कैकेयी कौशल्या ज्ञान शक्ति का प्रतीक है व क्षत्रिय वर्ण है । कैकेयी इच्छा शक्ति का प्रतीक है व वैश्य वर्ण है । सुमित्रा क्रिया शक्ति का प्रतीक है व शूद्र वर्ण है । शूद्र अन्नमय कोश का, वैश्य प्राणमय कोश का और क्षत्रिय मनोमय कोश का प्रतीक है । दशरथ को कैकेयी सबसे अधिक प्रिय है क्योंकि प्राणमय कोश मनोमय और अन्नमय दोनों का भरण - पोषण करता है । इसके बिना वह जीवित नहीं रह सकते । दशरथ रूपी मनोमय कोश ऊर्ध्वमुखी होकर राम को सिंहासन पर आसीन करना चाहता है किन्तु अविकसित प्राणमय कोश रूपी कैकेयी जिसके पास मन्थर गति से चलने वाली मन्थरा दासी रूपी बुद्धि है , इसमें विद्रोह करती है । कैकेयी मन के एकाङ्गी विकास को स्वीकार नहीं करती , अपितु चाहती है कि परब्रह्म रूपी राम का लाभ सारे व्यक्तित्व को मिले । - फतहसिंह

 

व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास को चाहने वाली शुद्ध मन की शक्ति का कैकेयी के रूप में चित्रण

 - राधा गुप्ता

 

वाल्मीकि रामायण में अयोध्या काण्ड के अन्तर्गत अध्याय 7 से 42 तक कैकेयी से सम्बन्धित कथा का विसतार से वर्णन हुआ है। कथा का संक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार है --

कथा का संक्षिप्त स्वरूप

समझने की सरलता के लिए कथा को दो भागों में बाँटना उपयोगी है।

     पहले भाग में कहा गया है कि पूर्वकाल में देवासुर संग्राम के अवसर पर राजा दशरथ कैकेयी को साथ लेकर इन्द्र की सहायत के लिए पहुँचे। उस समय दण्डकारण्य के भीतर शम्बर नाम से प्रसिद्ध एक महामायवी असुर रहता था जिसे देवताओं के समूह भी पराजित नहीं कर पाते थे। उस असुर ने जब इन्द्र के साथ युद्ध छेड दिया, तब दशरथ ने भी असुरों के साथ बडा भारी युद्ध किया। परन्तु असुरों ने अपने तीक्ष्ण अस्त्र - शस्त्रों द्वारा दशरथ के शरीर को बहुत जर्जर कर दिया। राजा की चेतना लुप्त सी हो गई। तब रथ के सारथि का काम करती हुई कैकेयी ने पने पति दशरथ को रणभूमि से दूर ले जाकर उनके प्राणों की रक्षा की। इससे संतुष्ट होकर राजा ने कैकेयी से दो वरदान माँगने के लिए हा परन्तु कैकेयी ने आवश्यकता के समय उन वरदानों को लेना स्वीकार कर लिया।

     दूसरे भाग में कहा गया है कि अश्वपति की कन्या कैकेयी के पास मन्थरा नाम की एक दासी थी जो उसके मायके से ही आई हुई थी। एक दिन कैकेयी की वह दासी मन्थरा दैववश जब महल (प्रासाद) की छत पर चढ गई, तब राम के अभिषेक का समाचार सुनकर मन ही मन बहुत कुढ गई। अतः महल की छत से तुरन्त नीचे उतरकर वह कैकेयी के पास पहुँची और कैकेयी को राम के वनवास तथा भरत के राज्याभिषेक के रूप में राजा दशरथ से प्राप्त दो वरदान माँगने के लिए उकसाने लगी। प्रारम्भ में तो कैकेयी ने उसकी बात का प्रतीकार किया, परन्तु शीघ्र ही कैकेयी दशरथ से अपने दो वर माँगने के लिए तैयार हो गई। पहले वर के रूप में भरत का राज्याभिषेक और दूसरे वर के रूप में राम का वनवास माँगकर कैकेयी ने दशरथ को बहुत पीडा पहुँचाई। दशरथ के यथासम्भव प्रतिरोध करने पर भी कैकेयी टस से मस नहीं हुई र अपने निश्चय पर अडिग रहकर कैकेयी ने राम को 14 वर्ष के लिए वन की ओर भेज दिया।

कथा की प्रतीकात्मकता

कथा के अभिप्राय के समझने के लिए पहले सभी प्रतीकों को समझना उपयोगी होगा।

1- देवासुर संग्राम - मन के भीतर दैवी(सकारात्मक) र आसुरी (नकारात्मक) विचारों का जो युद्ध सतत् चलता रहता है, उसे ही पौराणिक साहित्य में देवासुर संग्राम कहा गया है।

2 - शम्बरासुर - शम्बर शब्द शम नामक शब्द के साथ ढंकनार्थ वाली बृ धातु के योग से बना है। अतः शम्बरासुर (शम+ वर+ असुर) का अर्थ है - वह आसुरी (नकारात्मक) विचार, जो मन के भीतर विद्यमान राम (शान्ति) को ढंक देता है, प्रकट नहीं होने देता।

3- देवताओं की पराजय - देवताओं की पराजय का अर्थ है - नकारात्मक विचारों के सामने सकारात्मक विचारों का हार जाना अर्थात् असत्य, बेईमानी, घृणा, अशान्ति, असहयोग जैसे नकारात्मक विचारों से सत्य, ईमानदारी, प्रेम, शान्ति, सहयोग जैसे सकारात्मक विचारों का पराजित हो जाना।

4- दशरथ - रामकथा में शुद्ध - शान्त - स्थिर मन को ही दशरथ के रूप में प्रस्तुत किया गया है।

5 - कैकेयी - कैकेयी शब्द ध्वनि अर्थ वाली कै धातु से बना प्रतीत होता है। मन में रहने वाली इच्छा ही मन के भीतर ध्वनि (आवाज) को उत्पन्न करती है फिर चाहे वह ध्वनि शरीर से सम्बन्धित हो अथवा आत्मा से। अतः ध्वनि को इच्छा का एक रूप ही कहा जा सकता है। इस आधार पर शुद्ध - शान्त- स्थिर मन के साथ सदैव विद्यमान रहने वाली इच्छा शक्ति जब यह इच्छा करती है कि व्यक्तित्व का विकास एकांगी (एकपक्षीय) न होकर सर्वांगीण अर्थात् बहुमुखी हो्, अर्थात् व्यक्तित्व शारीरिक - मानसिक - भावनात्मक तथा आध्यात्मिक सभी स्तरों पर समान रूप से विकसित हो, तब उस इच्छा शक्ति को कैकेयी नाम देना सार्थक ही है। चूंकि यह इच्छा शक्ति शुद्ध - शान्त स्थिर मन के साथ सदैव विद्यमान रहती है, इसलिए इसे कथा में दशरथ की पत्नी कहकर इंगित किया गया है।

     कैकेयी को केकयराज से उत्पन्न कहा गया है। केकयराज (केकय राज) का अर्थ है - केकय अर्थात् ध्वनियों का राजा अर्थात् ध्वनियों में श्रेष्ठ ध्वनि। यूं तो मन में अनेक प्रकार की इच्छा रूपी ध्वनियाँ विद्यमान रहती हैं, परन्तु व्यक्तित्व के सम्पूर्ण विकास की इच्छा रूप ध्वनि का जन्म नेकानेक श्रेष्ठ इच्छा रूप ध्वनियों के फलस्वरूप ही होता है - उससे पहले नहीं। इसी आधार पर कैकेयी को केकयराज से उत्पन्न कहा गया है।

     कथा में कैकेयी को अश्वपति की कन्या भी कहा गया है। अश्वपति का अर्थ है - इन्द्रिय रूपी अश्वों का स्वामी अर्थात् मन। कन्या शब्द विशेषता या गुण का वाचक है। अतः अश्वपति की कन्या कहकर यह संकेत किया गया है कि व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास की इच्छा करना मन की ही एक विशिष्टता है।

6 - मन्थरा - मन्थरा शब्द का अर्थ है - शिथिल, मन्द अथवा विलम्बकारी। व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास को चाहने वाली शक्तिर्थात् कैकेयी के साथ सदैव विद्यमान रहने वाली व्यक्तित्व- विकास की स्मृति को ही कथा में मन्थरा नाम दिया गया है। चूंकि यह स्मृति शिथिल रूप में विद्यमान रहती है र केवल परिस्थिति विशेष अर्थात् आत्मज्ञान के अनुचित विनियोग (राम के राज्याभिषेक) को देखकर ही प्रकट होती है - इसलिए इस शिथिलता अथवा मन्दता के कारण इसे मन्थरा कहना सार्थक ही है। इस शिथिल स्मृति के प्राकट्य से परिस्थिति निश्चित रूप से मुडती र्थात् परिवर्तित होती है, इसलिए इसे कुब्जा कह भी संकेतित किया गया है। कुब्जा शब्द का अर्थ ही है - मुडी हुई अर्थात् घुमावदार। व्यक्तित्व विकास की यह स्मृति इच्छा शक्ति (कैकेयी ) के आधीन रहती है, इसलिए इसे कथा में कैकेयी की दासी कहकर सम्बोधित किया गया है। इच्छा शक्ति के साथ सदा संयुक्त रहने के कारण इस स्मृति को कैकेयी के मायके से आई हुई भी कहा गया है। मन्थरा द्वारा कैकेयी के प्रासाद की छत पर चढने का अर्थ है - शिथिल रूप में विद्यमान इस स्मृति का इस रूप में प्रकट हो जाना कि जीवन में सुख - शान्ति की स्थापना आवश्यक है और शुद्ध - शान्त - स्थिर मन के माध्यम से जिस आत्मज्ञान का प्रादुर्भाव होता है, वही आत्मज्ञान अवचेतन मन या चित्त में पडे हुए विकारों(संस्कारों) को विनष्ट करने में समर्थ होता है।

7- वरदान - पौराणिक साहित्य में अवश्यम्भाविता अर्थात् अवश्य होने को ही वरदान के रूप में इंगित किया गया है। शुद्ध - शान्त - स्थिर मन एक न एक दिन आत्मज्ञान को धारण करके उस आत्मज्ञान के द्वारा चित्त में विद्यमान विकारों को विनष्ट करेगा और तब जीवन में सुख - शान्ति की स्थापना होगी - इस अवश्य घटित होने को ही यहां वरदान कहकर संकेतित किया गया है।

8 - राम - अपने वास्तविक स्वरूप - आत्मस्वरूप की पहचान( मैं शरीर नहीं हूँ अपितु शरीर को चलाने वाला, शरीर का मालिक चैतन्यशक्ति आत्मा हूँ) अर्थात् आत्मज्ञान को ही रामकथा में राम कहकर इंगित किया गया है। आत्मस्वरूप को पहचान लेना अर्थात् आत्मज्ञान अत्यन्त श्रेष्ठ स्थिति है क्योंकि अब मनुष्य पहली बार अपनी वास्तविक शक्ति से परिचित होकर उसका उचित उपयोग करने में समर्थ हो पाता है। वह यह समझ पाता है कि मैं आत्मा ही तो अपने प्रत्येक विचार का निर्माता और नियन्ता हूँ। मैं स्वाधीन हूँ, अतः जैसा चाहूँ - वैसा विचार रचकर अपने जीवन को मनचाही दिशा में गतिमान कर सकता हूँ। सुख - शान्ति, प्रेम, आनन्द मुझ आत्मा का स्वभाव है। स्वस्वरूप की यही पहचान मनुष्य मन को इतना आनन्दित करती है कि मनुष्य का शुद्ध - शान्त - स्थिर मन इसी में अनुरक्त हो जाता है जिसे कथा में दशरथ की राम के राज्याभिषेक की इच्छा के रूप में व्यक्त किया गया है।

9- भरत - जब मनुष्य अपने वास्तविक स्वरूप  आत्मस्वरूप को पहचान लेता है अर्थात् राम बन जाता है, तब आत्मा के सुख - शान्ति - शुद्धता - शक्ति - ज्ञान - प्रेम तथा आनन्द गुणों से भी स्वाभाविक रूप से ओत-प्रोत हो जाता है और उन्हीं गुणों को जीवन में बाँटता भी है. आत्मगुणों के धारण और वितरण को ही कथा में भरत नाम दिया गया है। भरत ( भरं+ त (तनोति इति) शब्द का अर्थ ही है - आत्मगुणों के भार र्थात् संग्रह को बाँटना। इस भरत की जीवन में स्थापना को ही भरत का राज्याभिषेक कहकर इंगित किया गया है।

10- वनगमन - अवचेतन मन या चित्त को ही पौराणिक साहित्य में वन कहा गया है। वन में गमन का अर्थ है - अवचेतन मन या चित्त में पडे हुए विकारों, संस्कारों को ध्यानपूर्वक देखना र उनके विनाश हेतु प्रयत्नशील होना। अज्ञान की अवस्था में मनुष्य कभी भी इस अवचेतन मन (चित्) की ओर ध्यान नहीं देता, परन्तु आत्मज्ञान में स्थित मनुष्य इसी अवचेतन मन को विशेष रूप से देखता है, समझता है और वहाँ विद्यमान संस्कारों को विनष्ट करने के लिए यथासम्भव प्रयत्नशील होता है।

11 - वनवास के 14 वर्ष - व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास हेतु यह आवश्यक होता है कि व्यक्तित्व के सभी 14 स्तरों पर पूर्ण शुद्धता स्थापित हो। ये 14 स्तर हैं - पाँच कर्मेन्द्रियाँ(वाक, पाणि, पाद, पायु, उपस्थ), पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ (आँख, नाक, कान, मुख, त्वचा), मन, बुद्धि, चित्त तथा अहंकार। आत्मज्ञान में स्थित होकर अवचेतन मन में विद्यमन संस्कारों (विकारों) का विनाश करते हुए ये सभी 14 स्तर शुद्ध हो जाते हैं, जिसे वनवास के 14 वर्ष कहकर संकेतित किया गया है।

कथा का अभिप्राय

शु्दध - शान्त - स्थिर मन (दशरथ) तीन शक्तियों से सदा संयुक्त रहता है। पहली है  ज्ञानशक्ति जिसे कौशल्या के रूप में, दूसरी है - क्रियाशक्ति जिसे सुमित्रा के रूप में तथा तीसरी है - इच्छाशक्ति जिसे कैकेयी के रूप में रामकथा में चित्रित किया गया है। शुद्ध - शान्त - स्थिर मन की यह तीसरी शक्ति(कैकेयी) चाहती है कि व्यक्तित्व का विकास सर्वांगीण हो अर्थात् व्यक्तित्व शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक र आध्यात्मिक - सभी स्तरों पर समान रूप से विकसित हो। अपने इस उद्देश्य को यह इच्छा शक्ति (कैकेयी) दो चरणों में पूरा करती है।

     पहले चरण में व्यक्तित्व - विकास को चाहने वाली यह शक्ति शुद्ध - शान्त - स्थिर मन को (दशरथ को) प्रत्येक आसुरी प्रहार से बचाकर सतत् उसकी रक्षा करती है, जिसका संकेत करने के लिए मुख्य रामकथा के भीतर ही देवासुर - संग्राम नाम के एक भिन्न कथानक को जोडा गया है। इस कथानक के माध्यम से यह संकेत किया गया है कि अवचेतन मन (चित्त) में पडे हुए प्रबल विकार ही चेतन मन पर निकल  निकलकर चेतन मन की शुद्धता - शान्ति - स्थिरता को निरन्तर भंग करते हैं। ऐसी स्थिति में यही इच्छा शक्ति (कैकेयी) किसी प्रकार प्रयत्नपूर्वक उस शुद्ध - शान्त - स्थिर मन को उन - उन विकारों से बचाती है। उदाहरण के लिए, किसी परिस्थिति विशेष में उदित हुआ रिश्वत लेने अथवा देने का प्रबल विकार शुद्ध - शान्त - स्थिर मन को इतना वशीभूत कर लेता है कि शुद्ध मन उसी दिशा में अग्रसर होने लगता है। तब शुद्ध मन के साथ विद्यमान व्यक्तित्व - विकास की प्रबल इच्छा ही उस विकार में फँसने से शुद्ध मन को बचाती है। अथवा कभी  कभी झूठ बोलने या क्रोध करने का प्रबल विकार शुद्ध् - शान्त् - स्थिर मन को ऐसा दबा लेता है कि मन अपनी शुद्धता, शान्तता, स्थिरता को बचाने में असमर्थ सा हो जाता है। तब वहीं विद्यमान व्यक्तित्व - विकास की प्रबल आकांक्षा शुद्ध - शान्त - स्थिर मन को किसी प्रकार बचा पाती है। इस तथ्य को कथानक में कैकेयी द्वारा दशरथ के रथ की सारथि बनकर दशरथ को शम्बरासुर आदि असुरों के आक्रमण से बचाने के रूप में इंगित किया गया है।

     कथा संकेत करती है कि व्यक्तित्व - विकास को चाहने वाली इच्छा शक्ति (कैकेयी) शुद्ध - शान्त - स्थिर मन की सतत् रक्षा करते हुए इस स्मृति के आधार पर आश्वस्त रहती है कि इसी शुद्ध् - शान्त् -स्थिर मन(दशरथ) के माध्यम् से एक न एक दिन आत्मज्ञान (राम) का आविर्भाव अवश्य होगा और फिर वही आत्मज्ञान अवचेतन मन(चित्त) में विद्यमान समस्त विकारों का विनाश करके जीवन में सुख - शान्ति - आनन्द को स्थापित करेगा। इस अवश्यम्भाविता अर्थात् अवश्य होने को ही कथा में दशरथ द्वारा कैकेयी को दिए गए दो वरदानों के रूप में चित्रित किया गया है।

     दूसरे चरण में व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास को चाहने वाली यह शक्ति (कैकेयी) शुद्ध - शान्त - स्थिर मन (दशरथ) को प्रेरित करती है कि अब वह प्राप्त हुए आत्मज्ञान का विनियोग उचित दिशा में करे अर्थात् व्यक्तित्व विकास के प्रथम चरण में इच्छाशक्ति शुद्ध - शान्त - स्थिर मन को समस्त आसुरो प्रभावों से केवल इसलिए बचाती है कि किसी न किसी दिन यही मन आत्मज्ञान को अवश्य प्रादुर्भूत करेगा अब आत्मज्ञान के प्रादुर्भूत हो जाने पर दूसरे चरण में इच्छा                                                                                                                                                                                           शक्ति चाहती है कि शुद्ध - शान्त - स्थिर मन इस प्रादुर्भूत हुए आत्मज्ञान का विनियोग सबसे पहले उसी क्षेत्र में करे जहाँ इसकी सबसे अधिक आवश्यकता है। वह क्षेत्र है - अवचेतन मन (चित्) का जहाँ आसुरी शक्तियाँ भरी पडी हैं। इसी क्षेत्र को रामकथा  में दण्डकारण्य अथवा दण्डकवन कहा गया है।

     इस तथ्य से सभी परिचित हैं कि शरीर का अभिमानी होकर अर्थात् शरीर को ही अपना वास्तविक स्वरूप मानकर मनुष्य जो भी मानसिक, वाचिक अथवा कायिक कर्म करता है - उसकी छापें उसके अवचेतन मन (चित्त) में इकट्ठा हो जाती हैं जिन्हें संस्कार कहते हैं। अनेकानेक जन्मों की लम्बी यात्रा में ऐसे ढेर सारे संस्कार इकट्ठा हो जाते हैं जो सकारात्मक(दैवी) तथा नकारात्मक(आसुरी) दोनों ही प्रकार के होते हैं। ये संस्कार अवचेतन मन (चित्त्) से निकल - निकल कर चेतन मन को प्रभावित करते हैं। आत्मज्ञान अथवा आत्मस्वरूप में स्थित होकर जब मनुष्य अपने समस्त संकल्पों (विचारों) का निर्माता और नियन्ता बन जाता है, तब ही वह अवचेतन मन से निकलकर चेतन मन पर प्रकट हुए संस्कारों (विचारों) को नष्ट कर पाता है, उससे पहले नहीं। जैसे ही अवचेतन मन (चित्त्) से एक नकारात्मक विचार निकलकर चेतन मन के स्तर पर पहुँचता है, वैसे ही आत्मज्ञान में स्थित मनुष्य उस नकारात्मक विचार को सकारात्मक विचार में रूपान्तरित कर लेता है। उदाहरण के लिए - चित्त से निकले हुए घृणा अथवा द्वेष के विचार को वह प्रेम के विचार से अथवा क्रोध के विचार को शान्ति के विचार से आरोपित करके धीरे - धीरे समस्त विचारों को समाप्तकर देता है, जिसे रामकथा में राम द्वारा समस्त राक्षसों के विनष्ट होने के रूप में इंगित किया गया है।

     आत्मज्ञान र्थात् स्व - स्वरूप को पहचान लेना अत्यन्त श्रेष्ठस्थिति है और शुद्ध -शान्त - मन को बहुत आनन्दित भी करती है। परन्तु शुद्ध - शान्त - स्थिर मन का इसी में अनुरक्त हो जाना अथवा सीमित हो जाना उचित नहीं है क्योंकि यह स्थिति व्यक्तित्व के केवल एकांगी विकास का प्रतिनिधित्व करती है। जब तक व्यक्तित्व में किसी भी तल पर आसुरी शक्तियाँ विद्यमान हैं, तबतक सर्वांगीण विकास की सम्भावना नगण्य ही है। अतः व्यक्तित्व - विकास को चाहने वाली शक्ति (कैकेयी)अपनी स्मृति के सहारे ही जब यह देखती है कि शुद्ध - शान्त - स्थिर मन (दशरथ) आत्मज्ञान (राम) पर मुग्ध होकर मुख्य लक्ष्य से विचलित हो गया है, तब यह शक्ति क्रुद्ध होकर शुद्ध - शान्त - स्थिर मन (दशरथ ) को लक्ष्य का स्मरण कराती है र मन के न मानने पर उसे प्रताडित भी करती है और क्षुब्ध भी। व्यक्तित्व के सर्वाँगीण विकास हेतु यह शक्ति तब तक अपने लक्ष्य पर अडिग बनी रहती है जब तक शुद्ध - शान्त - स्थिर मन आत्मज्ञान का उचित दिशा में विनियोग नहीं करता। इसी समस्त ज्ञान का वर्णन कथा में यह कहकर किया गया है कि कैकेयी ने राम के राज्याभिषेक को स्वीकार नहीं किया। वह राम के वनगमन हेतु अडिग बनी रही र अन्ततः राम वन को चले गए।

     सार रूप में यह कहा जा सकता है कि व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास चाहने वाली शक्ति (कैकेयी) अपने उद्देश्य की पूर्ति हेतु दो कार्य करती है। पहला है - शुद्ध - शान्त - स्थिर मन को आसुरी शक्तियों से निरन्तर बचाना र दूसरा है - शुद्ध - शान्त - स्थिर मन के माध्यम से ही प्रकट हुए आत्मज्ञान को सुदृढ संस्कारों (विचारों) के विनाश हेतु प्रेरित करना।

प्रथम लेखन – 30-6-2014ई.(आषाढ शुक्ल तृतीया, विक्रम संवत् 2071)

Kaikeyi – a Power, Desirous for Total Development of Personality

-         Radha Gupta

 

In Ayodhya Kanda (chapter 5 tp 42), there is a detailed description of Kaikeyi. This description can be divided in two parts.

         In first part, it is said that once a battle was fought between deities and demons. When demons overpowered deities, king Dasharatha also went there with his wife Kaikeyi to help Indra and fought against demons. Demons were very powerful. They heavily attached Dasharatha but Kaikeyi being the charioteer of his chariot, somehow saved Dasharatha. Dasharatha became very happy and offered her to seek two boons but Kaikeyi opted to ask for them later on.

         In second part, it is said that on day, Mantharaa – the maid of Kaikeyi, when climbed on the top of castle, she came to know about coronation ceremony of Rama and got hurt  mentally. She immediately approached Kaikeyi and provoked her to ask two boons promised to her by Dasharatha – coronation of Bharata and exile for Rama for fourteen years. Kaikeyi agreed and demanded boons from Dasharatha when he came to her. Dasharatha opposed Kaikeyi’s demand but at last he had to accept and send Rama to exile.

         A pure – peaceful – stable mind always has three powers – the power of  knowledge  symbolized as Kaushalya, the power of action symbolized as Sumitra and the power of desire symbolized as Kaikeyi.

         This story relates with the third power which desires the development of personality in every field – physical, mental, emotional and spiritual. To fulfill this purpose, this power named Kaikeyi works at two levels.

         At first level, this power – desirous for total development of personality always protects a pure – peaceful – stable mind from all vices lying in sub-conscious mind. This is symbolized as protecting Dasharatha from all asuras living in Dandakaranya. This power vividly knows that in future this pure – peaceful – stable mind surely will help in manifesting knowledge, i.e., Atma jnana and then that Atma jnana will establish peace and bliss in life killing all vices fron the sub-conscious mind> This is symbolized as having two boons by Kaikeyi from Dasharatha.

         At second level, when a pure –peaceful-stable mind manifests knowledge, i.e. , Atma jnana but does not use that Atma jnana for the cleansing of sub-conscious mind, then this power – desirous for total development of personality remembers the past and demands the pure – peaceful – stable mind( Dasharatha) to use that knowledge, i.e., Atma jnana for the cleansing of sub-consciousness mind – a store house of sanskaras. This is symbolized as demand by Kaikeyi to send Rama to exile.

 

Here the  story discloses this truth that the knowledge, i.e., Atma jnana is so wonderful, powerful, high, noble, dignified, great, lovely, soothing and charming that a pure –peaceful-stable mind attracts and gets entangled in it. He does not have this foresightedness that the ultimate use of this knowledge is  the cleaning of sub-conscious mind. In this situation, this power only – desirous for total development comes forth, stands strongly and inspires the pure – peaceful stable mind to engage knowledge, i.e., Atma jnana where it is most desired. This is symbolized as sending Rama to reside in forest.

         The story points out two more aspects. This power (Kaikeyi) knows that living in body-consciousness, a person collects so many sanskaras in his sub-conscious mind and these sanskaras regularly affect the conscious mind. Therefore it becomes necessary to clean this sub-conscious.

         This power also knows that living in body-consciousness, a person is never able to clean this subconscious but knowledge (Atma jnana) enables him to do the same because a person possessed with knowledge has the mastery over seld. He not only creates pure – powerful thoughts but he also transforms all negatives into positive.

 

कैकेयी का वैदिक दृष्टिकोण

-          विपिन कुमार

वाल्मीकि रामायण में कैकेयी केकयराज की पुत्री तथा दशरथ की पत्नी है, जबकि पौराणिक साहित्य में केकय देश के राजा की जो भी पुत्री होगी, उसकी कैकेयी संज्ञा होगी। उदाहरण के लिए, राजा विराट की पत्नी सुदेष्णा भी कैकेयी है। कैकेयी को समझने के लिए यह समझना होगा कि वैदिक साहित्य में केकय अथवा कैकेय का क्या अर्थ है। कै धातु शब्दे अर्थ में प्रयुक्त होती है।  ब्रह्म पुराण 1.34.71 में तथा अन्यत्र भी सार्वत्रिक उल्लेख आते हैं कि ऋषियों के आश्रम में मयूर केका शब्द करते हैं। यह स्पष्ट है कि मयूर किसी ध्वनि की प्रतिध्वनि करता है। ऋषियों के आश्रमों में तो मन्त्रध्वनि होती है, अतः मयूर उसी ध्वनि की प्रतिध्वनि करते हैं। केकय शब्द को भी प्रतिध्वनि करने वाले के रूप में समझा जा सकता है। हमारे सर्वोच्च स्तर पर जो ज्ञान, जो ध्वनि हमें श्रुति रूप में, वेदों के रूप में प्राप्त हो रही है, उसको अपने व्यावहारिक जीवन में कैसे प्रतिध्वनित किया जाए, उसे स्मृति कैसे बनाया जाए, यह केकय का लक्ष्य हो सकता है। वेदों में तो प्रत्यक्ष रूप से केकय शब्द प्रकट नहीं होता। लेकिन ब्राह्मण ग्रन्थों में केकय शब्द के विरल उल्लेख हैं।

         आचार्य रजनीश ने अपनी व्याख्यानमाला कुण्डलिनी और सात शरीर में यह स्पष्ट किया है कि हमारे व्यक्तित्व के अन्नमय, प्राणमय, मनोमय आदि 7 कोश हैं, उनमें उच्चतर कोश अपने से नीचे के कोश को शक्ति प्रदान करता है। इस शक्ति को पाकर ही निचला कोश सक्रिय हो पाता है। उदाहरण के लिए, जब किसी भय आदि के कारण स्थूल शरीर या अन्नमय कोश को सूक्ष्म शरीर से मिलने वाली शक्ति बंद हो जाती है तो पैर लडखडाने लगते हैं। इसी तथ्य को जैमिनीय ब्राह्मण 3.351 में अलग ढंग से प्रस्तुत किया गया है। इस आख्यान के अनुसार जो वामन पुरुष है (अन्य भाषा में, जो अंगुष्ठ पुरुष है), उसके पास सब प्राणों का, सब देवों का सार रूप, श्रेष्ठ रूप (वाम) संगृहीत रहता है। जब सारे प्राण सो जाते हैं तो यही वामन पुरुष जागता है और निद्रा की समाप्ति पर यही सब प्राणों को पुनः सक्रिय बनाता है। यह वामन पुरुष अपने पद हृदय में स्थापित किए रहता है और मृत्यु के समय यह अपने पदों को वहां से हटा लेता है तो शरीर निर्जीव हो जाता है।  

जैमिनीय ब्राह्मण 3.354 में इसी आख्यान का और विस्तार किया गया है। आख्यान के अनुसार देवों को न तो श्रम करने की आवश्यकता पडती है(श्रम न करने का कारण यह है कि उनकी जो भी कामना होती है, उसकी पूर्ति कल्प वृक्ष से तुरन्त हो जाती है), न उन्हें स्वप्न, निद्रा आदि सताते हैं। लेकिन किसी कारण से देवों को श्रम करना पडा तो उन्हें स्वप्न आदि ने सताया। तब असुरों ने उनके गुणों का हरण कर लिया और उसे आपः या जल में छिपा दिया। विष्णु ने देवों को बता दिया कि असुरों ने यहां छिपाया है। देवों ने व्याहृतियों के माध्यम से उन गुणों को पुनः प्राप्त किया और वे उन्हें विष्णु को सौंपते गए। विष्णु ह्रस्व या वामन हो गए। फिर विष्णु ने अपने पदों द्वारा विराट रूप धारण कर लिया। यह विष्णुपदीय कैकेय यज्ञ कहलाता है। यह आख्यान पुराणों के सार्वत्रिक आख्यान वामन – बलि कथा का ही रूपान्तर प्रतीत होता है। लेकिन पुराणों में यह प्रत्यक्ष नहीं किया गया है कि वामन का प्राकट्य कैसे हुआ। जैमिनीय ब्राह्मण का कथन है कि जो भी किसी देवता का श्रेष्ठतम भाग है, वह वामन पुरुष के पास उसे जमा करता गया। जब जमा पूंजी बहुत अधिक हो गई तो उसके द्वारा वामन ने अपना विराट रूप प्रकट कर दिखाया। विराट रूप को विष्णुपदीय कैकेय यज्ञ कहा जा रहा है। इस संदर्भ में आधुनिक भौतिक विज्ञान का यह सिद्धान्त ध्यान रखने योग्य है कि दो संयुग्मित राशियों का गुणनफल स्थिर रहता है। एक राशि छोटी होती है तो दूसरी बडी हो जाती है।

    जैमिनीय ब्राह्मण के उपरोक्त वामन कैकेय यज्ञ आख्यान को अन्य ग्रन्थों में अन्य प्रकार से, वैश्वानर विद्या के माध्यम से समझाया गया है। शतपथ ब्राह्मण 3.2.2.23 में तो वामन के स्थान पर वैश्वानर को रखा गया है। वैश्वानर का मूल रूप विश्वानर या विश्व + नर है। सबसे पहले विश्व का निर्माण करने की आवश्यकता होती है। डा. फतहसिंह के शब्दों में, चेतना को अन्तर्मुखी कर लेना विश्व कहलाता है तथा बर्हिमुखी कर लेना सर्व कहलाता है। लेकिन चेतना को अन्तर्मुखी कहकर विश्व शब्द की व्याख्या कर देना पर्याप्त नहीं होगा। यह भी कहना होगा कि अन्तर्मुखी करने के लिए अव्यवस्था को, एण्ट्रांपी को न्यूनतम करना पडेगा। आधुनिक विज्ञान के अनुसार तो इस संसार में सभी दरवाजे बाहर की ओर ही खुलते हैं, अंदर की ओर कोई नहीं खुलता। इस संदर्भ में आईन्स्टीन का एक विरोधाभास(पैराडांक्स) प्रसिद्ध है जिसका यहां आगे उल्लेख नहीं किया जाएगा। कोई ऐसा उपाय नहीं है कि एण्ट्रांपी को न्यूनतम किया जा सके। ब्राह्मण ग्रन्थों ने व्याख्या की है कि सूर्य अपनी रश्मियों के द्वारा इस विश्व का अपने अन्दर आदान कर लेता है। किस वस्तु से किस श्रेष्ठतम रस का आदान करता है, यह भी दिया गया है। यदि चेतना को अन्तर्मुखी कर लेना विश्व है तो बहिर्मुखी कर लेना नर हो सकता है। माण्डूक्योपनिषद से यह संकेत भी मिलता है कि वैश्वानर ओंकार से सम्बन्धित हो सकता है। ओंकार की तीन मात्राएं अ, उ व म हैं। अ से आदान, उ से धारण तथा म से विसर्जन किया जाता है। अतः यह कहा जा सकता है कि वैश्वानर में विश्व द्वारा आदान किया जाता है और नर द्वारा विसर्जन। लेकिन बीच की मात्रा उ का क्या होगा, यह अज्ञात है।

    केकय और कैकेयी में क्या सम्बन्ध है, इस संदर्भ में यह तर्क दिया जा सकता है कि प्रतिध्वनि होने के पश्चात्, वामन द्वारा विराट रूप धारण करने के पश्चात् रूपान्तरित प्रकृति की जो स्थिति है, उसे कैकेयी संज्ञा दी गई है। इसका प्रमाण यह दिया जा सकता है कि दशरथ की पत्नी बनने से पहले कैकेयी का नाम कलहा था। दशरथ ने पूर्व जन्म में अपने पुण्यों का दान कलहा को किया, तब वह अगले जन्म में दशरथ की पत्नी बनी। लेकिन यह विचित्र तथ्य है कि वाल्मीकि रामायण में कैकेयी का चरित्र चित्रण कोई बहुत सुन्दर रूप में नहीं किया गया है। उसकी दासी को मन्थरा नाम दिया गया है जो एक दिन महल की छत पर चढ जाती है तो उसे राम का राज्याभिषेक दिखाई पडता है। यह संकेत करता है कि मन्थरा सोई हुई कुण्डलिनी शक्ति है जो कभी – कभी आकस्मिक रूप से जाग जाती है, ऊपर चढ जाती है तो उसे राम का राज्याभिषेक दिखाई देने लगता है।

     दशरथ – कैकेयी प्रसंग में दशरथ द्वारा शम्बरासुर से लडने और दशरथ के चेतनाहीन होने पर कैकेयी द्वारा रथ को युद्धभूमि से परे ले जाने का उल्लेख आता है। इस आख्यान में यह विचारणीय है कि शम्बरासुर कौन है। शम्बरासुर शब्द में शम् को असुर रूप दे दिया गया है। साधारण जीवन में तो हमें जैसे ही क्षुधा सताती है, हम भोजन द्वारा उसका शमन कर लेते हैं। इसमें दैवी और आसुरी तथ्य क्या है। ब्राह्मण ग्रन्थों का कहना है कि वास्तविक शमन सोम द्वारा होता है। शम्बरासुर के रथ की ध्वजा क्रौञ्च रूप कही गई है। क्रौञ्च का यह गुण होता है कि वह आपः से क्षीर को निकाल कर पी जाता है, जबकि हंस का गुण होता है कि वह आपः से सोम को निकाल कर पीता है (अद्भ्यः क्षीरं व्यपिबत् क्रुङ्ङ् आङ्गिरसो धिया । - - -  सोमम् अद्भ्यो व्यपिबच् छन्दसा हम्̐सः शुचिषत् । - वाजसनेयि संहिता 19.74) । ब्राह्मण ग्रन्थों में कहा गया है कि पहले वैश्वानर अग्नि पापों को जलाती है, कार्य के फलस्वरूप जो कारण या फल बनता है, उसका नाश करती है। उसके पश्चात् शमन की स्थिति आती है(जैमिनीय ब्राह्मण 1.313)। हो सकता है कि वैश्वानर अग्नि के सहयोग के बिना ही जो शमन किया जाए वह शम्बरासुर हो। इससे हमें शिक्षा मिलती है कि जब भी जठराग्नि प्रज्वलित हो, उसमें वैश्वानर अग्नि के स्वरूप को ढूंढने की चेष्टा की जानी चाहिए। शम्बर असुर का दैवी रूप पुराणों का शम्भल या सम्भल ग्राम है जिसमें कल्कि अवतार का जन्म होता है। कल्कि शब्द का शुद्ध रूप कर्कि है। कर्क या कृक का अर्थ भी प्रतिध्वनि करना होता है। जहां हमारे शरीर के कोशों के निर्माण में, उनका प्रतिरूप बनने में जरा सी भी गडबड उत्पन्न हो जाती है, तुरन्त कैंसर नामक व्याधि उठ खडी होती है। कर्क राशि को अंग्रेजी में कैंसर कहते हैं। अतः यह कहा जा सकता है कि प्रतिध्वनि जीवन के किसी एक आयाम से सम्बन्धित नहीं है, अपितु बहुआयामी है।

     यह संभव है कि जैमिनीय ब्राह्मण में जिस वामन या ह्रस्व पुरुष के निर्माण का उल्लेख है, वह शम्बरासुर से ही सम्बन्धित हो। जैसे हमारे प्राण होंगे, वैसा ही उनका सार निकल कर ह्रस्व पुरुष का निर्माण करेगा। दशरथ का अर्थ होता है जहां दस प्राण रथ बन गए हों। स्वाभाविक है कि दस श्रेष्ठ प्राण यह प्रयत्न करेंगे कि ह्रस्व पुरुष के स्वरूप में परिवर्तन आ जाए।

     सोमयाग में सुत्या अह के अन्त में यज्ञायज्ञीय साम गान होता है जिसके शब्द हैं – यज्ञायज्ञा वो अग्नये इरा इरा च दक्षसे इति। यज्ञायज्ञीय नाम से संकेत मिलता है कि एक यज्ञ से दूसरे यज्ञ में ऊर्जा का स्थान्तरण हो रहा है। इस गान के पश्चात् यजमान में वरदान देने की सामर्थ्य आ जाती है, ऐसा उल्लेख है। यह अन्वेषणीय है कि क्या इस सामगान का दशरथ – शम्बरासुर – कैकेयी आख्यान से कोई सम्बन्ध है। शतपथ ब्राह्मण 10.3.2.8 में यज्ञायज्ञीय साम को अवाङ् प्राण कहा गया है।

प्रथम लेखन – 20-7-2014ई.(श्रावण कृष्ण नवमी, विक्रम संवत् 2071 ) 

 

संदर्भ

 

*अथ हैतेऽरुणे  औपवेशौ समाजग्मुः सत्ययज्ञः पौलुषिर्महाशालो जाबालो बुडिल आश्वतराश्विरिन्द्रद्युम्नो भाल्लवेयो जनः शार्कराक्ष्यस्ते वैश्वानरे समासत तेषां वैश्वानरे समियाय॥1॥ ते होचुः  अश्वपतिर्वा अयं कैकेयः सम्प्रति वैश्वानरं वेद तं गच्छामेति ते हाश्वपतिं कैकेयमाजग्मुस्तेभ्यो पृथगावसथान्पृथगपचितीः पृथक्साहस्रान्त्सोमान्प्रोवाच ते प्रातरसंविदाना एव समित्पाणयः प्रतिचक्रमिर उप त्वायामेति॥2॥ स होवाच  यन्नु भगवन्तोऽनूचाना अनूचानपुत्राः किमिदमिति ते होचुर्वैश्वानरं भगवान्त्सम्प्रति वेद तं नो ब्रूहीति होवाच सम्प्रति खलु न्वा अहं वैश्वानरं वेदाभ्याधत्त समिध उपेता स्थेति॥3॥ स होवाचारुणमौपवेशिं  गौतम कं त्वं वैश्वानरं वेत्थेति पृथिवीमेव राजन्निति होवाचोमिति होवाचैष वै वैश्वानर एतं हि वै त्वं प्रतिष्ठां वैश्वानरं वेत्थ तस्मात्त्वं प्रतिष्ठितः प्रजया पशुभिरसि यो वा एतम् प्रतिष्ठां वैश्वानरं वेदाप पुनर्मृत्युं जयति सर्वमायुरेति पादौ त्वा एतौ वैश्वानरस्य पादौ तेऽम्लास्यतां यदि नागमिष्य इति पादौ ते ऽविदितावभविष्यतां यदि नागमिष्य इति वा॥4॥ अथ होवाच सत्ययज्ञं पौलुषिम्  प्राचीनयोग्य कं त्वं वैश्वानरं वेत्थेत्यप एव राजन्निति होवाचोमिति होवाचैष वै रयिर्वैश्वानर एतं हि वै त्वं रयिं वैश्वानरं वेत्थ तस्मात्त्वं रयिमान्पुष्टिमानसि यो वा एतं रयिं वैश्वानरं वेदाप पुनर्मृत्युं जयति सर्वमायुरेति वस्तिस्त्वा एष वैश्वानरस्य वस्तिस्त्वाऽहास्यद्यदि नागमिष्य इति वस्तिस्ते ऽविदितोऽभविष्यद्यदि नागमिष्यऽ इति वा॥5॥ अथ होवाच महाशालं जाबालम्  औपमन्यव कं त्वं वैश्वानरं वेत्थेत्याकाशमेव राजन्निति होवाचोमिति होवाचैष वै बहुलो वैश्वानर एतं हि वै त्वं बहुलं वैश्वानरं वेत्थ तस्मात्त्वं बहुः प्रजया पशुभिरसि यो वा एतम् बहुलं वैश्वानरं वेदाप पुनर्मृत्युं जयति सर्वमायुरेत्यात्मा त्वा एष वैश्वानरस्यात्मा त्वाऽहास्यद्यदि नागमिष्य इत्यात्मा ते ऽविदितोऽभविष्यद्यदि नागमिष्य इति वा॥6॥ अथ होवाच बुडिलमाश्वतराश्विम्  वैयाघ्रपद्य कं त्वं वैश्वानरं वेत्थेति वायुमेव राजन्निति होवाचोमिति होवाचैष वै पृथग्वर्त्मा वैश्वानर एतं हि वै त्वं पृथग्वर्त्मानं वैश्वानरं वेत्थ तस्मात्त्वां पृथग्रथश्रेणयोऽनुयान्ति यो वा एतं पृथग्वर्त्मानं वैश्वानरं वेदाप पुनर्मृत्युं जयति सर्वमायुरेति प्राणस्त्वा एष वैश्वानरस्य प्राणस्त्वाहास्यद्यदि नागमिष्य इति प्राणस्ते विदितो ऽभविष्यद्यदि नागमिष्य इति वा॥7॥ अथ होवाचेन्द्रद्युम्नं भाल्लवेयम्  वैयाघ्रपद्य कं त्वं वैश्वानरं वेत्थेत्यादित्यमेव राजन्निति होवाचोमिति होवाचैष वै सुततेजा वैश्वानर एतं हि वै त्वं सुततेजसं वैश्वानरं वेत्थ तस्मात्तवैष सुतोऽद्यमानः पच्यमानोऽक्षीयमाणो गृहेषु तिष्ठति यो वा एतं सुततेजसं वैश्वानरं वेदाप पुनर्मृत्युं जयति सर्वमायुरेति चक्षुस्त्वा एतद्वैश्वानरस्य चक्षुस्त्वाहास्यद्यदि नागमिष्य इति चक्षुस्तेऽविदितमभविष्यद्यदि नागमिष्य इति वा॥8॥ अथ होवाच जनं शार्कराक्ष्यम्  सायवस कं त्वं वैश्वानरं वेत्थेति दिवमेव राजन्निति होवाचोमिति होवाचैष वा अतिष्ठा वैश्वानर एतं हि वै त्वमतिष्ठां वैश्वानरं वेत्थ तस्मात्त्वं समानानतितिष्ठसि यो वा एतमतिष्ठां वैश्वानरं वेदाप पुनर्मृत्युं जयति सर्वमायुरेति मूर्धा त्वा एष वैश्वानरस्य मूर्धा त्वाहास्यद्यदि नागमिष्य इति मूर्धा तेऽविदितोऽभविष्यद्यदि नागमिष्य इति वा॥9॥ तान्होवाच  एते वै यूयं पृथग्वैश्वानरान्विद्वांसः पृथगन्नमघस्त प्रादेशमात्रमिव वै देवाः सुविदिता अभिसम्पन्नास्तथा तु एनान्वक्ष्यामि यथा प्रादेशमात्रमेवाभिसम्पादयिष्यामीति होवाच  मूर्धानमुपदिशन्नेष वा अतिष्ठा वैश्वानर इति चक्षुषी उपदिशन्नुवाचैष वै सुततेजा वैश्वानर इति नासिके उपदिशन्नुवाचैष वै पृथग्वर्त्मा वैश्वानर इति मुख्यमाकाशमुपदिशन्नुवाचैष वै बहुलो वैश्वानर इति मुख्या अप उपदिशन्नुवाचैष वै रयिर्वैश्वानरो इति च्छुबुकमुपदिशन्नुवाचैष वै प्रतिष्ठा वैश्वानर इति एषोऽग्निर्वैश्वानरो यत्पुरुषः यो हैतमेवमग्निं वैश्वानरं पुरुषविधं पुरुषेऽन्तः प्रतिष्ठितं वेदाप पुनर्मृत्युं जयति सर्वमायुरेति हास्य ब्रुवाणं चन वैश्वानरो हिनस्ति॥11॥ – मा.श. 10.6.1-11

*प्राचीनशाल औपमन्यवः सत्ययज्ञः पौलुषिरिन्द्रद्युम्नो भाल्लवेयो जनः शार्कराक्ष्यो बुडिल आश्वतराश्विस्ते हैते महाशाला महाश्रोत्रियाः समेत्य मीमांसां चक्रुः । को न आत्मा किं ब्रह्मेति ॥ ५,११.१ ॥ ते ह संपादयां चक्रुः । उद्दालको वै भगवन्तोऽयमारुणिः संप्रतीममात्मानं वैश्वानरमध्येति । तं हन्ताभ्यागच्छामेति । तं हाभ्याजग्मुः ॥ ५,११.२ ॥ स ह संपादयां चकार । प्रक्ष्यन्ति मामिमे महाशाला महाश्रोत्रियाः । तेभ्यो न सर्वमिव प्रतिपत्स्ये । हन्ताहमन्यमभ्यनुशासानीति ॥ ५,११.३ ॥ तान् होवाच । अश्वपतिर्वै भगवन्तोऽयं कैकेयः संप्रतीममात्मानं वैश्वानरमध्येति । तं हन्ताभ्यागच्छामेति । तं हाभ्याजग्मुः ॥ ५,११.४ ॥ तेभ्यो ह प्राप्तेभ्यः पृथगर्हाणि कारयां चकार । स ह प्रातः संजिहान उवाच । न मे स्तेनो जनपदे न कदर्यो न मद्यपः । नाहिताग्निर्नाविद्वान्न स्वैरी स्वैरिणी कुतः । यक्ष्यमाणो वै भगवन्तोऽहमस्मि । यावदेकैकस्मा ऋत्विजे धनं दास्यामि तावद्भगवद्भ्यो दास्यामि । वसन्तु भगवन्त इति ॥ ५,११.५ ॥ ते होचुः । येन हैवार्थेन पुरुषश्चरेत्तं हैव वदेत् । आत्मानमेवेमं वैश्वानरं संप्रत्यध्येषि । तमेव नो ब्रूहीति ॥ ५,११.६ ॥ तान् होवाच । प्रातर्वः प्रतिवक्तास्मीति । ते ह समित्पाणयः पूर्वाह्णे प्रतिचक्रमिरे । तान् हानुपनीयैवैतदुवाच ॥ ५,११.७ ॥ औपमन्यव कं त्वमात्मानमुपास्स इति । दिवमेव भगवो राजन्निति होवाच । एष वै सुतेजा आत्मा वैश्वानरो यं त्वमात्मानमुपास्से । तस्मात्तव सुतं प्रसुतमासुतं कुले दृश्यते ॥ ५,१२.१ ॥ अत्स्यन्नं पश्यसि प्रियम् । अत्त्यन्नं पश्यति प्रियं भवत्यस्य ब्रह्मवर्चसं कुले ये एतमेवमात्मानं वैश्वानरमुपास्ते । मूधा त्वेष आत्मन इति होवाच । मूर्धा ते व्यपतिष्यद्यन्मां नागमिष्य इति ॥ ५,१२.२ ॥ अथ होवाच सत्ययज्ञं पौलुषिम् । प्राचीनयोग्य कं त्वमात्मानमुपास्स इति । आदित्यमेव भगवो राजन्निति होवाच । एष वै विश्वरूप आत्मा वैश्वानरो यं त्वमात्मानमुपास्ते । तस्मात्तव बहु विश्वरूपं कुले दृश्यते ॥ ५,१३.१ ॥ प्रवृत्तोऽश्वतरीरथो दासी निष्कः । अत्स्यन्नं पश्यसि प्रियम् । अत्त्यन्नं पश्यति प्रियं भवत्यस्य ब्रह्मवर्चसं कुले य एतमेवमात्मानं वैश्वानरमुपास्ते । चक्षुष्ट्वेतदात्मन इति होवाच । अन्धोऽभविष्यो यन्मां नागमिष्य इति ॥ ५,१३.२ ॥ अथ होवाचेन्द्रद्युम्नं भाल्लवेयम् । वैयाघ्रपद्य कं त्वमात्मानमुपास्स इति । वायुमेव भगवो राजन्निति होवाच । एष वै पृथग्वर्त्मात्मा वैश्वानरो यं त्वमात्मानमुपास्से । तस्मात्त्वां पृथग्बलय आयन्ति पृथग्रथश्रेणयोऽनुयन्ति ॥ ५,१४.१ ॥ अत्स्यन्नं पश्यसि प्रियम् । अत्त्यन्नं पश्यति प्रियं भवत्यस्य ब्रह्मवर्चसं कुले य तमेवमात्मानं वैश्वानरमुपास्ते । प्राणस्त्वेष आत्मन इति होवाच । प्राणस्त उदक्रमिष्यद्यन्मां नागमिष्य इति ॥ ५,१४.२ ॥ अथ होवाच जनं शार्कराक्ष्यम् । शार्कराक्ष्य कं त्वमात्मानमुपास्स इति । आकाशमेव भगवो राजन्निति होवाच । एष वै बहुल आत्मा वैश्वानरो यं त्वमात्मानमुपस्से । तस्मात्त्वं बहुलोऽसि प्रजया च धनेन च ॥ ५,१५.१ ॥ अत्स्यन्नं पश्यसि प्रियम् । अत्त्यन्नं पश्यति प्रियं भवत्यस्य ब्रह्मवर्चसं कुले य एतमेवमात्मानं वैश्वानरमुपास्ते । संदेहस्त्वेष आत्मन इति होवाच । संदेहस्ते व्यशीर्यद्यन्मां नागमिष्य इति ॥ ५,१५.२ ॥ अथ होवाच बुडिलमाश्वतराश्विम् । वैयाघ्रपद्य कं त्वमात्मानमुपास्स इति । अप एव भगवो राजन्निति होवाच । एष वै रयिरात्मा वैश्वानरो यं त्वमात्मानमुपास्से । तस्मात्त्वं रयिमान् पुष्टिमानसि ॥ ५,१६.१ ॥ अत्स्यन्नं पश्यसि प्रियम् । अत्त्यन्नं पश्यति प्रियं भवत्यस्य ब्रह्मवर्चसं कुले य एतमेवमात्मानं वैश्वानरमुपास्ते । बस्तिस्त्वेष आत्मन इति होवाच । बस्तिस्ते व्यभेत्स्यद्यन्मां नागमिष्य इति ॥ ५,१६.२ ॥ अथ होवाचोद्दालकमारुणिम् । गौतम कं त्वमात्मानमुपस्स इति । पृथिवीमेव भगवो राजन्निति होवाच । एष वै प्रतिष्ठात्मा वैश्वानरो यं त्वमात्मानमुपास्से । तस्मात्त्वं प्रतिष्ठितोऽसि प्रजया च पशुभिश्च ॥ ५,१७.१ ॥ अत्स्यन्नं पश्यसि प्रियम् । अत्त्यन्नं पश्यति प्रियं भवत्यस्य ब्रह्मवर्चसं कुले य एतमेवमात्मानं वैश्वानरमुपास्ते । पादौ त्वेतावात्मन इति होवाच । पादौ ते व्यम्लास्येतां यन्मां नागमिष्य इति ॥ ५,१७.२ ॥ तान् होवाच । एते वै खलु यूयं पृथगिवेममात्मानं वैश्वानरं विद्वांसोऽन्नमत्थ । यस्त्वेतमेवं प्रादेशमात्रमभिविमानमात्मानं वैश्वानरमुपास्ते । स सर्वेषु लोकेषु सर्वेषु भूतेषु सर्वेष्वात्मस्वन्नमत्ति ॥ ५,१८.१ ॥ तस्य ह वा एतस्यात्मनो वैश्वानरस्य मूर्धैव सुतेजाश्चक्षुर्विश्वरूपः प्राणः पृथग्वर्त्मात्मा संदेहो बहुलो बस्तिरेव रयिः पृथिव्येव पादावुर एव वेदिर्लोमाणि बर्हिर्हृदयं गार्हपत्यो मनोऽन्वाहार्यपचन आस्यमाहवनीयः ॥ - छान्दोग्य उपनिषद ५,१८.२

ऋषभो लोको महद् एव यक्षं नैवास्मात् पूर्वं न परं बभूव।

     यं देवं देवाः प्राणाः पुरुषं परिगृह्य जाग्रति स वेद लोकं पुरुषं महान्तम्॥

इति। इमं ह वाव तं देवं देवाः प्राणाः पुरुषं परिगृह्य जाग्रति। सो ऽयम् अक्षन्न् अन्त स हैष वामनः। स यो हैतं वामन इत्य् उपास्ते वामं वामं हैवैनम् एषा देवताभिनेनीयते। एतस्माद् ध वा इदं राजन्यबन्धवो वामनं केन चिद् अवकांक्षन्ति। एतस्यै ह देवतायै नाम्नो ऽन्तिकम् एनं विदुः। स हैष न जीर्यति। समावान् हेवैष यूनश् च जरसश् च। स हैष प्राणान् संगृह्यावधूय शरीरं प्राणैस् सहोर्ध्व उत्क्रामति। एतेन ह वै प्रत्यूढानि मृत्युश् शरीराणि हरति। तस्यै हैतस्यै देवतायै यथा मृत्पिण्ड इषीके ऽधिहते स्याताम् एवम् एव हृदये पादाव् अधिहतौ। तौ यद् आच्छिनत्य् अथ म्रियते। तद् इदम् अप्य् अविद्वांस आहुर् आच्छेद् ध्य् अस्येति। स य एतद् एवं वेदाजरसं हास्माद् एषा देवता नोत्क्रामति, सर्वम् आयुर् एति॥-  जै.ब्रा. 3.351॥

*अथो आहुर् - अपहतपाप्मानो वै देवाः। ते न स्वपन्ति। त उ श्रमस्य भूम्ना सममीलयन्। तेषाम् उ स्वपतां प्रमत्तानाम् असुरास् तेज इन्द्रियं वीर्यम् आदायाप्स्व् अन्वभ्यवानयन्। तद् विष्णुर् अन्वपश्यत्। तेषां ह देवानां प्रबुबुधानानाम् अप्रियम् आसीत्। तान् विष्णुर् अब्रवीन् - मा वो ऽप्रियं भूत्। अहं वै तद् अन्वख्यम् इति। तान् अप्स्व् अन्व् अभ्यवानयत्। तद् अप्स्व् अन्तः पर्यपश्यन् यथा पृष्ठात् (क)कुद् उदीषिता स्याद् एवम्। तद् एताभिर् एताभिर् एव व्याहृतिभिर् आदाय विष्णवे प्रायच्छन्। तद् इदं विष्णुस् तेज इन्द्रियं वीर्यं धारयन् समैषत्। तस्माद् ध्रस्वो विष्णुः। तस्माद् उ ह्रस्वं वैष्णवं गाम् आलभन्ते। स यत्र धारयन् पराक्रमत तद् एव विष्णुपदम् अभवत्। तस्माद् यो विष्णुपदीयः कैकेयस् स यज्ञ आत्ततरः। एतं ह्य् अस्मिन् यज्ञम् अन्विन्दन्। - जै.ब्रा. 3.354

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