KRITAYUGA

In puraanic texts, time has been divided into 4 yugas called Krita, Tretaa, Dwaapar and Kali. The prevalence of Dharma gradually decreases in these four yugas. It is strange to note the origin of these yugas in vedic texts. There, these are not called yugas, but ayaanah, those which do not move and those which are formed from extra energy in a purified body. This may be some class of higher consciousness. A moving part is also attached with each of these ayaanah which is a particular bird. Seasons and seers/rishis have also been quoted for each ayaanah/yuga. The most likely explanation may be that these nonmoving and moving parts are representatives of potential energy and kinetic energy in terms of modern sciences, or knowledge( information in terms of modern age of information technology) and action. It has been stated that the moving and nonmoving parts are complimentary to each other. These for ayaanah are situated around a central point.

कृतयुग

टिप्पणी : तैत्तिरीय संहिता ४.३.३.१, ५.२.१०.७, बौधायन श्रौत सूत्र आदि में स्वयमातृण्णा इष्टका के परितः अपानभृत् आदि इष्टकाओं की स्थापना का उल्लेख आता है जिन्हें प्राची, दक्षिण, प्रतीची, उत्तर, ऊर्ध्वा और अधो दिशाओं में स्थापित किया जाता है । प्रत्येक दिशा के साथ वसन्त आदि ऋतुएं, त्रिवृत्~ आदि स्तोम, सानग आदि ऋषि, त्र्यवि आदि वयः /पक्षी आदि सम्बद्ध हैं । पुराणों में जिन कृत, त्रेता, द्वापर आदि को युग की संज्ञा दी गई है, उन्हें इन वैदिक संदर्भों में अयानः की संज्ञा दी गई है( जैमिनीय ब्राह्मण १.२३५ भी द्रष्टव्य ) । उत्तानपाद शब्द की टिप्पणी में अयानः शब्द का विवेचन किया जा चुका है । वैदिक संदर्भों के अनुसार साधक के प्राणों के विकास से छत्र, उपानह, शय्या, कृष्णाजिन आदि अप्राण वस्तुओं का सृजन होता है जिनमें प्राणों के अभाव होने के कारण इन्हें  अयानः कहा जाता है क्योंकि यान, गति प्राण द्वारा ही होती है । तैत्तिरीय संहिता के उपरोक्त संदर्भों में कहा गया है कि अयः वयः को सर्वत्र उडने में सहायता देता है और वयः द्वारा अयानों की प्राप्ति होती है । जैसा कि कृत की टिप्पणी में कहा जा चुका है, जड पदार्थ में चेतना का विकास करना ही उसे कृत करना है । लेकिन अयानः से संकेत मिलता है कि कृत करना ही पर्याप्त नहीं है, प्रत्येक प्रकार के अयानः को एक विशेष प्रकार के वयः में रूपान्तरित भी करना है ।

          पुराणों में कृत, त्रेता, द्वापर आदि ४ युगों को सार्वत्रिक रूप से धर्म व अधर्म के ४ - ४ पादों से सम्बद्ध किया गया है, विशेषकर लिङ्ग पुराण में धर्म के पादों के साथ - साथ अधर्म के पादों का भी उल्लेख है । धर्म के यह ४ पाद कौन से हैं जो कृतयुग में प्रतिष्ठित रहते हैं, इसका बहुत स्पष्ट उल्लेख प्राप्त नहीं होता । गरुड पुराण २१५/२२३ में कृतयुग में धर्म के ४ पादों सत्य, दान, तप व दया का उल्लेख आता है । इनमें से त्रेता में तप का लोप होकर केवल ३ पाद सत्य, दान व दया ही रह जाते हैं । देवीभागवत पुराण ४.४.१४ में धर्म के ४ पादों सत्य, शौच, दया और दान का उल्लेख है । हरिवंश पुराण ३.१७.३० में धर्म के ४ पादों के रूप में व्यक्त ( स्वाध्याय से? ) ब्रह्मचर्य, पावन गृहस्थ, गुरुभाव/वानप्रस्थ तथा गुह्यगामी वाक्य/संन्यास का उल्लेख है । इनमें से गुह्य धर्म से सोम का वर्धन, ब्रह्मचर्य से वेदों का शाश्वत होना, गृहस्थ से पितरों तथा ऋषियों की तृप्ति होने का उल्लेख है । स्पष्ट रूप से कृतयुग में धर्म के तप रूप पाद का विशेष महत्त्व है जो अन्य युगों में लुप्त हो जाता है । धर्म के तप रूप पाद को समझने के लिए, छान्दोग्य उपनिषद २.२३.१ में धर्म के ३ स्कन्ध होने का उल्लेख है जिनमें यज्ञ, अध्ययन, दान प्रथम है, तप द्वितीय और ब्रह्मचारी होकर आचार्यकुल में वास तृतीय है । तप के संदर्भ में कहा गया है कि प्रजापति ने लोकों का तपन किया । लोकों के तपने से त्रयी विद्या रूपी रस बहा । त्रयी विद्या का तापन करने से भू, भुव:, स्व: अक्षर रूपी रस बहा । इन अक्षरों का तापन करने से ओंकार रूपी रस बाहर निकला । यह ओंकार ही सब कुछ है । छान्दोग्य उपनिषद ४.१०.१ में आख्यान है कि उपकोसल कामलायन सत्यकाम जाबालि के पास ब्रह्मचारी बन कर रहा लेकिन गुरु ने उसे उपदेश नहीं दिया । निराश होकर उसने अनशन कर दिया । तब गार्हपत्य,  अन्वाहार्यपचन और आहवनीय अग्नियों ने तप्त ब्रह्मचारी को क्रमशः शिक्षा दी । गार्हपत्य ने अनुशासन दिया कि पृथिवी अग्नि और आदित्य उसका अन्न है । जो ऐसा जानता है, वह पाप को नष्ट कर लोकी बनता है आदि । अन्वाहार्यपचन ने अनुशासन दिया कि आपः दिशाएं हैं और नक्षत्र चन्द्रमा हैं । आहवनीय ने अनुशासन दिया कि प्राण आकाश हैं और द्यौ विद्युत है । इस प्रकार छद्म रूप से तप द्वारा प्राप्त हो सकने वाली स्थितियों को दर्शाया गया है । ऐसा लगता है कि जैसे ग्रीष्म ऋतु में शिलाओं के तपने से उनमें से शिलाजीत आदि रस बहने लगते हैं, उसी प्रकार अध्यात्म में तप करने से विभिन्न रसों का स्रवण होता है । तापन ज्ञान से, यश आदि से हो सकता है । लेकिन पुराणों में कृतयुग के साथ तप को सम्बद्ध करने में एक बडी आपत्ति भी है । तैत्तिरीय संहिता ४.३.३.१ में ग्रीष्म ऋतु के साथ त्रेता अयानः को सम्बद्ध किया गया है, जबकि पुराणों का कहना है कि त्रेता युग में क्रिया की, यज्ञ की प्रधानता रहती है, तप का लोप हो जाता है । तप को समझने के लिए आधुनिक  विज्ञान की सहायता भी ली जा सकती है । किन्हीं भिन्न - भिन्न प्रकृति वाले दो पदार्थों को यदि कम तापमान पर परस्पर मिलाएं, तो वह एक दूसरे से प्रायः मिलते नहीं हैं । यदि अधिक तापमान पर उन्हें मिलाया जाए तो उनकी स्थल चेतनाएं मिलकर एक नई स्थल चेतना का, एक नए पदार्थ का निर्माण करती हैं । २ पदार्थोंके बीच कुछ ऐसा अवरोध रहता है जो उन्हें परस्पर अभिक्रिया करने से रोकता है और वह अवरोध तापमान में वृद्धि से निष्प्रभावी हो जाता है । यह प्रयत्न किया जाता है कि किसी प्रकार ऐसा हो कि २ पदार्थों की अभिक्रिया कराने के लिए न्यूनतम बाह्य ऊर्जा देनी पडे । अध्यात्म में कृत होने के लिए भी यह अपेक्षित है कि बिना किसी बाह्य प्रयत्न के सारी कामनाएं कृत हो जाएं । इसी उद्देश्य से पुराणों में कृतयुग में कल्पवृक्षों की स्थिति की कल्पना की गई है । त्रेता में आते - आते यह स्थिति समाप्त हो जाती है और तब कामनाओं की पूर्ति हेतु कल्पवृक्षों के पुनः सृजन के लिए भूमि का कर्षण करना पडता है, ऊर्जा लगानी पडती है । ऐसा निष्कर्ष भी निकाला जा सकता है कि भौतिक विज्ञान के अनुसार किसी तन्त्र की स्थैतिक और गतिज ऊर्जाओं का योग स्थिर रहता है । इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि कृतयुग में चेतना तन्त्र केवल ज्ञान रूपी स्थैतिक ऊर्जा पर कार्य करता है, जबकि त्रेता युग में क्रिया प्रधान होने से गतिज ऊर्जा का योगदान अधिक हो जाता है । यदि कोई तन्त्र केवल स्थैतिक ऊर्जा पर अवलम्बन कर सके तो उसका लाभ यह होता है कि ऊर्जा का क्षरण नहीं होता । गतिज ऊर्जा वाले तन्त्र की ऊर्जा का क्षरण होता है । पुराणों में स्थापित कृत के साथ क्रिया के सम्बन्ध का मूल ऋग्वेद २.१२.४ आदि में खोजा जा सकता है । तैत्तिरीय संहिता ४.३.३.१ तथा ५.२.१०.७ में अयानः या अप्राण: के साथ - साथ एक वयः /पक्षी का भी उल्लेख किया गया है जो प्रत्येक युग के लिए विशेष प्रकार का होता है । यह विचारणीय है कि क्या यह उल्लेख आधुनिक भौतिक विज्ञान में तन्त्र की स्थैतिक और गतिज ऊर्जाओं से सम्बन्धित है ?तैत्तिरीय संहिता के अनुसार अयः वयः की सहायता करता है और वयः अयः की । चूंकि अयानः को प्राणों से रहित कहा गया है, अतः वयः प्राण सहित हो सकता है । वयः क्रिया का रूप हो सकता है जिसे त्रेता युग के संदर्भ में यज्ञ कहा गया है ।

          जैसा कि कवच की टिप्पणी में कहा जा चुका है, ब्राह्मण ग्रन्थों में सार्वत्रिक रूप से ( शतपथ ब्राह्मण १.३.३.१७ आदि ) चार अग्नियों का उल्लेख आता है जिनमें चौथी अग्नि देवों के लिए हवि का वहन करती है और शेष तीन अग्नियां उसका कवच, रक्षक बनती हैं । इन्हें ३ परिधियां भी कहा जाता है । पुराणों में एकत, द्वित और त्रित तीन भ्राताओं की कथा में एकत व द्वित त्रित भ्राता को कूप में फेंककर उसकी गायों का हरण कर लेते हैं । केवल त्रित में ही यह शक्ति है कि वह यज्ञ कराकर दक्षिणा प्राप्त कर सके या यज्ञ करके दक्षिणा दे सके । यहां यह विचारणीय है कि क्या इन तीन भ्राताओं का सम्बन्ध भी ३ युगों से है ?

          पुराणों में युगों के साथ धर्म व अधर्म के जिन ४ - ४ पादों की कल्पना की गई है, उसका वैदिक मूल खोजना अपेक्षित है । ऋग्वेद १.१००.९ में इन्द्र द्वारा सव्य में यमन करने तथा दक्षिण में कृतों को ग्रहण करने का उल्लेख है । पुराणों में यम को धर्म कहा गया है । ऋग्वेद ८.९३.८, अथर्ववेद २०.४७.२, २०.१३७.१३ आदि में इन्द्र के दामन में कृत होने के उल्लेख हैं । दम: में धर्म अन्तर्निहित हो सकता है ।

          तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.४.१६.१ में कृत आदि को द्यूत के साथ सम्बद्ध किया गया है । यह संकेत करता है कि सत्ययुग और कृतयुग में अन्तर है । ऋग्वेद १०.१११.१ में भी सत्य और कृत में अन्तर किया गया है ।

प्रथम लेखनः- २६.१.२००२ई.

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