहते रणाय। - तै.ब्रा. २.४.३.६

*उदुज्जिहानो अभिकाममीरयन्। प्रपृञ्चन्विश्वा भुवनानि पूर्वथा। आ केतुना सुषमिद्धो यजिष्ठः। कामं नो अग्ने अभिहर्य दिग्भ्यः। - तै.ब्रा. २.५.४.५

*कृत्तिका नक्षत्र याज्या : यस्य भान्ति रश्मयो यस्य केतवः। यस्येमा विश्वा भुवनानि सर्वा। स कृत्तिकाभिरभिसंवसानः। अग्निर्नो देवः सुविते दधातु। - तै.ब्रा. ३.१.१.१

*यूप : ऊर्ध्वो नः पाह्यंहसो नि केतुना। विश्वं समत्त्रिणं दह। कृधी न ऊर्ध्वान् च रथाय जीवसे। विदा देवेषु नो दुवः। - तै.ब्रा. ३.६.१.२

*स्कन्दनप्रायश्चित्तार्थहोममन्त्रम् : यस्ते द्रप्सो यस्त उदर्षः। दैव्यः केतुर्विश्वं भुवनमाविवेश। स नः पात्वरिष्ट्यै स्वाहा। - तै.ब्रा. ३.७.१०.१

*रथे ध्वजस्थापनं : केतुं कृण्वन्नकेतव इति ध्वजं प्रतिमुञ्चति। यश एवैनं राज्ञां गमयति। - तै.ब्रा. ३.९.४.३

*शुक्ल पक्षे अह्नां पञ्चदश मुहूर्ताः :- चित्रः केतुः प्रभानाभान्संभान्। ज्योतिष्मांस्तेजस्वानातपंस्तपन्नभितपन्। रोचनो रोचमानः शोभनः शोभमानः कल्याणः। - तै.ब्रा. ३.१०.१.१

*मन्द्राऽभिभूतिः केतुर्यज्ञानां वाक्। असावेहि। अन्धो जागृविः प्राण। असावेहि। बधिर आक्रन्दयितरपान। असावेहि। अहस्तोस्त्वा चक्षुः। असावेहि। अपादाशो मनः। असावेहि। कवे विप्रचित्ते श्रोत्र। असावेहि। सुहस्तः सुवासाः। शूषो नामास्यमृतो मर्त्येषु। तं त्वाऽहं तथा वेद। असावेहि। अग्निर्मे वाचि श्रितः। वाग्घृदये। हृदयं मयि। अहममृते। अमृतं ब्रह्मणि। वायुर्मे प्राणे श्रितः। प्राणो हृदये। हृदयं मयि। अहममृते। अमृतं ब्रह्मणि। सूर्यो मे चक्षुषि श्रितः। चक्षुर्हृदये। हृदयं मयि। अहममृते। अमृतं ब्रह्मणि। चन्द्रमा मे मनसि श्रितः। मनो हृदये। हृदयं मयि। अहममृते। अमृतं ब्रह्मणि। दिशो मे श्रोत्रे श्रिताः। श्रोत्रं हृदये। हृदयं मयि। अहममृते। अमृतं ब्रह्मणि। आपो मे रेतसि श्रिताः। रेतो हृदये। हृदयं मयि। अहममृते। अमृतं ब्रह्मणि। पृथिवी मे शरीरे श्रिता। शरीरं हृदये। हृदयं मयि। अहममृते। अमृतं ब्रह्मणि। ओषधिवनस्पतयो मे लोमसु श्रिताः। लोमानि हृदये। हृदयं मयि। अहममृते। अमृतं ब्रह्मणि। इन्द्रो मे बले श्रितः। बलं हृदये। हृदयं मयि। अहममृते। अमृतं ब्रह्मणि। पर्जन्यो मे मूर्ध्नि श्रितः। मूर्धा हृदये। हृदयं मयि। अहममृते। अमृतं ब्रह्मणि। ईशानो मे मन्यौ श्रितः। मन्युर्हृदये। हृदयं मयि। अहममृते। अमृतं ब्रह्मणि। आत्मा म आत्मनि श्रितः। आत्मा हृदये। हृदयं मयि। अहममृते। अमृतं ब्रह्मणि। पुनर्म आत्मा पुनरायुरागात्। पुनः प्राणः पुनराकूतमागात्। वैश्वानरो रश्मिभिर्वावृधानः। अन्तस्तिष्ठत्वमृतस्य गोपाः। - तै.ब्रा. ३.१०.८.२

*अथ यदाह चित्रः केतुर्दातो प्रदाता सविता प्रसविताऽभिशास्ताऽनुमन्तेति। एष एव तत्। एष ह्येव ते ऽह्नो मुहूर्ताः। एष रात्रेः। - तै.ब्रा. ३.१०.९.७

*यो ह वै मुहूर्तानां नामधेयानि वेद। न मुहूर्तेष्वार्तिमार्च्छति। चित्रः केतुर्दाता प्रदाता सविता प्रसविताऽभिशास्ताऽनुमन्तेति। एतेऽनुवाका मुहूर्तानां नामधेयानि। - तै.ब्रा. ३.१०.१०.३

*केतवो अरुणासश्च। ऋषयो वातरशनाः। प्रतिष्ठां शतधा हि। - तैत्तिरीय आरण्यक १.२१.३

*स तपोऽतप्यत। स तपस्तप्त्वा। शरीरमधूनुत। तस्य यन्मांसमासीत्। ततोऽरुणाः केतवो वातरशना ऋषय उदतिष्ठन्। - तै.आ. १.२३.२

*स इत आदायापः। अञ्जलिना पुरस्तादुपादधात्। एवा ह्येवेति। तत आदित्य उदतिष्ठत्। सा प्राची दिक्। अथाऽऽरुणः केतुर्दक्षिणत उपादधात्। एवा ह्यग्न इति। ततो वा अग्निरुदतिष्ठत्। सा दक्षिणा दिक्। अथाऽऽरुणः केतुः पश्चादुपादधात्। एवा हि वायो इति। ततो वायुरुदतिष्ठत्। सा प्रतीची दिक्।  अथाऽऽरुणः केतुरुत्तरत उपादधात्। एवा हीन्द्रेति। ततो वा इन्द्र उदतिष्ठत्। सोदीची दिक्। अथाऽऽरुणः केतुर्मध्य उपादधात्। एवा हि पूषन्निति। ततो वै पूषोदतिष्ठत्। सेयं दिक्। अथाऽऽरुणः केतुरुपरिष्टादुपादधात्। एवा हि देवा इति। ततो देवमनुष्याः पितरः। गन्धर्वाप्सरसश्चोदतिष्ठन्। सोर्ध्वा दिक्। या विप्रुषो वि परापतन्। ताभ्योऽसुरा रक्षांसि पिशाचाश्चोदतिष्ठन्। तस्मात्ते पराभवन्। विप्रुड्भ्यो हि ते समभवन्। - तै.आ. १.२३.५

*तं वा एतमरुणा केतवो वातरशना ऋषयोऽचिन्वन्। तस्मादारुणकेतुकः। तदेषाऽभ्यनूक्ता। केतवो अरुणासश्च। ऋषयो वातरशनाः। प्रतिष्ठां शतधा हि। समाहितासो सहस्रधायसमिति। - तै.आ. १.२४.४

*उपस्थानमन्त्रम् : - - - - केतवो अरुणासश्च। ऋषयो वातरशनाः। प्रतिष्ठां शतधा हि। समाहितासो सहस्रधायसम्। - तै.आ. १.३१.६

*(प्रतिप्रस्थाता दक्षिणं रौहिणं प्रतिष्ठितं जुहोति :)अहर्ज्योतिः केतुना जुषताम्। सुज्योतिर्ज्योतिषां स्वाहा। रात्रिर्ज्योतिः केतुना जुषताम्। सुज्योतिर्ज्योतिषां स्वाहा। - तै.आ. ४.१०.७

*अहर्ज्योतिः केतुना जुषताँ सुज्योतिर्ज्योतिषां स्वाहा रात्रिर्ज्योतिः केतुना जुषताँ सुज्योतिर्ज्योतिषां स्वाहेत्याह। आदित्यमेव तदमुष्मिंल्लोकेऽह्ना परस्ताद्दाधार। रात्रिया अवस्तात्। तस्मादसावादित्योऽमुष्मिंल्लोकेऽहोरात्राभ्यां१ धृतः। - तै.आ. ५.८.१२

*(अथैनं नवर्चेन याम्येन सूक्तेनोपतिष्ठते) प्र केतुना बृहता भात्यग्निराविर्विश्वानि वृषभो रोरवीति। दिवश्चिदन्तादुप मामुदानडपामुपस्थे महिषो ववर्ध इति। - तै.आ. ६.३.१

*यज्ञस्य वो रथ्यं विश्पतिं विशामिति वैश्वदेवं वृषाकेतुर्यजतो द्यामशायतेति वृषण्वद्द्वितीयेऽहनि द्वितीयस्याह्नो रूपम्। - ऐतरेय ब्राह्मण ४.३२

*ऊर्ध्वो न पाह्यंहसो नि केतुना विश्वं समत्रिणं दहेति। रक्षांसि वै पाप्माऽत्रिणो रक्षांसि पाप्मानं दहेत्येव तदाह। कृधी न ऊर्ध्वां चरथाय जीवस इति यदाह कृधी न ऊर्ध्वां चरणाय जीवस इत्येव तदाह। - ऐ.ब्रा. २.२

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