KUURMA

Kuurma/tortoise is famous in Hindu mythology mainly for two facts. One, kuurma happens to be the 3rd of 5 sub – pranic forces. Second, lord Vishnu took incarnation in the form of a kuurma on which a mountain was established and ocean was churned. In yoga book, there is available some information on kuurma praana . For example, Swami Yogeshwaraanand in his book Praana Vijnaana says that in rajo guna state, kuurma prana is responsible for opening and closing of eyelids. In saatvic state, this praana leads to Traataka, the position of eye without opening and closing of eyelids. Then one is able to see various colors. Some texts have referred that on concentrating on kuurma nadi, one gets stabilization of chitta, freedom from hunger etc.. But puraanic and vedic texts indirectly provide much more information on kuurma, though efforts are still needed to decipher it. It appears that the stage earlier than kuurma is the burning of one’s sins. Only then the next stage of kuurma can be attained. There seem to be two parts of kuurma – front and back. The back part requires burning of sins by efforts. What is the nature of front part? It seems to be related with creation, a creation after complete annihilation, imbibing life force into gross matter, or raising different levels of consciousness. In rigvedic hymn, seer kuurma strives to become sun and it’s different forms( It can be said that sun without rays is kuurma, because the main characteristic of kuurma has been stated to be that it knows how to go inwards). This may represent the highest form of kuurma praana. But we have to remain careful, because in puraanic texts, soma/ moon/ Vishnu has been shown to take incarnation in the form of kuurma and therefore it can easily be guessed that moon, and not the sun, is the highest form of kuurma.

          In puraanic texts, kuurma has been named as Mantharak, the slow moving. What does it mean at spiritual level? There are two types of motions in modern sciences – ionic motion and electronic motion. All our body functions have been stated to be working on ionic motion whose speed is very slow, say few centimeters per second. On the other hand, electronic motion is very fast, say speed of light. Therefore, what is desirable is that somehow we may be able to reach that highest speed. It seems that this can be achieved by the other aspect of kuurma – kachchapa or Kashyapa.

कूर्म

टिप्पणी : कूर्म शब्द की निरुक्ति क्या है, यह स्पष्ट नहीं है । शतपथ ब्राह्मण ७.५.१.५ में कूर्म को सृष्टि करने वाला कहा गया है(करोति इति कूर्म:)। लेकिन पुराणों में कूर्म की शक्ति कमठी का उल्लेख है । कर्मठ शब्द की निरुक्ति शब्दकल्पद्रुम शब्दकोश में प्रयत्न से प्रारब्ध का क्षय करने वाले के रूप में की गई है । कूर्म के संदर्भ में यह सार्थक प्रतीत होती है क्योंकि पुराणों में राजा इन्द्रद्युम्न द्वारा कूर्म आदि दीर्घजीवियों के पास जाने की कथा में कूर्म को पिछले जन्म में शाण्डिल्य(अपने प्रारब्ध कर्मों का क्षय करने वाला, शण्ड या नपुंसक बन जाने वाला) कहा गया है । महाभारत में कूर्म को तमोगुणी कहा गया है जो पुराणों में इसी दृष्टिकोण में लिया जाता है । रुद्र जो प्रारब्ध का नाश करते हैं, को तमोगुणी कहा जाता है । वास्तविक छलांग तमोगुण प्राप्त करने के पश्चात् आरम्भ होती है । ऋग्वेद २.२७ सूक्त का ऋषि गृत्समद - पुत्र कूर्म है तथा देवता आदित्य हैं । ऋग्वेद २.२८ का ऋषि कूर्म ही है और देवता वरुण है । ऋग्वेद २.२९ का ऋषि कूर्म है और देवता विश्वेदेवा हैं । प्रथम सूक्त में उषाओं के घटित होने तथा मित्र, वरुण, अर्यमा, भग आदि आदित्यों के उदय होने की कामना की गई है । तैत्तिरीय संहिता ५.२.८.५, मैत्रायणी संहिता ३.२.७, शतपथ ब्राह्मण ७.५.१.७ आदि में स्वयमातृण्णा इष्टका स्थापना के संदर्भ में कहा गया है कि अग्निचिति बनाते समय पहली तीन चितियों/परतों में स्वयमातृण्णा इष्टका के स्थान पर पशुओं के शिर रखते हैं । चौथी चिति में जीवित कूर्म को रखते हैं जिसका मुख नीचे की ओर होता है तथा पांचवी चिति में पुरुष का शीर्ष रखते हैं जिसका मुख उत्तान, ऊपर की ओर होता है । कहा गया है कि कूर्म से पूर्व की चितियां तो श्मशान की  भांति हैं और जीवित कूर्म रखने का निहितार्थ है कि इस श्मशान को अश्मशान बनाना है, जड जगत  में प्राणों का, जीव का संचार करना है । ऋग्वेद २.२७ सूक्त में जो उषाओं और आदित्यों के उदय की बात कही गई है, वहां उषाएं ही जड या सोए हुए जगत में प्राणों का संचार करती हैं । दूसरे शब्दों में, यह तमोगुण की पराकाष्ठा को पार कर एक विशिष्ट प्रकार से चेतन होने की प्रक्रिया है । पुराणों में ओषधि कर्म आदि से पूर्व कूर्म की उपासना के उल्लेख का संदर्भ भी उषाओं के व्युच्छन(ओषधि - ओषं धीयते, जो उषाओं को धारण कराती है, वह)द्वारा व्याख्यात है ।

          पुराणों में सार्वत्रिक रूप से कूर्म के अङ्गों में देशों, नक्षत्रों आदि का न्यास किया गया है । बौधायन श्रौत सूत्र २.५ में अङ्गरोगों को कूर्म में रखने का उल्लेख है । कूर्म की विशेषता यह है कि वह अपने अङ्गों को अन्तर्मुखी करना जानता है । शतपथ ब्राह्मण १.६.२.३ में पुरोडाश को कूर्म कहा गया है । शतपथ ब्राह्मण ६.१.१.१२ में पृथिवी के रस से कूर्म की उत्पत्ति का उल्लेख है । शतपथ ब्राह्मण ७.५.१.३५ तथा १०.५.५.१० में कूर्म को शिर की भांति कहा गया है । यज्ञ में आहवनीय अग्नि शिर होती है । शिर में सारे शरीर के प्राणों का रस होता है , दूसरे शब्दों में, शिर वह भाग है जहां शरीर के प्राण सर्वाधिक पुष्पित अवस्था में रहते हैं । कहा गया है कि आंख, नाक, कान, मुख आदि शरीर के अन्य भागों में भी होते हैं, लेकिन वह विकसित नहीं हो पाते हैं । उदाहरण के लिए, स्तनों को आंख का रूप कहा गया है । इन संदर्भों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि कूर्म के अङ्गों में जिन देशों आदि का न्यास किया जाता है, कूर्म शक्ति उन जड देशों में चेतना का विस्तार करने में, उन्हें शिर: स्थानीय बनाने में समर्थ है । संहिता व ब्राह्मण ग्रन्थों में सार्वत्रिक रूप से(शुक्ल यजुर्वेद २४.३४, मैत्रायणी संहिता ३.२.१४ आदि)कूर्म को द्यावापृथिवीय कहा गया है । उपरोक्त वर्णन से इस कथन का अर्थ स्पष्ट हो जाता है ।

          पुराणों में इन्द्रद्युम्न तथा कूर्म की कथा के संदर्भ में इन्द्रद्युम्न शब्द पर टिप्पणी द्रष्टव्य है । मुख्य  तथ्य यह है कि कूर्म पुराण में कूर्म क्षत्रिय से विप्र बनने वाले इन्द्रद्युम्न को कूर्म पुराण सुनाता है । द्युम्न को पृथिवी से उत्पन्न होने वाली कहा गया है, अन्यत्र पृथिवी से अग्नि रूपी ज्योति का विकास होता है । तैत्तिरीय संहिता २.६.३.३ व शतपथ ब्राह्मण १.६.२.३ में सर्पण करने वाले कूर्म रूपी पुरोडाश का उल्लेख है जो अश्विनीकुमारों, सरस्वती, इन्द्र के लिए भी स्थिर नहीं हुआ, लेकिन अग्नि का नाम लेते ही वह स्थिर हो गया । अतः यह विचारणीय है कि इन्द्रद्युम्न व अग्नि में कितनी समानता  है ।

          पुराणों में सार्वत्रिक रूप से विष्णु के कूर्म अवतार के उल्लेख आते हैं । विष्णु सोम या चन्द्रमा का रूप है । ऋग्वेद में तो सूक्त २.२७ आदित्य देवताओं का है । इससे अगले सूक्त वरुण व विश्वेदेवों  के हैं । पुराणों में आदित्यों से भी परे विष्णु के कूर्म रूप धारण की कल्पना कैसे की गई है, यह कहीं अन्तर्निहित प्रतीत होता है । वास्तु में कूर्म इष्टका की स्थापना करते समय उसके पृष्ठ पर मधु व दधि का लेप किया जाता है । इस संदर्भ में काठक संहिता २०.७ का कथन है कि जो मधु है, वह आपः का, ओषधि का रस है, सार भाग है । जो दधि है, वह पशुओं का मेध है । पुराणों में सार्वत्रिक रूप से कूर्म पृष्ठ की तुलना प्रलयकाल में वृक्षों से रहित भूमि के पृष्ठ से की गई है । लेकिन वास्तु के कूर्म के पृष्ठ पर मधु और दधि की उत्पत्ति स्वाभाविक रूप से किस प्रकार होगी, यह अन्वेषणीय है ।

          उपनिषदों में सार्वत्रिक रूप से कूर्म प्राण को चक्षु के निमीलन - उन्मीलन से सम्बद्ध किया गया है(त्रिशिखब्राह्मणोपनिषद २.८६, जाबालदर्शनोपनिषद ४.३४, योग चूडामण्युपनिषद २३ आदि)। शाण्डिल्योपनिषद १.७.५२ में चित्त को कूर्म नाडी में ले जाने पर स्थैर्य प्राप्त करने का उल्लेख है । वनदुर्गोपनिषद ४२२ में वासुकि नाग के कूर्म पर आरूढ होने का उल्लेख है । स्वर्गीय स्वामी योगेश्वरानन्द ने अपनी पुस्तक प्राण विज्ञान में राजसिक कूर्म प्राणों को चक्षु के निमीलन - उन्मीलन से तथा सात्त्विक कूर्म प्राणों को त्राटक से सम्बन्धित कहा है और उल्लेख किया है कि एक बार त्राटक में पंहुचने पर फिर बहुत से आन्तरिक प्रकाशों का विस्तार होता है ।

          षड्-विंश ब्राह्मण ५.५.२ में उल्लेख है कि आदित्य को मन्देहा आदि राक्षसों से भय होने पर उसका हृदय कूर्म हो गया । इस आदित्य की असुरों से रक्षा के लिए ही सन्ध्याओं के समय में जल के छींटे(विप्रुड्) रूपी वज्र मार कर आदित्य की रक्षा करते हैं । यह कथन संकेत करता है कि किरणों से रहित संवृत्तावस्था कूर्म रूप है, जबकि किरणों सहित विराट् अवस्था आदित्य रूप है । तैत्तिरीय आरण्यक १.२३.३ में कूर्म के विराट् रूप का उल्लेख है ।

          शुक्ल यजुर्वेद संहिता २५.३, तैत्तिरीय संहिता ५.७.१३.१ तथा अथर्ववेद ९.४.१६ में अश्व के शफों को कूर्मों को देने का उल्लेख है । प्रवर्ग्य याग में महावीर पात्र को, जिसमें घृत पकाया जाता है और जिसमें दुग्ध का सिंचन करने पर विशाल घर्म उत्पन्न होता दिखाया जाता है, काष्ठ से बने शफों से ग्रहण किया जाता है । ऋग्वेद के नवम मण्डल में अश्व के शफों द्वारा सुरा के ग्रहण का उल्लेख है ।

          कथासरित्सागर में सरोवर में जल के शुष्क हो जाने पर हंसों द्वारा दण्ड पर कूर्म को ढोने की कथा है । बीच में कूर्म बोलने के लिए मुख से पकडे हुए दण्ड को छोड देता है और मर जाता है । इस संदर्भ में ब्राह्मण ग्रन्थों में वाक् और कूर्म के सम्बन्ध द्रष्टव्य हैं । शतपथ ब्राह्मण ७.५.१.३५ में कूर्म को पशुरूपी अग्नि का शिर व अषाढा नामक इष्टका को ग्रीवा कहा गया है । शतपथ ब्राह्मण में कूर्म को वृषा और अषाढा को योषा कहा गया है जिसमें कूर्म रेतः सिंचन करता है । कूर्म के ऊपर व नीचे  अवका(अवाक् का प्रतीक)घास रखी जाती है जो आपः का प्रतीक होती है ।

प्रथम प्रकाशन- 2005ई.(विक्रम संवत् २०६२)

 

संदर्भाः

ते कुष्ठिकाः सरमायै कूर्मेभ्यो अदधुः शफान् ।ऊबध्यमस्य कीटेभ्यः श्ववर्तेभ्यो अधारयन् शौअ ९.४.१६॥

तेऽसुरा आदित्यमभिद्रवत्स आदित्योऽबिभेत्तस्य हृदयं कूर्मरूपेणातिष्ठत् ॥षड्विंशब्रा. ५.५.

मेधो वा एष पशूनां यत् कूर्मो यत् कूर्ममुपदधात्येतमेवैनं मेधमभिसंजानानाः पशव उपतिष्ठन्ते जीवन्तमुपदधाति स हि मेध्यश्चतुष्पाद्भवति चतस्रो दिशो – काठकसं. २०.७

. अङ्गिरसः सुवर्गं लोकं यतः पुरोडाशः कूर्मो भूत्वा ऽनु प्रासर्पत्. -एवमेवैनं कूर्मः सुवर्गं लोकमञ्जसा नयति । तै.सं. ,, , -५ ।

. कूर्माञ्छफैः (प्रीणामि) । काठ.सं ५३,

किं प्ररोचते किं प्ररोचत इति चेरुरेत्पुरोडाशमेव कूर्मं भूत्वा सर्पन्तं ते ह सर्व एव मेनिरेऽयं वै यज्ञ इति माश १.६.२.३

. तां  (पृथिवीम्) संक्लिश्याप्सु प्राविध्यत्तस्यै यः पराङ् रसो ऽत्यक्षरत्स कूर्मोऽभवत् । माश , , , १२

. तेऽपश्यन् (देवाः) पुरोडाशं कूर्मं भूतं सर्पन्तम् । तै.सं. ,, , -३ ।

. द्यावापृथिवीयः ( 'थिव्यो हि [माश.]) कूर्मः । मै.सं. , १४, १५; माश ७,,, १० ।

. न कूर्मस्याश्नीयात् ( आरुणकेतुकचित्) नोदकस्याघातुकान्येन मोदकानि भवन्ति । अघातुका आपः । तै.. , २६,

. प्राणो वै कूर्मः प्राणो हीमाः सर्वाः प्रजाः करोति । माश , , ,

. मेधो वा एष पशूनां यत्कूर्मः । तै.सं. ,, , ; काठ २०., क ३१ . (तु. मै. , .)

९ यो वै स एषां लोकानामप्सु प्रविद्धानां पराङ् रसो ऽत्यक्षरत्स एष कूर्मः । माश ७,,, १ ।

१०. वास्तव्यो वा एष यत् कूर्मः । तैसं ५,,, ५ ।

११. शिरः ( रसो वै [मा.. .., १।) कूर्मः । माश ,,, ; ३५ ।

१२. स यत्कूर्मो नाम । एतद्वै रूपं कृत्वा प्रजापतिः प्रजा असृजत यदसृजताकरोत्तद्यदकरोत्त- स्मात्कूर्मः कश्यपो वै कूर्मस्तस्मादाहुः सर्वाः प्रजाः काश्यप्य इति । माश ७,,.५ ।

१३. सुवर्गाय वा एष लोकायोपधीयते यत् कूर्मः । तैसं ५, ,, २ ।।

१४ स य स कूर्मो ऽसौ स आदित्यः – मा.श. ७.५.१.६,

१५ कूर्ममुपदधाति। अपामेव मेधमवरुन्धे। अथो स्वर्गस्यैव लोकस्य समष्ट्यै। - तै.आ. १.२५.२

अङ्गिरसः सुवर्गं लोकं यतः पुरोडाशः कूर्मो भूत्वाऽनु प्रासर्पत् ॥  यत् कूर्मम् उपदधाति यथा क्षेत्रविद् अञ्जसा नयत्य् एवम् एवैनं कूर्मः सुवर्गं लोकम् अञ्जसा नयति मेधो वा एष पशूनां यत् कूर्मः । यत् कूर्मम् उपदधाति स्वम् एव मेधम् पश्यन्तः पशव उप तिष्ठन्ते श्मशानं वा एतत् क्रियते यन् मृतानाम् पशूनाम्̇ शीर्षाण्य् उपधीयन्ते यज् जीवन्तं कूर्मम् उपदधाति तेनाश्मशानचित् । वास्तव्यो वा एष यत् कूर्मः । मधु वाता ऋतायत इति दध्ना मधुमिश्रेणाभ्य् अनक्ति स्वदयत्य् एवैनम् । ग्राम्यं वा एतद् अन्नं यद् दध्य् आरण्यम् मधु यद् दध्ना मधुमिश्रेणाभ्यनक्त्य् उभयस्यावरुद्ध्यै मही द्यौः पृथिवी च न इत्य् आह । आभ्याम् एवैनम् उभयतः परि गृह्णाति प्राञ्चम् उप दधाति तस्मात्  पुरस्तात् प्रत्यञ्चः पशवो मेधम् उप तिष्ठन्ते  - तै.सं. ५.२.८.५

अङ्गिरसो वा इत उत्तमाः सुवर्गं लोकम् आयन् तद् ऋषयो यज्ञवास्त्व् अभ्यवायन् ते अपश्यन् पुरोडाशं कूर्मम् भूतम्̇ सर्पन्तं तम् अब्रुवन्न् इन्द्राय ध्रियस्व बृहस्पतये ध्रियस्व विश्वेभ्यो देवेभ्यो ध्रियस्वेति स नाध्रियत तम् अब्रुवन्न् अग्नये ध्रियस्वेति सो ऽग्नये ऽध्रियत यद् आग्नेयो ऽष्टाकपालो ऽमावास्यायां च पौर्णमास्यां चाच्युतो भवति सुवर्गस्य लोकस्याभिजित्यै तम् अब्रुवन् कथाऽहास्था इत्य् अनुपाक्तो ऽभूवम् इत्य् अब्रवीद् यथाक्षो ऽनुपाक्तः अवार्छत्य् एवम् अवाऽऽरम् इत्य् उपरिष्टाद् अभ्यज्याधस्ताद् उपानक्ति सुवर्गस्य लोकस्य समष्ट्यै – तै.सं. २.६.३.३

कूर्ममुपदधाति । रसो वै कूर्मो रसमेवैतदुपदधाति यो वै स एषां लोकानामप्सु प्रविद्धानां पराङ्रसोऽत्यक्षरत्स एष कूर्मस्तमेवैतदुपदधाति यावानु वै रसस्तावानात्मा स एष इम एव लोकाः - ७.५.१.[१]

तस्य यदधरं कपालम् । अयं स लोकस्तत्प्रतिष्ठितमिव भवति प्रतिष्ठित इव ह्ययं लोकोऽथ यदुत्तरं सा द्यौस्तद्व्यवगृहीतान्तमिव भवति व्यवगृहीतान्तेव हि द्यौरथ यदन्तरा तदन्तरिक्षं स एष इम एव लोका इमानेवैतल्लोकानुपदधाति - ७.५.१.[२]

तमभ्यनक्ति । दध्ना मधुना घृतेन दधि हैवास्य लोकस्य रूपं घृतमन्तरिक्षस्य मध्वमुष्य स्वेनैवैनमेतद्रूपेण समर्धयत्यथो दधि हैवास्य लोकस्य रसो घृतमन्तरिक्षस्य मध्वमुष्य स्वेनैवैनमेतद्रसेन समर्धयति - ७.५.१.[३]

मधु वाता ऋतायत इति । यां वै देवतामृगभ्यनूक्ता यां यजुः सैव देवता सऽर्क्सो देवता तद्यजुस्तद्धैतन्मध्वेवैष त्रिचो रसो वै मधु रसमेवास्मिन्नेतद्दधाति गायत्रीभिस्तिसृभिस्तस्योक्तो बन्धुः - ७.५.१.[४]

स यत्कूर्मो नाम । एतद्वै रूपं कृत्वा प्रजापतिः प्रजा असृजत यदसृजताकरोत्तद्यदकरोत्तस्मात्कूर्मः कश्यपो वै कूर्मस्तस्मादाहुः सर्वाः प्रजाः काश्यप्य इति - ७.५.१.[५]

स यः कूर्मोऽसौ स आदित्योऽमुमेवैतदादित्यमुपदधाति तं पुरस्तात्प्रत्यञ्चमुपदधात्यमुं तदादित्यं पुरस्तात्प्रत्यञ्चं दधाति तस्मादसावादित्यः पुरस्तात्प्रत्यङ्धीयते दक्षिणतोऽषाढायै वृषा वै कूर्मो योषाऽषाढा दक्षिणतो वै वृषा योषामुपशेतेऽरत्निमात्रेऽरत्निमात्राद्धि वृषा योषामुपशेते सैषा सर्वासामिष्टकानां महिषी यदषाढैतस्यै दक्षिणतः सन्त्सर्वासामिष्टकानां दक्षिणतो भवति - ७.५.१.[६]

यद्वेव कूर्ममुपदधाति । प्राणो वै कूर्मः प्राणो हीमाः सर्वाः प्रजाः करोति प्राणमेवैतदुपदधाति तं पुरस्तात्प्रत्यञ्चमुपदधाति पुरस्तात्तत्प्रत्यञ्चम्प्राणं दधाति तस्मात्पुरस्तात्प्रत्यङ्प्राणो धीयते पुरुषमभ्यावृत्तं यजमाने तत्प्राणं दधाति दक्षिणतोऽषाढायै प्राणो वै कूर्मो वागषाढा प्राणो वै वाचो वृषा प्राणो मिथुनम् - ७.५.१.[७]

अपां गम्भन्त्स्तीदेति । एतद्धापां गम्भिष्ठं यत्रैष एतत्तपति मा त्वा सूर्योऽभिताप्सीन्माग्निर्वैश्वानर इति मैव त्वा सूर्यो हिंसीन्मो अग्निर्वैश्वानर इत्येतदच्छिन्नपत्राः प्रजा अनुवीक्षस्वेतीमा वै सर्वाः प्रजा या इमा इष्टकास्ता अरिष्टा अनार्ता अनुवीक्षस्वेत्येतदनु त्वा दिव्या वृष्टिः सचतामिति यथैवैनं दिव्या वृष्टिरनुसचेतैवमेतदाह - ७.५.१.[८]

अथैनमेजयति । त्रीन्त्समुद्रान्त्समसृपत्स्वर्गानितीमे वै त्रयः समुद्राः स्वर्गा लोकास्तानेष कूर्मो भूत्वानुसंससर्पापां पतिर्वृषभ इष्टकानामित्यपां ह्येष पतिर्वृषभ इष्टकानां पुरीषं वसानः सुकृतस्य लोक इति पशवो वै पुरीषम्पशून्वसानः सुकृतस्य लोक इत्येतत्तत्र गच्छ यत्र पूर्वे परेता इति तत्र गच्छ यत्रैतेन पूर्वे कर्मणेयुरित्येतत्- ७.५.१.[९]

मही द्यौः पृथिवी च न इति । महती द्यौः पृथिवी च न इत्येतदिमं यज्ञम्मिमिक्षतामितीमं यज्ञमवतामित्येतत्पिपृतां नो भरीमभिरिति बिभृतां नो भरीमभिरित्येतद्द्यावापृथिव्ययोत्तमयोपदधाति द्यावापृथिव्यो हि कूर्मः –मा.श.  ७.५.१.[१०]

 

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