A summary of the burning of Khaandava forest

Complete details of burning of the Khaandava forest from Mahaabhaarata

The story of ‘Khandava Daah’ is described in Aadi parva of Mahaabhaarata. The story of yaaga of king Shwetaki  symbolizes the gradual   expansion of consciousness. One has to expand his consciousness so that he may be able to imbibe consciousness in all the inanimate objects lying inactive. This yaaga is performed with the help of the forces of nature. The forces which support this  have been termed in the story as the priests of yaaga of the king. The nature of these forces changes with time and age. For example, in childhood, these forces lead only to development of physical body. In young age, the natural forces induce towards sex. That is why the priests of the yaaga of king remain changing. At last, the yaaga is performed by a dark force, named Durvaasaa in the story. The dark forces of nature dominate when the consciousness gets dominated by worldly desires. 

          To be lustful, desireful or sinful is a natural process for man in this universe. But when a man crosses limits, he himself receives pain and restlessness. This pain or restlessness turns him into search of something which could give him relief or peace. This is a turning point in man’s life. This has been symbolized in the story by the indigestion of fire. This fire is nothing but our own consciousness.

          The first universal law says that the factor which is responsible for pain, the solution to relieve from that pain lies in the same factor. So, if the desire or lust produces pain, the only way to obtain peace is the destruction of these desires. But one problem arises that as soon as a man tries to destroy his desires, they reoccur in full force and a man feels himself helpless. In this situation, the second universal law says that the only way to conquer his desires is to first attain the purity of mind and awakening of soul or awareness. These have been symbolized in the story of Khaandava Daaha by Arjuna and Krishna respectively.

          A man adorned with both these qualities  receives some divine powers, which are already hidden in him. Firmness, determination, knowledge, constant aimfulness are such divine powers which help man to achieve the target.

          It is important here to say that the destruction of desires does not mean the destruction of the ability to desire. The capability remains and a man can use this capability if required. One more aspect, described in the story is the transformation of one’s ego from bad to good or from darkness to light. This good ego enriches our personality.

The word Khaandava symbolizes our lust or desire. Oneness of mind breaks into pieces (Khanda – Khanda) due to these desires

          At last, the story opens one more secret – as soon as a man conquers his desires, his set up of mind changes and he develops some special qualities such as discrimination, friendship and stability which later help him in accomplishment.

 

खाण्डव दाह की कथा में छिपे हुए आध्यात्मिक रहस्य

- राधा गुप्ता

          खाण्डव दाह की कथा महाभारत के आदिपर्व में २२१वें अध्याय से लेकर २३३वें अध्याय तक वर्णित है । कथा पूरी तरह प्रतीकात्मक है । कथा का संक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार है :

कृष्ण व अर्जुन परस्पर वार्तालाप कर रहे थे । इसी समय उनके पास एक तेजस्वी ब्राह्मण देवता आए । अर्जुन और श्रीकृष्ण ने उनका स्वागत किया । ब्राह्मण ने उनसे भिक्षा की याचना की और भोजन कराकर तृप्ति प्रदान करने के लिए कहा । कृष्ण और अर्जुन द्वारा यह पूछने पर कि आपके लिए किस अन्न की व्यवस्था की जाए, ब्राह्मण ने कहा कि मैं अग्निदेव हूं । मुझे अन्न की भूख नहीं है । मैं इस खाण्डव वन को जलाना चाहता हूं । इन वन में तक्षक नाग अपने परिवार सहित सदा निवास करता है, इसलिए जब - जब मैं इस वन को जलाने का प्रयत्न करता हूं, तब - तब तक्षक के सखा इन्द्र जल बरसाकर इस वन की रक्षा करते हैं । अनेक बार मैं इसे जलाने का प्रयत्न कर चुका हूं, परन्तु प्रत्येक बार असफल होकर आज ब्रह्मा जी के निर्देशानुसार नर - नारायण स्वरूप आप दोनों की सहायता से इस कार्य को सफल करना चाहता हूं ।

          कृष्ण और अर्जुन के द्वारा यह पूछने पर कि आप खाण्डव का दाह क्यों करना चाहते हैं, अग्निदेव ने कहा - '' प्राचीन काल में श्वेतकि नाम के एक राजा थे । यज्ञ तथा दान के प्रेमी वे राजा सदा ऋत्विजों के साथ यज्ञ किया करते थे । दीर्घकाल तक यज्ञ की आहुति देते - देते सभी ऋत्विज थक गए और राजा को छोडकर चले गए । राजा ने उन ऋत्विजों की आज्ञा लेकर दूसरे ब्राह्मणों को ऋत्विज बनाया और अपने यज्ञ को सम्पन्न किया । यज्ञपरायण उस राजा के मन में किसी समय यह संकल्प उठा कि मैं सौ वर्षों तक जारी रहने वाला एक यज्ञ करूं परन्तु इसके लिए उन्हें कोई ऋत्विज नहीं मिला । थके हुए ऋत्विजों ने उनसे कहा कि अब तो रुद्र ही आपका यज्ञ कराएंगे । आप उन्हीं के पास जाइए । राजा श्वेतकि रुद्र के पास गए परन्तु रुद्र ने एक शर्त रखी कि आप पहले एकाग्रचित्त हो बारह वर्षों तक घृत की निरन्तर धारा द्वारा अग्निदेव को तृप्त करो । रुद्र के ऐसा कहने पर राजा श्वेतकि ने तदनुसार सारा कार्य सम्पन्न किया । अतः प्रसन्न रुद्र ने दुर्वासा को बुलाया और दुर्वासा ने अपने अन्य ऋत्विजों की सहायता से राजा का यज्ञ सम्पन्न कराया । यज्ञ में वसुधारा की आहुति के रूप में प्राप्त हुई घृत धारा से मुझे ग्लानि प्राप्त हुई, मेरी कान्ति फीकी पड गई और उदर में विकार हो गया । स्वयं को तेजोहीन देखकर मैंने ब्रह्मा जी से स्वास्थ्य लाभ हेतु प्रार्थना की । ब्रह्मा जी ने मुझे खाण्डव वन को जलाकर वहां रहने वाले जीव जन्तुओं के मेद से तृप्त होकर स्वस्थ हो जाने का आश्वासन दिया ।

          अग्निदेव की बात सुनकर अर्जुन ने खाण्डव दाह के कार्य में सहायता करने के लिए उनसे अपने तथा कृष्ण के लिए उपयुक्त शस्त्रास्त्र प्रदान करने की प्रार्थना की । अग्निदेव ने लोकपाल वरुण का चिन्तन किया और उनसे अर्जुन के लिए सोम - प्रदत्त दिव्य गाण्डीव धनुष, अक्षय तरकस तथा रथ एवं कृष्ण के लिए भी चक्र एवं रथ प्राप्त किए । अग्निदेव से दिव्य शस्त्रास्त्र प्रात करके अर्जुन एवं कृष्ण ने खाण्डव वन को जलाने में अग्निदेव की भरपूर सहायता की । इन्द्र ने यद्यपि जल बरसाकर आग बुझाने का भरसक प्रयत्न किया परन्तु वे असफल रहे । खाण्डव दाह में असंख्य प्राणियों का भीषण संहार हुआ परन्तु उस वन में निवास करने वाला तक्षक नाग दाह से पहले ही कुरुक्षेत्र में चला गया था, इसलिए बच गया । तक्षक का बलवान् पुत्र अश्वसेन भी माता के प्रयास से खाण्डव दाह से बचकर बाहर निकल गया तथा तक्षक के निवास स्थान से निकलकर मयासुर ने भी अर्जुन से जीवन दान की प्रार्थना की और अर्जुन ने उसे अभय प्रदान किया । अग्निदेव ने खाण्डव का दाह करते हुए उसमें रहने वाला चार शार्ङ्ग पक्षियों - जरितारि, सारिसृक्, स्तम्बमित्र तथा द्रोण को भी नहीं जलाया क्योंकि उनके पिता मन्दपाल ने अग्निदेव की स्तुति करके उनसे अपने पुत्रों की रक्षा की प्रार्थना की थी ।

          प्रस्तुत कथा की प्रतीकात्मकता को सरल रूप में समझने के लिए उसे ६ प्रभागों में विभाजित करना उचित होगा । प्रथम प्रभाग में राजा श्वेतकि की यज्ञ कथा, दूसरे प्रभाग में ग्लानियुक्त अग्निदेव का ब्रह्मा से मिलन और उचित निर्देशों की प्राप्ति, तीसरे प्रभाग में इन्द्र की जल वर्षा से खाण्डव दाह में अग्निदेव की असफलता, चतुर्थ प्रभाग में अर्जुन व कृष्ण द्वारा खाण्डव दाह में अग्निदेव की सहायता, पांचवे प्रभाग में तक्षक, अश्वसेन तथा मयासुर का दाह से बचना तथा छठे प्रभाग में चार शार्ङ्ग पक्षियों के जन्म तथा अग्निदाह से सुरक्षा की कथा को सम्मिलित किया जा सकता है ।

          अब हम प्रतीकों के माध्यम से वर्णित आध्यात्मिकता को समझने का प्रयास करे ।

          खाण्डव वन का अर्थ है - कामनाओं, इच्छाओं, तृष्णाओं, वासनाओं से भरा हुआ हमारा मन । कामनाएं, इच्छाएं हमारे मन में बिना किसी प्रयत्न के, संस्कारवश उसी प्रकार पैदा होती और बढती हैं, जैसे वन में वृक्ष सम्पत्ति बिना उगाए ही पैदा होती है और बढती है । ये कामनाएं, इच्छाएं मन को खण्ड - खण्ड अर्थात् नाना शाखाओं में विभाजित भी करती हैं, इसलिए इनसे भरे हुए मन को खाण्डव वन कहना युक्तियुक्त ही है ।

          राजा श्वेतकि की यज्ञ कथा मनुष्य शरीर में चैतन्य के शनैः - शनैः फैलाव को इंगित करती है, ऐसा व्यक्तित्व जो श्वेत बनने चला है । श्वेतकि शब्द श्वि धातु से बना है, जिसका अर्थ है - विकसित होने वाला, बढने वाला, फैलाव वाला । जैसे - जैसे बच्चा बडा होता जाता है, वैसे - वैसे उसका चैतन्य भी विकसित अथवा विस्तृत होता जाता है । प्रारम्भिक शिशु अवस्था में जो चैतन्य केवल शारीरिक क्रियाओं में ही अभिव्यक्त होता है, वही धीरे - धीरे मानसिक - बौद्धिक क्रियाओं के माध्यम से भी अभिव्यक्त होने लगता है । युवावस्था में यही चैतन्य नाना प्रकार की कामनाओं के कारण तीव्रता से अभिव्यक्ति पाता है । यह चैतन्य का स्वभाव है । चैतन्य के इस स्वभाव को ही कथा में राजा श्वेतकि का यज्ञ और दान कहकर निरूपित किया गया है । मनुष्य शरीर में स्वतः प्रवाहित चैतन्य उसका यज्ञ है और प्रत्येक कोश को अपनी चेतना प्रदान करके उसे जड से चेतन बनाना ही उसका दान है । चैतन्य का यह यज्ञ प्रकृति की सहायता के बिना सम्पन्न नहीं होता, इसलिए यज्ञ में जो प्रकृति की शक्तियां सहायक होती हैं, उन्हें ही कथा में ऋत्विज कहकर सम्बोधित किया गया है । अवस्था परिवर्तन के साथ - साथ ऋत्विज रूप इन प्रकृति शक्तियों में भी परिवर्तन होता है, इसीलिए कथा में श्वेतकि के ऋत्विज भी बदलते रहते हैं । युवावस्था में मनुष्य शरीर में चैतन्य का जो यज्ञ चलता है, उसमें कामनाएं, वासनाएं, इच्छाएं प्रबल रहती हैं, इसीलिए इस यज्ञ को तमस के देवता रुद्र की सहायता से दुर्वासा प्रभृति ऋत्विजों द्वारा सम्पन्न होना बताया गया है । तमस ( रुद्र) से प्रेरित होकर ही जब चैतन्य व्यक्तित्व के सभी १२ स्तरों - पांच ज्ञानेन्द्रियों, पांच कर्मेन्द्रियों, मन तथा बुद्धि - पर कामनाओं, वासनाओं के आधीन होकर भोगासक्त हो जाता है, तब ही व्यक्ति की चेतना अस्वस्थता का अनुभव करती है । अस्वस्थ होने का अर्थ है - व्यक्ति का पूरी तरह देह - केन्द्रित होकर अपने वास्तविक सच्चिदानन्द स्वरूप को भूल जाना । आनन्द का, ज्ञान का सागर अन्तर में विद्यमान होते हुए भी उसका पूरी तरह विस्मरण हो जाना । कामनाओं, वासनाओं में डूबा हुआ व्यक्ति जैसे - जैसे स्वस्वरूपता से दूर होता जाता है, वैसे - वैसे उसकी चेतना तेजोहीन, कान्तिहीन होती जाती है । व्यवहार में देखा भी जाता है कि जो व्यक्ति समस्त सांसारिक कर्तव्यों का समुचित निर्वाह करते हुए भी आत्मस्थ बना रहता है - वही तेज और कांति का पुंज होता है । इसके विपरीत, स्वस्वरूप ( चिदानन्दरूपता ) को भुलाकर देहभाव में डूबा हुआ व्यक्ति स्वार्थपरायण होकर तेज और कान्ति से हीन तो होता ही है, वह अपने भीतर ग्लानि का अनुभव भी करता है । व्यक्ति की इसी स्थिति को कहानी में अग्निदेव की अजीर्णता कहकर प्रदर्शित किया गया है ।

          अग्निदेव व्यक्ति का ही प्रतीक है, जिसमें चैतन्य रूपी अग्नि जल रही है ।

          कथा में कहा गया है कि अपनी अजीर्णता के निराकरण हेतु अग्निदेव ब्रह्मा जी के पास जाते हैं और ब्रह्मा जी उन्हें खाण्डव दाह का निर्देश देते हैं । ब्रह्मा जी सृष्टिकर्त्ता कहे जाते हैं और ब्रह्मा जी के निर्देश का अर्थ है - सृष्टिकर्त्ता का शाश्वत नियम । शाश्वत नियम यही है कि जो कामनाएं, वासनाएं, इच्छाएं मनुष्य को उसके वास्तविक सच्चिदानन्दमय स्वरूप से दूर हटाकर, भोगों में आकण्ठ डुबाकर उसे अत्यन्त ग्लानि प्रदान करती हैं, उन्हीं कामनाओं, वासनाओं का दाह ग्लानि से निवृत्त होने का उपाय भी है ।

          कथा में कहा गया है कि जब - जब अग्निदेव ने खाण्डव वन को जलाने का प्रयत्न किया, तब - तब इन्द्र ने जल बरसाकर आग को बुझा दिया । इसका तात्पर्य यह है कि कामनाओं, वासनाओं से युक्त मन का अधिपति इन्द्र है । अपनी सम्पत्ति को भस्म होते देखना भला किसे अच्छा लगता है ? हमारे मन का भी एक स्वाभाविक नियम है कि जब - जब हम अपनी किसी वासना या इच्छा को समाप्त करना चाहते हैं, तब - तब वह वासना अधिक प्रगाढ होकर वहां पहले से भी अधिक रस का उद्भव करने लगती है । उदाहरण के लिए, जब कोई व्यक्ति अपनी सिगरेट, या शराब या चाय पीने की इच्छा को समाप्त करना चाहता है, तो जैसे - जैसे वह उस इच्छा को नष्ट करना चाहता है, वैसे - वैसे वह इच्छा और उसमें मिलने वाला रस अधिक प्रबल रूप से हमारे भीतर उभरने लगता है । यही इन्द्र की जल वर्षा है । विशिष्ट साधनों का अवलम्बन लिए बिना व्यक्ति की सामान्य चेतना ( अग्निदेव ) वासनाओं का दाह करने में समर्थ नहीं हो सकती ।

          बार - बार खाण्डव दाह के कार्य में असफल होकर अग्निदेव पुनः ब्रह्मा जी के पास जाकर अपनी समस्या का निवेदन करते हैं । तब ब्रह्मा जी कहते हैं कि नर - नारायण स्वरूप अर्जुन एवं कृष्ण जब धरा पर अवतरित होंगे, तब ही उनकी सहायता से तुम खाण्डव वन का दाह करने में समर्थ हो सकोगे । इसलिए उनके अवतरित होने तक तुम्हें प्रतीक्षा करनी होगी । यहां अर्जुन प्रतीक है - सरल सात्विक मन का तथा कृष्ण प्रतीक हैं - जाग्रत चेतना का । धरा प्रतीक है - हमारे व्यक्तित्व का । कामनाओं, वासनाओं का दाह तभी सम्भव है जब व्यक्तित्व में उपर्युक्त वर्णित सरल सात्विक मन तथा जाग्रत चेतना का प्रादुर्भाव हो जाए । मन तो प्रत्येक व्यक्ति के पास है, परन्तु उसका सत्त्व गुण से युक्त होना भी आवश्यक है । इसी प्रकार चैतन्य तो सबके भीतर है, परन्तु वह प्रसुप्त अर्थात् खोई - खोई सी अवस्था में है । जाग्रत चेतना का अर्थ है - जब व्यक्ति अपने स्वयं के अस्तित्व के विषय में, समग्र के अस्तित्व के विषय में और दोनों के परस्पर सम्बन्ध आदि के विषय में चिन्तन, मनन करके तदनुसार जीवन जीने का प्रयास करने लगे । इन दोनों - सरल सात्विक मन तथा जाग्रत चेतना का मणि - काञ्चन संयोग होने पर ही व्यक्ति में यह सामर्थ्य आती है कि वह कामनाओं, वासनाओं, इच्छाओं के रूप में फैले हुए खाण्डव वन का दाह कह सके ।

          कथा में कहा गया है कि जब अग्निदेव ने अर्जुन एवं कृष्ण के समीप जाकर उनसे खाण्डव दाह के कार्य में सहायता करने की प्रार्थना की, तब अर्जुन ने अग्निदेव से उस दाह कार्य के निमित्त उपयुक्त शस्त्रास्त्रों की याचना की । अग्निदेव ने वरुण से सोम - प्रदत्त अस्त्रों को ग्रहण करके उन्हें अर्जुन एवं कृष्ण को भेंट कर दिया । यह कथा इंगित करती है कि सात्विक मन रूपी अर्जुन तथा जाग्रत चेतना रूपी कृष्ण को खाण्डव दाह में सहायता करने के लिए जिन गुण रूपी शस्त्रों की आवश्यकता होती है - वे सब शस्त्र व्यक्तित्व के भीतर ही कहीं गहराई में विद्यमान होते हैं । व्यक्तित्व की वह गहराई ही वरुण का लोक कही गई है । व्यक्तित्व की उस गहराई में ही हमारी सारी दिव्यता छिपी रहती है , जो उपयुक्त समय आने पर अर्थात् सात्विक मन और जाग्रत चेतना का व्यक्तित्व में आविर्भाव होने पर उभर कर बाहर अर्थात् व्यक्तित्व के बाह्य धरातल पर आ जाती है । गुणों की दिव्यता ही अस्त्रों के सोम - प्रदत्त होने को इंगित करती है । अर्जुन का दिव्य गाण्डीव धनुष दिव्य संकल्प का, बाण लक्ष्य का तथा रथ मन की दृढता का प्रतीक है । अर्जुन ने दृढता रूपी रथ पर खडे होकर दिव्य संकल्प रूपी गाण्डीव धनुष पर लक्ष्य रूपी बाण को रखकर जब सतत् सन्धान किया, तब खाण्डव वन में रहने वाले असंख्य प्राणी दाह से बाहर नहीं निकल सके और भस्म हो गए । कृष्ण को प्रदत्त रथ ज्ञान का तथा चक्र परिवर्तनशीलता का प्रतीक है । कृष्ण रूपी जाग्रत चेतना भी जब ज्ञान रूप रथ पर खडे होकर जगत् की देह की सतत् परिवर्तनशीलता को देखती है, तब कामनाओं, वासनाओं के वन को जला देने में निस्सन्देह रूप से सहायक होती है । दैनिक जीवन में भी इन तथ्यों का प्रत्यक्ष अनुभव होता है कि दृढतापूर्वक, संकल्प युक्त होकर निरन्तर लक्ष्य सन्धान करने वाले व्यक्ति को ही सफलता मिलती है तथा जो शरीर की अनित्यता, परिवर्तनशीलता को जान लेता है, वही देह की पोषक स्वार्थपूर्ण वासनाओं से लिप्त नहीं होता ।

          कथा में कहा गया है कि खाण्डव दाह से खाण्डव वन में रहने वाला तक्षक नाग तथा उसका पुत्र अश्वसेन सुरक्षित रहे । तक्षक का अर्थ है - तक्ष + क , अर्थात् काटने, चीरने वाला । अतः तक्षक नाग हमारी स्वार्थ वृत्ति अथवा भोग वृत्ति का प्रतीक हो सकता है क्योंकि यही हमें हमारे वास्तविक स्वरूप से काटता अर्थात् अलग करता है । अश्वसेन का अर्थ है - अश्व + सेन अर्थात् अश्वों( इन्द्रियों ) का सेनापति । अतः अश्वसेन मन का प्रतीक हो सकता है । इन दोनों के सुरक्षित बचे रहने से यह संकेत किया गया प्रतीत होता है कि कामनाओं, वासनाओं के नाश में मन की भोग क्षमता का नाश नहीं होता । क्षमता विद्यमान रहती है, भले ही साधक उस क्षमता का उपयोग न करे । यह भी कहा गया है कि जिस समय खाण्डव दाह हो रहा था, उस समय मयासुर ने भागकर अर्जुन की शरण ग्रहण की और उनसे अभय प्राप्त किया । मय का अर्थ है - हमारे व्यक्तित्व में रहने वाला ''मैं'' अर्थात् अहं का भाव । इससे यह संकेत किया गया प्रतीत होता है कि खाण्डव का दाह आध्यात्मिक साधना के मार्ग का वह स्तर है जहां मन रूपी भूमि से कामनाओं, वासनाओं के झाड - झंखाड को इसलिए साफú किया जाता है ताकि वहां उच्चतर शक्तियों या गुणों को स्थापित किया जा सके । इस स्तर पर अहं भाव का नाश न तो सम्भव है तथा न आवश्यक ही । चूंकि अहंभाव की व्यक्तित्व निर्माण में महती भूमिका है, इसलिए इस स्तर पर उस अहं का केवल असुरत्व से देवत्व में रूपान्तरित होना आवश्यक है । अर्जुन रूपी सात्विक मन की शरण में जाकर ही असुरों के शिल्पी मयासुर ने देवशिल्पी की भांति पाण्डवों के लिए सुन्दर सभा का निर्माण किया अर्थात् तमस प्रधान अहंकार जब सत्त्व में रूपान्तरित हो जाता है, तब व्यक्तित्व विशिष्ट शोभा से समन्वित हो जाता है ।

          कथा में खाण्डव के दाह से मन्दपाल और जरिता के चार बच्चों के भी सुरक्षित रहने की बात कही गई है । कहानी का संक्षिप्त रूप इस प्रकार से है :

          मन्दपाल नामक एक तपस्वी शरीर का त्याग करके जब पितृलोक में गए, तब उन्हें अपने तप एवं सत्कर्मों का फल नहीं मिला । देवताओं से पूछने पर उन्होंने कहा कि आप तपस्वी और यज्ञकर्त्ता तो हैं, परन्तु आपको कोई सन्तान नहीं है । सन्तान उत्पन्न करके ही आप पुण्य लोकों का फल प्राप्त कर सकते हैं । यह सुनकर शीघ्र सन्तान प्राप्त करने की इच्छा से मन्दपाल ने शार्ङ्गिक पक्षी होकर जरिता नाम वाली शार्ङ्गिका पक्षिणी से सम्बन्ध स्थापित किया और खाण्डव वन में चार ब्रह्मवादी पुत्रों को जन्म दिया । बच्चों को माता के पास ही छोडकर मन्दपाल लपिता के पास चले गए । परन्तु तभी उन्होंने अग्निदेव को खाण्डव वन का दाह करते हुए उसी ओर आते देखा । बच्चों की सुरक्षा को लेकर भयभीत हुए मन्दपाल ने अग्निदेव की स्तुति की और उनसे अपने पुत्रों को बचाने की प्रार्थना की । अग्निदेव ने वैसा करने की प्रतिज्ञा करके खाण्डव वन को तो जलाकर भस्म कर दिया परन्तु मन्दपाल के चारों बच्चे - जरितारि, सारिसृक्, स्तम्बमित्र तथा द्रोण आग से पूर्णतः सुरक्षित रहे ।

          कथा पूरी तरह प्रतीकात्मक है । पौराणिक साहित्य में सन्तान गुण का प्रतीक है तथा पक्षी मन का । शार्ङ्ग शब्द शृङ्ग से बना है , जिसका अर्थ है - उच्च या ऊंचा । अतः शार्ङ्ग पक्षी का अर्थ हुआ - उच्च मन । मन की दो प्रकार की गतियां हैं । वह निम्नता की ओर भी ले जा सकता है तथा उच्चता की ओर भी । जब निम्नतर मन ( मन्दपाल) उच्चतर होकर उच्चतर शक्ति ( जरिता ) से सम्बन्ध जोड लेता है, तब ही व्यक्तित्व में गुणों का प्रस्फुटन होता है । सभी प्रकार के तपों की सार्थकता भी तभी है जब उनसे व्यक्तित्व में गुणों का प्रस्फुटन हो । उच्चतर मन से युक्त व्यक्तित्व में जिन चार गुणों का प्रादुर्भाव होता है, उनमें सबसे पहला गुण है - मन के पुराने ढांचे का टूटना अर्थात् मन का रूपान्तरित होना । मन जिस किसी मान्यता या धारणा से जुडा रहता है, वह मान्यता टूटती है और नूतन दृष्टि बनती है । इसे जरितारि नामक पुत्र कहा गया है । जरितारि का अर्थ है - जरित + अरि, अर्थात् पुराने का शत्रु, नूतन, नया । दूसरा गुण है - मन में सार का सरण होने लगता है, असार उड जाता है । इसे विवेक का प्रादुर्भाव कह सकते हैं, जिसमें सारहीन विचार हवा हो जाते हैं । इसे सारिसृक् नामक पुत्र कहा गया है । सारिसृक् का अर्थ है - सार + सृक् अर्थात् सार की हवा का बहना । तीसरा गुण है - मन में अब केवल मैं - मेरों के लिए ही मित्र भाव नहीं रह जाता है, अपितु समष्टि के प्रति मैत्री भाव का उदय होने लगता है । इसे स्तम्बमित्र नामक पुत्र कहा गया है । स्तम्बमित्र का अर्थ है - स्तम्ब + मित्र अर्थात् समूह का मित्र । चौथा गुण है - मन में स्थिरता का आविर्भाव होता है । इसे द्रोण नामक पुत्र कहा गया है । द्रोण का अर्थ है - द्रु + न , अर्थात् जिसमें गति नहीं है । जैसे - जैसे मन कामनाओं से मुक्त होता जाता है, वैसे - वैसे उपर्युक्त गुणों का प्रादुर्भाव वहां होता है । यद्यपि ये गुण उस समय शिशु अवस्था में ही होते हैं, परन्तु शनैः - शनैः इनका विकास होता जाता है । साधना के उच्चतर सोपानों की ओर चढने में यही गुण तो सहायक होते हैं , इसलिए अग्निदेव इनकी सुरक्षा करेंगे ही ।

          उपर्युक्त कथा को सार रूप में इस प्रकार कहा जा सकता है कि प्रत्येक चैतन्य की बीज से फूल बनने की जो लम्बी यात्रा है, उसमें कामासक्ति अथवा भोगासक्ति भी एक पडाव मात्र ही है । तमस शक्ति इस कामासक्ति को बढाकर अप्रत्यक्ष रूप से चैतन्य की सहायता ही करती है, क्योंकि अति कामासक्ति से व्यक्ति जिस दुःख का अनुभव करता है, वही दुःख तो उसे कामनाओं, वासनाओं से निवृत्त होने के लिए प्रेरित करता है । एक बार कामनाओं से निवृत्त होने की इच्छा जग जाने पर अनेक प्रकार के साधन स्वयं सिमटते चले आते हैं । फिर जैसे - जैसे कामनाओं का नाश होता जाता है, वैसे - वैसे मन का रूपान्तरण घटित होता है और मन में ऐसे गुण अंकुरित होने लगते हैं जो व्यक्ति को साधना की उच्चतर यात्रा की ओर ले जाते हैं ।

प्रथम लेखन ५-३-२००७ई.

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