कुमुद

टिप्पणी - एक कुमुद है, एक कुमुद्वती, या कुमुदा। लक्ष्मीनारायण संहिता २.२७.३७ का कथन है कि सूर्योदय से कमल खिलते हैं जबकि चन्द्रोदय से कुमुद। इसका अर्थ यह हुआ कि कुमुद किसी प्रकार से चन्द्रमा के उदय से सम्बन्धित है। वायु पुराण ४८.३५ का कथन है कि कुमुद द्वीप में महादेव-भगिनी कुमुदा के दर्शन से चित्त-दोष दूर होते हैं। स्कन्द पुराण ५.३.१९८.६५ तथा मत्स्य पुराण १३.२७ का कथन है कि मानस तीर्थ में उमा देवी कुमुदा नाम से विराजती हैं। यह कथन संकेत करते हैं कि कुमुद स्थिति में अचेतन मन चेतन मन में परिवर्तित हो जाता है। यही चन्द्रमा का उदय हो सकता है। स्कन्द पुराण ३.१.४४.३४ में कुमुद वानर द्वारा अकम्पन राक्षस का वध करने का उल्लेख है। इससे संकेत मिलता है कि जो कुछ जड स्थिति में पडा है, उसमें कम्पन कुमुद द्वारा उत्पन्न हो सकता है। मार्कण्डेय पुराण आदि में कुमुद पर्वत पर ऋतवाक् मुनि आदि के विराजमान होने की कथाएं आती हैं जबकि पद्म पुराण ६.१३३.३० के अनुसार कुमुद पर्वत पर सत्यवादन तीर्थ स्थित है।

 कुमुद की निरुक्ति प्रायः इस प्रकार की जाती है कु अर्थात् पृथिवी तथा मुद अर्थात् मोद। अतः जब हमारी पृथिवी रूपी देह मोदयुक्त हो जाए, वह कुमुद स्थिति होगी।

     वैदिक साहित्य में कुमुद शब्द अपेक्षाकृत कम ही प्रकट हुआ है। अथर्ववेद पैप्पलाद संहिता ६.२२.८ के अनुसार

पुण्डरीकं कुमुदं सं तनोति बिसं शालूकं शफको मुलाली।

स्वर्गे लोके स्वधया पिन्वमाना उप मा तिष्ठन्ति पुष्करिणीस् समक्ताः।।

अथर्ववेद शौनक संहिता ४.३४.५ में उपरोक्त मन्त्र निम्नलिखित रूप में प्रकट हुआ है

एष यज्ञानां विततो वहिष्ठो विष्टारिणं पक्त्वा दिवमा विवेश।

आण्डीकं कुमुदं सं तनोति बिसं शालूकं शफको मुलाली।

एतास्त्वा धारा उप यन्तु सर्वाः स्वर्गे लोके मधुमत् पिन्वमाना।

उप त्वा तिष्ठन्तु पुष्करिणीः समन्ताः।।

पैप्पलाद तथा शौनक, दोनों में यह मन्त्र ब्रह्मौदन पकाने के संदर्भ में प्रकट हुआ है। शौनक संहिता के मन्त्र के सायण भाष्य में बिस को कमल से तथा शालूक को कुमुद से सम्बद्ध बताया गया है। पैप्पलाद संहिता के मन्त्र के एक पद का अर्थ यह निकाला जा सकता है कि शफ वाला मुलाली अर्थात् मुरारी पुण्डरीक का कुमुद तक (या कुमुद में) विस्तार करता है, बिस का शालूक में विस्तार करता है। शौनक संहिता में पुण्डरीक के बदले आण्डीक का उल्लेख है। पुण्डरीक को समझने के संदर्भ में, हृत्पुण्डरीक का उल्लेख प्रायः आता है। इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि हृत्पुण्डरीक का विस्तार कुमुद रूप में किया जा सकता है। पुराणों में तो कुमुद को पर्वत का रूप दिया गया है जहां सत्यवाक्, ऋतवाक् आदि प्रकट होते हैं(पद्म पुराण ६.१३३.३०, मार्कण्डेय पुराण ७५.२२, स्कन्द पुराण ७.२.१७.१०१)। पर्वत का गुण यह होता है कि यह पृथिवी का नियन्त्रण करने वाले होते हैं, वैसे ही जैसे पुरुष प्रकृति का नियन्त्रण करता है। अतः यदि पर्वत कुमुद हैं तो उनके नियन्त्रण में आने वाली पृथिवी कुमुद्वती होनी चाहिए। यदि देह में स्थित कन्दों को पुण्डरीक का अथवा आण्डीक का रूप माना जाए तो प्रत्येक चक्र के आधीन देह का भाग कुमुद्वती कहलाएगा। उदाहरण के लिए, मूलाधार चक्र में यदि हमारे अण्डकोश आण्डीक हैं तो उनके द्वारा नियन्त्रित देह का भाग कुमुद्वती होना चाहिए। लक्ष्मीनारायण संहिता १.२६४.५१ में तो पुण्डरीक नृप की पत्नी के रूप में कुमुद्वती का उल्लेख है।

     भागवत पुराण ५.१६.११ व २४ में कुमुद पर्वत पर शतवल्शा वट वृक्ष की स्थिति के उल्लेख के संदर्भ में, ऋग्वेद ३.८.११ की ऋचा निम्नलिखित है

वनस्पते शतवल्शो वि रोह सहस्रवल्शा वि वयं रुहेम।

यं त्वामयं स्वधितिस्तेजमानः प्रणिनाय महते सौभगाय।।

यह प्रसंग सोमयाग में उत्तरवेदी के सबसे पूर्व में यूप स्थापना का है। यूप निर्माण हेतु किसी वृक्ष की सभी शाखाओं को स्वधिति या चाकू से काट दिया जाता है जिसका अर्थ होगा कि ज्योतिपुञ्ज का आरोहण-अवरोहण तिर्यक् दिशा में न होकर केवल ऊर्ध्वमुखी व अधोमुखी हो। इसके पश्चात् उपरोक्त ऋचा में प्रार्थना की जा रही है कि हे वनस्पति, तू शतवल्शा विरोहण कर और तेरे साथ हम सहस्रवल्शा रोहण करें। यह अन्वेषणीय है कि क्या जब सोमयाग में यूप की स्थापना की जाती है, तो उस यूप के लिए काष्ठ का ग्रहण कुमुदपर्वत से ही किया जाएगा।

     ऋग्वेद ७.३२.१४ की ऋचा निम्नलिखित है-

कस्तमिन्द्र त्वावसुमा मर्त्यो दधर्षति।

श्रद्धा इत् ते मघवन् पार्ये दिवि वाजी वाजं सिषासति।।

इस ऋचा का अनुवाद इस प्रकार किया गया है

हे इन्द्र, जो व्यक्ति तुम्हारे मन में रहता है, उसे कौन व्यक्ति दबा सकता है। हे मघवन् इन्द्र, जो तुम्हारे प्रति श्रद्धायुक्त होकर हवि देता है(अथवा वाजी बनता है), वह स्वर्ग पाता है तथा सौत्य दिवस में वाज का सेवन करता है।

<कस् तम् इन्द्र त्वावसुम् [ऋ. ७.३२.१४]><कन् नव्यो अतसीनाम् [ऋ. ८.३.१३]><कद् ऊ न्व् अस्याकृतम् [ऋ. ८.६६.९]> इति कद्वन्तः प्रगाथा अहरहः शस्यन्ते को वै प्रजापतिः प्रजापतेर् आप्त्यै यद् एव कद्वन्तस् तत् स्वर्गस्य लोकस्य रूपम् यद् व् एव कद्वन्तः अथो अन्नं वै कम् अथो अन्नस्यावरुद्ध्यै यद् व् एव कद्वन्तः अथो सुखं वै कम् अथो अन्नस्यावरुद्ध्यै - गोब्रा. २.६.३

 

इस ऋचा से दो सामों का निर्माण हुआ है (साम संख्या २८० )। इस साम के ऋषि के रूप में कुमुद का उल्लेख है तथा देवता के रूप में इन्द्र का। यह बृहत् साम है। इस साम के आधार पर गर्ग संहिता ..१८ की इस कथा की व्याख्या की जा सकती है जिसमें कुमुद ने इन्द्र के अश्वमेधीय अश्व को चुरा लिया और फिर इन्द्र के शाप से अश्व रूप में केशी असुर बन गया। जब इस असुर ने कृष्ण को मारने का प्रयत्न किया तो कृष्ण ने उसके मुख में अपनी बाहु डाल दी जिससे वह मर गया।

कार्तिक अमावास्या के पश्चात् शुक्ल प्रतिपदा को कौमुदी उत्सव होता है जिसमें इन्द्रयष्टि की स्थापना की जाती है तथा वृक्ष आदि की शाखाओं पर दीपों द्वारा नीराजन किया जाता है। डा. फतहसिंह के अनुसार दीप द्वारा नीराजन का अर्थ है चेतना के उच्च स्तरों पर प्राप्त ज्ञान को चेतना के निम्न स्तरों पर स्थान्तरित करना। दूसरे शब्दों में, विप्र स्थिति में प्राप्त ज्ञान को शूद्र स्थिति तक पहुंचाना। तभी यह पृथिवी कुमुद्वती बन सकती है।

    संगीत शास्त्र में षड्ज स्वर को उसकी श्रुतियों के आधार पर समझने का प्रयत्न किया जा सकता है। षड्ज स्वर की चार श्रुतियां हैं तीव्रा, कुमुद्वती, मन्द्रा व छन्दोवती। कुमुद्वती श्रुति के गुणों को पुराणों की कथाओं के आधार पर समझने का प्रयत्न किया जा सकता है।

प्रथम लेखन 12-5-2011ई.(वैशाख शुक्ल नवमी, विक्रम संवत् 2068)

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