कुम्भकर्ण नामक पात्र के माध्यम से मोह नामक विकार का चित्रण

-    राधा गुप्ता

युद्धकाण्ड में अध्याय 60 से 67 तक कुम्भकर्ण का वर्णन विस्तारपूर्वक किया गया है। कतिपय बिन्दुओं के आधार पर यह पात्र मोह नामक विकार का प्रतिनिधित्व करता प्रतीत होता है। वे बिन्दु निम्नलिखित हैं –

1.     कुम्भकर्ण को विश्रवा का पुत्र कहकर मोह की उत्पत्ति के कारक तत्त्व की ओर संकेत किया गया है।

विश्रवा शब्द वि उपसर्ग के साथ श्रव शब्द का योग होने से बना है। वेद मर्मज्ञ डा. फतहसिंह के अनुसार श्रव शब्द का अर्थ है – इन्द्रियों के द्वारा प्राप्त हुआ ज्ञान। मनुष्य को प्राप्त हुई ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों का यह स्वभाव है कि वे बाहर विद्यमान विषयों की ओर गति करती हैं। अतः बाह्य गति होने से इन्द्रियों द्वारा प्राप्त हुए ज्ञान को बहिर्ज्ञान कहा जा सकता है। बाहर की ओर गति करने के कारण ही इन्द्रियाँ जब केवल शरीर को देखती हैं, आत्मा को नहीं – तब इन्द्रियों से प्राप्त हुए इस शरीर ज्ञान को ही विश्रवा कहा जाता है। यह मात्र शरीर का ज्ञान मनुष्य को पहले तो शरीर का अभिमानी बनाता है, जिसे कथा में रावण नाम पात्र के रूप में चित्रित किया गया है तथा फिर मैं और मेरा रूप मोह को पैदा कर देता है, जिसे कुम्भकर्ण नामक पात्र के रूप में प्रस्तुत किया गया है।

  चूंकि इन्द्रियों के द्वारा प्राप्त हुए इस शरीर के ज्ञान से पहले शरीर – अभिमान रूप रावण पहले उत्पन्न होता है तथा मोह रूपी कुम्भकर्ण बाद में, इसलिए कथा में कुम्भकर्ण को विश्रवा मुनि  पुत्र तथा रावण के छोटे भाई के रूप में चित्रित किया गया है।

2- कथा में कुम्भकर्ण को इन्द्र का शत्रु कहा गया है –

पौराणिक साहित्य में इन्द्र शब्द का प्रयोग श्रेष्ठ मन के लिए भी किया गया है और अश्रेष्ठ (दूषित) मन के लिए भी।

प्रस्तुत संदर्भ में इन्द्र शब्द इन्द्रियों के अधिपति श्रेष्ठ मन का वाचक है। श्रेष्ठ मन के भीतर शुद्धता, शान्ति, शक्ति तथा स्थिरता आदि जो श्रेष्ठ गुण विद्यमान होते हैं, उन सब गुणों को यह मोह नामक विकार ढंक देता है, इसीलिए कथा में कुम्भकर्ण को इन्द्र के शत्रु के रूप में इंगित किया गया है। उपर्युक्त वर्णित गुणों के ढंक जाने पर उनके आश्रित अन्य अनेक गुण भी विनष्ट हो जाते हैं जिसे कथा में कुम्भकर्ण द्वारा प्रजाजनों को खा जाने के रूप में चित्रित किया गया है। कथा में कहा गया है कि कुम्भकर्ण ने नन्दनवन की सात अप्सराओं, देवराज इन्द्र के दस अनुचरों तथा बहुत से ऋषियों एवं मनुष्यों को खा लिया है। इस कथन का तात्पर्य भी यही है कि मोह नामक विकार सुख – शान्ति- शक्ति – शुद्धता – ज्ञान – प्रेम तथा आनन्द को जीवन में अभिव्यक्त नहीं होने देता। परिवार, समाज, देश तथा विश्व में व्याप्त हुए समस्त भ्रष्टाचार का आधार यह मोह (मैं तथा मेरा) नामक विकार ही होता है। रामकथा में कुम्भकर्ण की प्रबलता का विस्तृत वर्णन इसी तथ्य को संपुष्ट करता है।

3 – कुम्भकर्ण को ब्रह्मा जी से यह शाप प्राप्त हुआ है कि वह 6, 7, 8 या 9 महीने सोता रहे तथा केवल एक दिन जागे।

  पौराणिक साहित्य में शाप शब्द अवश्य भवितव्यता अर्थात् अवश्य होने को इंगित करता है। यहाँ यह संकेत किया गया प्रतीत होता है कि चार युगों वाले विराट कालचक्र के अधिकांश भाग में या तो यह मोह नामक विकार पूर्णत- प्रसुप्त स्थिति में विद्यमान रहता है अथवा प्रसुप्त सी स्थिति में रहकर मनुष्य को कोई हानि नहीं पहुँचाता। केवल कलियुग के अत्यल्प अन्तिम भाग में शरीर – चेतना के प्रबल हो जाने पर शरीर – ज्ञान से उत्पन्न हुआ यह मोह नामक विकार जाग्रत हो जाता है और विकराल रूप को धारण करता हुआ मनुष्य को बहुत हानि पहुँचाता है।

4- राम द्वारा ही कुम्भकर्ण का विनाश सम्भव है –

  कथा में कहा गया है कि अंगद, हनुमान, सुग्रीव, अन्य वानरवीर तथा लक्ष्मण जैसे योद्धा भी जब कुम्भकर्ण का विनाश नहीं कर सके, तब राम ने ही कुम्भकर्ण के एक – एक अंग को काटकर (पहले हाथ काटे, फिर पैर काटे तथा अन्त में मस्तक को काटा) अन्ततः उसका विनाश किया।

  प्रस्तु कथन द्वारा यह स्पष्ट संकेत किया गया है कि देहज्ञान (विश्रवा) से उत्पन्न हुए मोह रूप प्रबल विकार को समाप्त करने में मनुष्य का स्वस्थ – शुद्ध मन (अंगद), विवेक या प्रज्ञा (हनुमान), श्रेष्ठ ज्ञान (सुग्रीव), ज्ञान की विभिन्न शक्तियाँ (वानर वीर), तथा संकल्पशक्ति अर्थात् संकल्पों की रचयिता शक्ति (लक्ष्मण) भी समर्थ नहीं है। केवल आत्मज्ञान (राम) द्वारा ही देहज्ञान से उत्पन्न हुए मोह का विनाश सम्भव है अर्थात् शरीर को ही सत्य समझकर शरीर से सम्बन्ध रखने वाले जिन व्यक्तियों तथा वस्तुओं से मनुष्य दृढतापूर्वक बंध जाता है, उस सुदृढ बन्धन से छूटने का एकमात्र उपाय आत्मज्ञान ही है। मैं आत्मस्वरूप हूँ तथा मेरे समान अन्य सब भी आत्मस्वरूप ही हैं – इस आत्मज्ञान में स्थित होकर ही मनुष्य धीरे – धीरे मोह के पार जा पाता है। कथा में राम द्वारा कुम्भकर्ण के एक – एक अंग को काटना कहकर यही संकेत किया गया है कि मोह का विनाश धीरे – धीरे होता है, एकदम नहीं।

5 – कुम्भकर्ण शब्द भी मोह रूप अर्थ को इंगित करता है –

  कुम्भकर्ण शब्द कुम्भ और कर्ण नामक दो शब्दों के योग से बना है। कुम्भ शब्द मन – बुद्धि का वाचक है। इस मन – बुद्धि रूपी कुम्भ को ही साधना द्वारा पकाकर अर्थात् शुद्ध श्रेष्ठ बनाकर इस योग्य बनाया जाता है कि यह कुम्भ अपने भीतर आत्म – विचार (अर्थात् मैं चैतन्य शक्ति आत्मा हूँ – इस विचार) को धारण कर सके।

  कर्ण शब्द कण शब्द का ही प्रच्छन्न (छिपा हुआ) स्वरूप प्रतीत होता है। कण शब्द कराहना, चिल्लाना अथवा शब्द करना अर्थ वाली कण् धातु से बना है। इस प्रकार कुम्भकर्ण शब्द ऐसे मन – बुद्धि को इंगित करता है जो साधना द्वारा पका हुआ नहीं है। अतः इसमें अशान्ति है, शोर है, व्यथा है। मोह नामक विकार मनुष्य को व्यथित करता है, अशान्त बनाता है – अतः कुम्भकर्ण नामक पात्र यहाँ मोह नामक विकार का प्रतिनिधित्व करता प्रतीत होता है।


प्रथम लेखन – 2-10-2015ई.

 

 

 

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