यह चित्र ज्योति अप्तोर्याम सोमयाग, गार्गेयपुरम्, कर्नूल (20जनवरी – 1 फरवरी, 2015) के श्री राजशेखर शर्मा के संग्रह से लिया गया है। अश्व के आकार के दो रौहिण कपाल दोनों ओर रखे हुए हैं।

कृष्ण जन्म

अभिजिन्नाम नक्षत्रं जयन्ती नाम शर्वरी ।

मुहूर्त्तो विजयो नाम यत्र जातो जनार्दनः ॥ - वायु 2.34.201 (96.201), स्कन्द 7.1.19.90, हरिवंश 2.4.17

कृष्ण जन्म के विषय में उपरोक्त श्लोक तीन पुराणों में उपलब्ध है। लोक में धारणा है कि कृष्ण का जन्म अष्टमी तिथि को रोहिणी नक्षत्र में अर्धरात्रि के समय हुआ था। लेकिन उपरोक्त श्लोक के आधार पर इस धारणा की प्रत्यक्ष रूप से पुष्टि नहीं होती। ज्योतिष के अनुसार शर्वरी या रात्रि के जयन्ती नाम में रोहिणी नक्षत्र निहित है। अन्यथा, जयन्ती रात्रि वह होगी जिसमें प्रकृति ऋणात्मकता की ओर अग्रसर न हो, अपितु धनात्मकता की ओर चले। दूसरे शब्दों में, वह सात्त्विक प्रकृति, पार्वती हो।

     समाज में प्रायः यह विवाद रहता है कि कृष्ण का जन्म कभी हुआ था या नहीं। इस प्रश्न का उत्तर इस प्रकार दिया जा सकता है कि तामसी प्रकृति में कभी – कभी सात्त्विक गुण की अधिकता होने पर महापुरुषों का जन्म हो जाया करता है, वैसे ही जैसे भक्तिकाल में बहुत से भक्तों का जन्म एक साथ हो गया। शास्त्रवेत्ताओं ने अनुभव के आधार पर यह निश्चित कर दिया है कि जब प्रकृति में अमुक – अमुक लक्षण घटित होंगे तो महापुरुष का जन्म होगा। कृष्ण के लिए कहा गया है कि जब अष्टमी तिथि को रोहिणी नक्षत्र होगा तो कृष्ण का जन्म होगा। इस आधार पर ज्योतिष की गणना से कृष्ण का जन्म कलियुग के आरम्भ से पहले बैठता है। लेकिन यह उल्लेखनीय है कि तामसी प्रकृति में कोई सात्त्विक घटना बहुत विरल ही घटित होती है। उसी घटना की पुनरावृत्ति एक साधक के स्तर पर कभी भी की जा सकती है। हमें वैयक्तिक स्तर पर उन्हीं लक्षणों को घटाना होगा जो कृष्ण जन्म के समय हुए थे। कृष्ण के जन्म के समय रोहिणी नक्षत्र का क्या अर्थ हो सकता है, यह इस टिप्पणी का लक्ष्य है।

     रोहिणी के विषय में पुराण कथाएं अथवा वैदिक संदर्भ विरल ही मिलते हैं। पुराण कथाओं में से एक कथा यह है कि शनि रोहिणी शकट का भेदन करना चाहता है। यदि शनि ऐसा करने में समर्थ हो जाता है तो उससे 12 वर्ष का दुर्भिक्ष फैलेगा। दशरथ शनि को ऐसा करने से रोक देते हैं। दूसरी कथा यह है कि चन्द्रमा को अपनी 27 या 28 नक्षत्र रूपी पत्नियों में से रोहिणी सबसे अधिक प्रिय है। इस कारण चन्द्रमा को क्षयरोग से ग्रस्त होने का शाप भी मिलता है। लक्ष्मीनारायण संहिता में रोहिणी को ऊर्जाहुती, विद्युत रूप कहा गया है। तीसरी कथा यह है कि देवकी के सातवें गर्भ का स्थांतरण रोहिणी में हो गया जिससे बलराम का जन्म हुआ। वैदिक साहित्य में रोहिणी का रूप रौहिण पुरोडाश के रूप में मिलता है। सोमयाग से पूर्व सम्पन्न किए जाने वाले प्रवर्ग्य कृत्य में एक ओर तो महावीर नामक पात्र में उबलते हुए घृत में दुग्ध का प्रक्षेप करके प्रवर्ग्य अथवा ज्वाला उत्पन्न की जाती है। दूसरी ओर, घृत में दुग्ध का प्रक्षेप करने से पूर्व तथा पश्चात् रौहिण नामक पुरोडाश की आहुतियां दी जाती हैं। रौहिण पुरोडाश को रौहिण कपाल – द्वय पर तैयार किया जाता है। अश्व की आकृति के इन दो कपालों को साथ के चित्र में दिखाया गया है। कहा गया है कि रौहिण पुरोडाश – द्वय का स्थान प्रवर्ग्य में ऐसे ही है जैसे शिर में चक्षु – द्वय। अथवा जैसे अह और रात्रि मिलकर आदित्य रूपी प्रवर्ग्य को धारण करते हैं, ऐसे ही रौहिण पुरोडाश हैं। अथवा जैसे दो लोक मिलकर आदित्य रूपी प्रवर्ग्य को धारण करते हैं, ऐसे ही रौहिण पुरोडाश – द्वय हैं। इन सभी कथनों से संकेत मिलता है कि रौहिण पुरोडाश में चेतना का सुप्त भाग विद्यमान है जिसको रोहण करने, आरोहण- अवरोहण के योग्य बनाना है। यह आरोहण –अवरोहण दो प्रकार से हो सकता है – शनि की भांति मन्द गति से और विद्युत की भांति तीव्र गति से। कृष्ण जन्म से पहले रोहिणी के गर्भ से बलराम के जन्म का कथन करके यह संकेत दे दिया गया है कि चेतना के सुप्त भाग को जितना अधिक से अधिक जाग्रत किया जा सकता था, वह कार्य सम्पन्न कर लिया गया है। जाग्रति का कार्य प्रवर्ग्य की ऊर्जा द्वारा सम्पन्न किया गया है। इस प्रकार जो प्रवर्ग्य की ऊर्जा केन्द्रीभूत न होकर, ब्रह्मोदन न बनकर व्यर्थ जा रही थी, उसका सार्थक उपयोग सुप्त चेतना को जाग्रत करने के लिए किया गया है।

     कहा गया है कि जहां भी प्रवर्ग्य हो रहा हो, वहां रोहिण पुरोडाश – द्वय का समावेश कर दे। रोहिण का अर्थ है – जहां ऊर्जा का रोहण – आरोहण – अवरोहण होने लगे। जब ऊर्जा को आरोहण का अवसर नहीं मिल पाता, तभी वह चारों ओर फैलती है। रोहिण पुरोडाश – द्वय कौन से हैं, इसके उत्तर में कहा गया है कि पहला रोहिण पुरोडाश तो रात्रि का केतु अग्नि है। अग्नि को रात्रि का केतु इसलिए कहा गया है क्योंकि अग्नि रात्रि में ही दिखाई पडती है। अध्यात्म में अग्नि से तात्पर्य किसी तन्त्र की व्यवस्थित स्थिति से, आधुनिक विज्ञान की भाषा में न्यूनतम अव्यवस्था, न्यूनतम एण्ट्रांपी वाली स्थिति से होता है। दूसरा रौहिण पुरोडाश दिन का केतु सूर्य है। इस प्रकार ऊर्जा को प्रवर्ग्य के माध्यम से नष्ट नहीं होने दिया जा रहा है, अपितु उसका उपयोग अपनी चेतना के पैर पसारने के लिए, भाद्रपद के पद स्थापित करने के लिए किया जा रहा है।

कृष्ण का अर्थ है – कोई भी वृत्ति बहिर्मुखी न रह जाए। आधुनिक विज्ञान के अनुसार इस संसार में कोई द्रव्य इसलिए दिखाई पडता है क्योंकि उससे किरणें, वृत्तियां बाहर निकल रही हैं। द्रव्य बाहर की किरणों का अवशोषण करके पुनः उन्हें नया रूप देकर बाहर निकालता है। कोई भी ऐसा द्रव्य नहीं है जो किरणों को बाहर न फेंके। अतः इस संसार में कृष्ण कुछ भी नहीं है। अध्यात्म में जिस कृष्ण की कल्पना की गई है, उसका स्वरूप इस प्रकार है कि वह न तो रात्रि में और न ही दिन में अपने अन्दर से किसी किरण का उत्सर्जन करेगा। साधक के लिए समाधि की स्थिति रात्रि है और समाधि से व्युत्थान की स्थिति दिन है। वैदिक साहित्य कह रहा है कि समाधि की जिस स्थिति को हम रात्रि समझ रहे हैं, वह भी रात्रि नहीं है। वहां भी अग्नि रूपी ऊर्जा चमकती है। दिन में तो सूर्य चमकता हुआ, अपनी ऊर्जा को फैलाता हुआ दिखाई देता ही है। अतः यदि अपनी ऊर्जा को समेटना असंभव है तो उसका अधिकतम सदुपयोग किया जाए। सदुपयोग इस प्रकार हो सकता है कि जो द्रव्य, जो तन्त्र जड स्थिति में हैं, उनमें अपनी ऊर्जा के पद स्थापित किए जाएं।

लेखन – 2.9.2015ई.(भाद्रपद कृष्ण चतुर्थी, विक्रम संवत् 2072)

 

देवक्यजनयद् विष्णुं यशोदा तां तु दारिकाम्।

मुहूर्ते अभिजिति प्राप्ते सार्धरात्रे विभूषिते।।- हरिवंश 2.4.14

,०१२.१२  यः सप्तरश्मिर्वृषभस्तुविष्मानवासृजत्सर्तवे सप्त सिन्धून् ।

,०१२.१२ यो रौहिणमस्फुरद्वज्रबाहुर्द्यामारोहन्तं स जनास इन्द्रः ॥

२.१.२.[१३]

चित्रायामग्नी आदधीत । देवाश्च वा असुराश्चोभये प्राजापत्याः पस्पृधिरे त उभय एवामुं लोकं समारुरुक्षां चक्रुर्दिवमेव ततोऽसुरा रौहिणमित्यग्निं चिक्यिरे ऽनेनामुं लोकं समारोक्ष्याम इति

१०.३.५.[१४]

एतद्ध स्म वै तद्विद्वान्प्रियव्रतो रौहिणायन आह  वायुं वान्तमानन्दस्त आत्मेतो वा वाहितो वेति स ह स्म तथैव वाति तस्माद्यां देवेष्वाशिषमिच्छेदेतेनैवोपतिष्ठेतानन्दो व आत्मासौ मे कामः स मे समृध्यतामिति सं हैवास्मै स काम ऋध्यते यत्कामो भवत्येतां ह वै तृप्तिमेतां गतिमेतमानन्दमेतमात्मानमभिसम्भवति य एवं वेद

१४.१.२.[१७]

अथ खरे सादयति  मखाय त्वा मखस्य त्वा शीर्ष्ण इत्यसावेव बन्धुरथ मृत्पिण्डमपादाय महावीरं करोति मखाय त्वा मखस्य त्वा शीर्ष्ण इत्यसावेव बन्धुः प्रादेशमात्रं प्रादेशमात्रमिव हि शिरो मध्ये सङ्गृहीतं मध्ये सङ्गृहीतमिव हि शिरोऽथास्योपरिष्टात्त्र्यङ्गुलं मुखमुन्नयति नासिकामेवास्मिन्नेतद्दधाति तं निष्ठितमभिमृशति मखस्य शिरोऽसीति मखस्य ह्येतत्सौम्यस्य शिर एवमितरौ तूष्णीं पिन्वने तूष्णीं रौहिणकपाले

१४.१.२.[१९]

अथ गवेधुकाभिर्हिन्वति  यज्ञस्य शीर्षच्छिन्नस्य रसो व्यक्षरत्तत एता ओषधयो जज्ञिरे तेनैवैनमेतद्रसेन समर्धयति कृत्स्नं करोति मखाय त्वा मखस्य त्वा शीर्ष्ण इत्यसावेव बन्धुरेवमितरौ तूष्णीं पिन्वने तूष्णीं रौहिणकपाले

 

१४.१.२.[२०]

अथैनान्धूपयति  अश्वस्य त्वा वृष्णः शक्ना धूपयामीति वृषा वा अश्वो वीर्यं वै वृषा वीर्येणैवैनमेतत्समर्धयति कृत्स्नं करोति देवयजने पृथिव्या मखाय त्वा मखस्य त्वा शीर्ष्ण इत्यसावेव बन्धुरेवमितरौ तूष्णीं पिन्वने तूष्णीं रौहिणकपाले

 

१४.१.२.[२१]

अथैनाञ्छ्रपयति  शृतं हि देवानामिष्ट्काभिः श्रपयत्येत वा एतदकुर्वत यथायथैतद्यज्ञस्य शिरोऽच्छिद्यत ताभिरेवैनमेतत्समर्धयति कृत्स्नं करोति तदु येनैव सुशृताः स्युस्तेन श्रपयेदथ पचनमवधाय महावीरमवदधाति मखाय त्वा मखस्य त्वा शीर्ष्ण इत्यसावेव बन्धुरेवमितरौ तूष्णीं पिन्वने तूष्णीं रौहिणकपाले तान्दिवैवोपवपेद्दिवोद्वपेदहर्हि देवानाम्

१४.१.२.[२४]

सुक्षित्यै त्वेति  अयं वै लोकः सुक्षितिरस्मिन्हि लोके सर्वाणि भूतानि क्षियन्त्यथो

अग्निर्वै सुक्षितिरग्निर्ह्येवास्मिंलोके सर्वाणि भूतानि क्षियत्येष उ तृतीयः प्रवर्ग्यस्तदेतमेवैतत्प्रीणाति तस्मादाह सुक्षित्यै त्वेति तूष्णीं पिन्वने तूष्णीं रौहिणकपाले

 

१४.१.२.[२५]

अथैनानाच्छृणत्ति  अजायै पयसा मखाय त्वा मखस्य त्वा शीर्ष्ण इत्यसावेव बन्धुरेवमितरौ तूष्णीं पिन्वने तूष्णीं रौहिणकपाले

१४.१.३.[१]

स यदैतदातिथ्येन प्रचरति  अथ प्रवर्ग्येण चरिष्यन्पुरोपसदोऽग्रेण गार्हपत्यं प्राचः कुशान्त्संस्तीर्य द्वन्द्वं पात्राण्युपसादयत्युपयमनीम् महावीरं परीषासौ पिन्वने रौहिणकपाले रौहिणहवन्यौ स्रुचौ यदु चान्यद्भवति तद्दश दशाक्षरा वै विराड्विराड्वै यज्ञस्तद्विराजमेवैतद्यज्ञमभिसम्पादयत्यथ यद्द्वन्द्वम्द्वन्द्वं वै वीर्यं यदा वै द्वौ संरभेते अथ तौ वीर्यं कुरुतो द्वन्द्वं वै मिथुनम् प्रजननं मिथुनेनैवैनमेतत्प्रजननेन समर्धयति कृत्स्नं करोति

१४.१.३.[३२]

अप वा एतेभ्यः प्राणाः क्रामन्ति  ये यज्ञे धुवनं तन्वते पुनः प्रसलवि त्रिर्धून्वन्ति षट्सम्पद्यन्ते षड्वा इमे शीर्षन्प्राणास्तानेवास्मिन्नेतद्दधाति श्रपयन्ति रौहिणौ स यदार्चिर्जायते अथ हिरण्यमादत्ते

१४.२.१.[२]

तद्यद्रोहिणौ जुहोति  अग्निश्च ह वा आदित्यश्च रौहिणावेताभ्यां हि देवताभ्यां यजमानाः स्वर्गं लोकं रोहन्ति

 

१४.२.१.[३]

अथो अहोरात्रे वै रौहिणौ  आदित्यः प्रवर्ग्योऽमुं तदादित्यमहोरात्राभ्याम् परिगृह्णाति तस्मादेषोऽहोरात्राभ्यां परिगृहीतः

 

१४.२.१.[४]

अथो इमौ वै लोकौ रौहिणौ  आदित्यः प्रवर्ग्योऽमुं तदादित्यमाभ्यां लोकाभ्याम् परिगृह्णाति तस्मादेष आभ्यां लोकाभ्यां परिगृहीतः

 

१४.२.१.[५]

अथो चक्षुषी वै रौहिणौ  शिरः प्रवर्ग्यः शीर्षंस्तच्चक्षुर्दधाति

१४.२.२.[४१]

अथ रौहिणौ जुहोति  अहः केतुना जुषतां सुज्योतिर्ज्योतिषा स्वाहेत्यसावेव बन्धू रात्रिः केतुना जुषतां सुज्योतिर्ज्योतिषा स्वाहेत्यसावेव बन्धुः

१४.२.२.[५२]

तदाहुः  यदाज्यभागावन्यत्र जुह्वत्यथ कस्मादत्र न जुहोतीति चक्षुषी वा एते यज्ञस्य यदाज्यभागौ चक्षुषी रौहिणौ नेच्चक्षुषा चक्षुरभ्यारोहयाणीति

१४.३.१.[२०]

पुरस्तादुपशयां मृदम्  मांसमेवास्मिन्नेतद्दधाति तदभितः परीशासौ बाहू एवास्मिन्नेतद्दधात्यभितः परे रौहिणहवन्यौ स्रुचौ हस्तावेवास्मिन्नेतद्दधाति

 

१२.१४।४      धनञ्जयानाम् वैश्वामित्र माधुच्छन्दस धानञ्जय इति । अजानाम् वैश्वामित्र माधुच्छन्दस आज्य इति । रौहिणानाम् वैश्वामित्र माधुच्छन्दसरौहिणेति। अष्टकानां वैश्वामित्रमाधुच्छन्दसाष्टकेति       (प्रवर आत्रिस्विश्वामित्रस् कश्यपस्) – आश्वलायन श्रौ.सू.


कृष्ण व कंस

श्रावण मास में कोकिला व्रत का चीर्णन किया जाता है। कोकिला व्रत से संकेत मिलता है कि यह कौकिल सौत्रामणी यज्ञ की ओर संकेत है जिसमें एक ओर पयः की आहुतियां दी जाती हैं, दूसरी ओर सौम्य बनाई गई सुरा की। सुरा को सौम्य इस प्रकार बनाया जाता है कि जिस अंकुरित धान्य से सुरा का निर्माण किया जाता है, उस धान्य का क्रय एक क्लीब या नपुंसक व्यक्ति से सीसा द्रव्य देकर किया जाता है। सुरा का दुर्गुण यह है कि यह कामुक उत्तेजना उत्पन्न करती है। सुरा के इस दुर्गुण को किसी प्रकार से सौत्रामणी याग में दूर कर दिया गया है। इस तथ्य को समझने से पहले यह उल्लेख करना उपयुक्त होगा कि जंगम प्राणी मात्र का जीवन सुरा पर आधारित है। स्थावर – वनस्पति जगत का जीवन सुरा पर आधारित नहीं है। जंगम प्राणी अपने भोजन के लिए या तो वनस्पति जगत पर निर्भर करते हैं अथवा स्वयं जंगम प्राणियों को ही अपना भोजन बनाते हैं। जंगम प्राणियों में इतनी सामर्थ्य नहीं है कि वह वनस्पति जगत की भांति सूर्य की किरणों से अपना भोजन बना सकें। जंगम प्राणी जो भोजन करते हैं, उससे सुरा का, एल्कोहल का निर्माण होता है। उदाहरण के लिए, हम अन्न खाते हैं तो अन्न का कार्बोहाईड्रेट शर्करा में बदलता है, शर्करा ग्लूकोज में और ग्लूकोज अन्त में सुरा या एल्कोहल में रूपांतरित हो जाता है। एल्कोहल का अणु आगे जल व कार्बन डाई आक्साईड में रूपान्तरित होता है। इस अन्तिम रूपान्तरण में ऊष्मा का जनन होता है जिससे हमारा सारा जीवन चलता है। मनुष्य व वानर द्वारा निर्मित सुरा में अन्य पशुओं द्वारा निर्मित सुरा से अन्तर है। मनुष्य व वानर का शरीर इथाईल एल्कोहल नामक सुरा उत्पन्न करने में समर्थ है जबकि अन्य पशु जिनका मुख्य आहार पत्तियां हैं, मिथाईल एल्कोहल उत्पन्न करने और उसका सम्यक् उपयोग करने में समर्थ हैं। यह तो सर्वविदित ही है कि जब किसी मानवीय त्रुटि से मनुष्य मिथाईल एल्कोहल मिला हुआ इथाईल एल्कोहल पी लेता है तो मरने वालों की कतार लग जाती है। इसका कारण यह है कि मनुष्य का यकृत मिथाईल एल्कोहल को फार्मल्डीहाईड नामक रसायन में रूपान्तरित कर देता है। यह फार्मल्डीहाईड रक्त में मिल कर आंखों व मस्तिष्क में चला जाता है। यही कार्य पशुओं का यकृत भी करता है। लेकिन पशु इस फार्मल्डीहाईड के अणु का आगे विघटन करने और उससे ऊर्जा प्राप्त करने में समर्थ हैं, मनुष्यों का शरीर ऐसा नहीं कर सकता। अतः  वह फार्मल्डीहाईड मनुष्य के लिए विष बन जाता है। यही हाल इथाईल एल्कोहल से अधिक जटिलता वाले अन्य एल्कोहलों, जैसे इथाईलीन ग्लाईकोल आदि का भी है। मछलियां, पक्षी आदि तो अधिक जटिलता वाले एल्कोहलों का उपयोग करके उससे मोम आदि बना लेते हैं, लेकिन मनुष्य के लिए वह अनुपयोगी रहते हैं।

     सुरा को न्यूनतम हानि पहुंचाने वाला बनाने के लिए कौकिल सौत्रामणी याग में क्या युक्ति अपनाई गई है, यह तो ज्ञात नहीं है, लेकिन कौकिल सौत्रामणी याग से अगली स्थिति यह है कि सुरा पर आधारित जीवन प्रणाली को बिल्कुल समाप्त ही कर दिया जाए। केवल सोम पर आधारित जीवन प्रणाली ही रहे। इसी तथ्य को प्रदर्शित करने के लिए कहा जा रहा है कि कंस को केवल कृष्ण ही समाप्त कर सकता है। कंस सुरा धारण करने वाले पात्र को कहते हैं। कंस मथुरा का, मधुपुरी का राजा है। कृष्ण रूपी जीवन प्रणाली में सुरा का राज्य बलराम में स्थान्तरित कर दिया गया है। कहा जाता है कि बलराम की आंखे वारुणी पान के कारण सदा घूमती रहती हैं। और बलराम को कदम्ब वृक्ष की वारुणी प्रिय कही जाती है।

     सुरा पर आधारित जीवन प्रणाली सोम पर आधारित जीवन प्रणाली को किस प्रकार हानि पहुंचा सकती है, इस तथ्य को कंस द्वारा कृष्ण को मारने के लिए भेजे गए पूतना, शकटासुर, तृणावर्त आदि असुरों के चरित्रों के द्वारा भविष्य में समझने की आवश्यकता है। यह समझना आगे और भी आवश्यक है कि जिस सोम की बात की जाती है, वह आखिर क्या है।

प्रथम लेखन – 4-9-2015ई.(भाद्रपद कृष्ण सप्तमी, विक्रम संवत् 2072)

    


 


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