कोटि
टिप्पणी – स्कन्द पुराण के सेतु माहात्म्य में नल द्वारा निर्मित सेतु का राम द्वारा धनुष की कोटि से भंग किए जाने और धनुष्कोटि तीर्थ में स्नान के माहात्म्य का विस्तार से वर्णन है। वाल्मीकि रामायण में ऐसा उल्लेख नहीं है।
कोटि शब्द बहुत से अर्थों में प्रयुक्त होता है। कोटि का एक अर्थ करोड (सौ लाख) संख्या होता है। दूसरा अर्थ किसी वस्तु का छोर होता है, जैसे धनुष की कोटि। एक अर्थ आपेक्षिक स्तर होता है, जैसे 11 रुद्रों की कोटि, 12 आदित्यों की कोटि आदि।
धनुष की कोटि के संदर्भ में हमारे हाथों और पैरों के छोरों को धनुष की कोटियां कहा जा सकता है। स्कन्द पुराण ५.१.३६.२१ में शिव के पादाङ्गुष्ठ का भूमि पर स्पर्श होने से कोटि पापों के नष्ट होने से कोटि तीर्थ की उत्पत्ति का उल्लेख है। इस कथन को गंभीर रूप से समझने की आवश्यकता है। पादांगुष्ठ ऐसा स्थान है जिसे देह चेतना का सबसे दूर का स्थान, सुप्त स्थिति कहा जा सकता है। यदि कोई व्यक्ति अपने श्वास को देखने का प्रयत्न करे और देखे कि अन्दर जाने वाला श्वास किन –किन स्थानों पर छूने जैसी अनुभूति दे रहा है, तो कहा जाता है कि पादांगुष्ठ , नख आदि ऐसे स्थान हैं जहां छूने की अनुभूति प्राप्त करना बहुत कठिन है। यदि कोई व्यक्ति अपने पादांगुष्ठ और नखों को श्वास के माध्यम से छू लेता है, तो उस स्थिति में पुराणों की भाषा में यह माना जाएगा कि उसने अपने पादांगुष्ठ द्वारा पृथिवी का स्पर्श कर दिया है। पुराणों में विष्णु के पादांगुष्ठ से गंगा के निर्गमन के उल्लेख आते हैं। ऐसे भी उल्लेख आते हैं कि विष्णु द्वारा बलि के ब्रह्मरन्ध्र का अपने पादांगुष्ठ से स्पर्श करने पर गंगा का प्रादुर्भाव हुआ। पुराणों के इन उल्लेखों को इसी भाषा में समझा जा सकता है कि जब मनुष्य की चेतना, जाग्रत चेतना पादांगुष्ठ तक पहुंच जाएगी तो पादांगुष्ठ में संचित ऊर्जा गंगा के रूप में प्रवाहित होने लगेगी। राम द्वारा धनुष की कोटि द्वारा सेतु को भंग करने का क्या अर्थ हो सकता है, इस संदर्भ में यही कहा जा सकता है कि धनुष की कोटि स्थान के सक्रिय होने पर सेतु की आवश्यकता नहीं रह जाएगी। सेतु मंद गति से प्रगति करने का मार्ग है।
स्कन्द पुराण आदि में धनुष्कोटि में स्नान से पापों के नाश का वर्णन इतना अतिशयोक्तिपूर्ण क्यों है, यह समझने के लिए कोटि शब्द को गहराई से समझना पडेगा। वैदिक साहित्य में कोटि शब्द विरल ही कहीं प्रकट हुआ होगा। लेकिन पौराणिक साहित्य में कोटि शब्द का प्रचुरता से प्रयोग हुआ है। ऐसा अनुमान है कि वैदिक साहित्य में दस संख्या का प्रयोग(उदाहरण के लिए, दशरथ, दशानन) ऋग्वेद के लिए, शत संख्या (उदाहरण के लिए शतरुद्रिय) का यजुर्वेद के लिए और सहस्र संख्या(उदाहरण का लिए, सहस्राक्ष, सहस्रबाहु, सहस्रकमल) का प्रयोग सामवेद के लिए होता है। ऋग्वेद अतीत काल की, अतीत काल में निर्मित घटनाओं की सूचना देता है। यजुर्वेद वर्तमान काल में अस्तित्व रखना सिखाता है, कल्पवृक्ष का निर्माण करता है । इस क्रम में सामवेद भविष्य से संबंधित हो सकता है। अथर्ववेद और इतिहास – पुराणों का कहां स्थान है, यह ज्ञात नहीं है। हो सकता है कि इनका स्थान लक्ष और कोटि संख्याओं में निहित हो। पुराणों में कोटि संख्या से आगे जाने पर अनन्त की स्थिति आ जाती है। गरुड पुराण 3.3.48 में देशकोटि और कालकोटि से परे की स्थिति को देशानन्त्य और कालानन्त्य कहा गया है। ब्रह्माण्ड पुराण 3.4.43.52 में पूजाकोटि को स्तोत्र के बराबर, स्तोत्रकोटि को जप के बराबर, जपकोटि को ध्यान के बराबर और ध्यानकोटि को लय के बराबर कहा गया है। शिव पुराण 1.17.146 में दस क्रियायुक्त साधकों की अपेक्षा तपोयुक्त के श्रेष्ठ होने, शत तपोयुक्तों से जपयुक्त के श्रेष्ठ होने, सहस्रजपयुक्तों से शिवज्ञानी के श्रेष्ठ होने, लक्ष शिवज्ञानियों में ध्यानयुक्त के श्रेष्ठ होने और कोटि ध्यानयुक्तों में समाधिस्थ के विशिष्ट होने का उल्लेख है। अतः यह उल्लेख अनन्त संख्या की विशिष्ट परिभाषा प्रस्तुत करते हैं।
गरुड पुराण 3.2.60 में अपराधों का वर्गीकरण शतशः, सहस्रशः व कोटिशः के रूप में किया गया है। इसी प्रकार पुण्यों के वर्गीकरण के विषय में भी सोचा जा सकता है। पद्म पुराण 6.71.151 में विभिन्न गुणों की कोटियों या पराकाष्ठाओं का उल्लेख है। प्रकाश की पराकाष्ठा कोटि सूर्यों के रूप में, दुरासदों(कठिनता से प्राप्त होने वालों) में यमकोटि, जगत की सृष्टि करने वालों में मय कोटि, बलों में वायुकोटि, जगदानंद में इन्दुकोटि, महेश्वर में शंभुकोटि, लावण्य में कंदर्पकोटि, अरिमर्दन में दुर्गकोटि गंभीरता में समुद्रकोटि, समाह्वान में तीर्थकोटि, लक्ष्मीवान् में कुबेरकोटि, विलासवान् में शक्रकोटि, निष्कंपता में हिमवत्कोटि, विग्रहों में ब्रह्माण्डकोटि, पापघ्नों में अश्वमेधकोटि, अर्चना में यज्ञकोटि, स्वास्थ्य में सुधाकोटि, कामदों में कामधुक्कोटि, रूप में ब्रह्मविद्याकोटि, दर्पनाशमें गणेशकोटि का उल्लेख है। इन सभी कोटियों या गुणों को राम के धनुष की कोटि में विद्यमान समझा जा सकता है।
यह विचारणीय है कि क्या धनुष्कोटि में स्नानविधि की व्याख्या पुराणों व अथर्व परिशिष्ट में वर्णित कोटिहोम विधि द्वारा की जा सकती है।
प्रथम लेखन – 6-11-2014ई.(कार्तिक पूर्णिमा, विक्रम संवत् 2071)
संदर्भ
तेषां (रुद्राक्षाणां) नामोच्चारणमात्रेण दशगोप्रदानफलं । -- - -- -लक्षं तु दर्शनात्पुण्यं कोटिस्तद्धारणाद्भवेत् – रुद्राक्षजाबालोपनिषद 1.5
अहं ब्रह्मास्मि मन्त्रोयं कोटिदोषं विनाशयेत् – तेजोबिन्दूपनिषत् 3.68
कोटि देवीभागवत ७.३०.६८ ( कोटि तीर्थ में कोटवी देवी के वास का उल्लेख ), पद्म ३.१८.८ ( कोटीश्वर युक्त कोटि तीर्थ का माहात्म्य : शिव द्वारा कोटि संख्यक राक्षसों के हनन से कोटि नाम धारण ), ३.२५.२५ ( रुद्रकोटि : देवदर्शन की इच्छा से आए हुए कोटि संख्यक ऋषियों को युगपद् दर्शन देने के लिए रुद्र द्वारा कोटि संख्यक रूप धारण करने से रुद्रकोटि नाम से प्रसिद्धि, तीर्थ में स्नान करने से अश्वमेध फल की प्राप्ति ), ब्रह्म २.७८ ( कोटि तीर्थ में किए गए समस्त कर्मों के कोटि गुण रूप होने से कोटि नाम धारण तथा कोटि तीर्थ का संक्षिप्त माहात्म्य ), मत्स्य १३.३७ ( कोटि तीर्थ में कोटवी रूप से सती के विराजमान होने का उल्लेख ), १०६.४४ ( कोटि तीर्थ में शरीर परित्याग का माहात्म्य ), १९१.७ ( कोटि दानवों के संहार तथा शूलपाणि महादेव के विराजित होने से कोटितीर्थ की कोटीश्वर नाम से प्रसिद्धि, कोटीश्वर तीर्थ का संक्षिप्त माहात्म्य ), वराह १४०.४७ ( कोकामुख क्षेत्र में कोटिवट तीर्थ के माहात्म्य का कथन ), १५२.६५ ( कोटि तीर्थ में स्नान से ब्रह्मलोक प्राप्ति का कथन ), १५४.३२ ( कोटितीर्थ में स्नान व प्राण - त्याग से ब्रह्मलोक प्राप्ति का कथन ), वायु ११२.३२ ( कोटि तीर्थ में पिण्ड दान से पितरों को स्वर्ग प्राप्ति तथा स्नान करके कोटीश्वर के दर्शन से कोटि जन्मों तक वेदपारग धनी ब्राह्मण होने का उल्लेख ), स्कन्द १.२.५२ ( कोटि तीर्थ के निर्माण के हेतु तथा माहात्म्य का वर्णन ), २.२.१२.९५ ( राजा इन्द्रद्युम्न द्वारा कोटीश्वर शिव का पूजन, कोटिलिङ्गेश द्वारा इन्द्रद्युम्न को वर प्रदान का उल्लेख ), ३.१.२७ ( कोटि तीर्थ का माहात्म्य : कृष्ण की मातुल वध दोष से मुक्ति ), ३.१.४४.११७ ( रावण वधोपरान्त ब्रह्महत्या से निवृत्ति हेतु राम द्वारा गन्धमादन पर्वत पर शिवलिङ्ग का निर्माण, लिङ्ग अभिषेक हेतु जल न मिलने पर राम द्वारा धनुष की कोटि से पृथ्वी का भेदन कर जल प्राप्ति, धनुष्कोटि से जल प्राप्त कर लिङ्गाभिषेक करने से कोटितीर्थ का निर्माण, कोटि तीर्थ में कृष्ण की मातुल वध दोष से निवृत्ति, कोटि तीर्थ के माहात्म्य का वर्णन ), ५.१.३६.२१ ( शिव के पादाङ्गुष्ठ का भूमि पर स्पर्श होने से कोटि पापों के नष्ट होने से कोटि तीर्थ की उत्पत्ति का उल्लेख ), ५.३.९६ ( कोटीश्वर :कोटि ऋषियों द्वारा स्थापित होने से कोटीश्वर नाम धारण , कोटीश्वर तीर्थ का संक्षिप्त माहात्म्य ), ५.३.११३ ( कोटि तीर्थ में कोटि ऋषियों को परम सिद्धि की प्राप्ति तथा कोटि तीर्थ का संक्षिप्त माहात्म्य ), ५.३.२०३ ( कोटि ऋषियों द्वारा शिव की स्थापना से कोटि नाम धारण, कोटि तीर्थ में किए गए दान, जप आदि के कोटि गुण होने का कथन ), ५.३.२१९, ५.३.२२४ ( कोटीश्वर तीर्थ का संक्षिप्त माहात्म्य ), ५.३.२३१.१२ ( रेवा - सागर सङ्गम पर कोटि तीर्थों की स्थिति का उल्लेख ), ६.५२.१३ ( रुद्रकोटि के माहात्म्य का वर्णन : कोटि द्विजों को दर्शन देने हेतु रुद्र का युगपत् कोटि रूपों में प्राकट्य ), ७.१.१०.११(रुद्रकोटि तीर्थ का वर्गीकरण – आकाश), ७.१.१०४ (कोटीश्वर लिङ्ग का संक्षिप्त माहात्म्य : कोटि ब्राह्मणों द्वारा लिङ्ग की स्थापना तथा पूजा से लिङ्ग का कोटीश्वर नाम ), ७.१.३५७ ( कोटीश्वर तीर्थ में स्नान व पूजन से कोटि यज्ञों के फल की प्राप्ति का उल्लेख ), ७.३.११ ( कोटीश्वर लिङ्ग का माहात्म्य : कोटि ऋषियों को कोटि लिङ्गों के रूप में युगपद् दर्शन ), ७.३.५० ( कोटि तीर्थ का माहात्म्य ), लक्ष्मीनारायण १.३८२.१६३(ऋषियों के शिष्यों की कोटि में गणना) ; द्र. धनुषकोटि । koti
महाकालं ततो गच्छेन्नियतो नियताशनः |
कोटितीर्थमुपस्पृश्य हयमेधफलं लभेत् ||६८|| - महाभारत वन 82
कुमारकोटिमासाद्य नियतः कुरुनन्दन |
तत्राभिषेकं कुर्वीत पितृदेवार्चने रतः ||१२३||
गवामयमवाप्नोति कुलं चैव समुद्धरेत् ||१२३||
ततो गच्छेत धर्मज्ञ रुद्रकोटिं समाहितः |
पुरा यत्र महाराज ऋषिकोटिः समाहिता ||१२४||
प्रहर्षेण च संविष्टा देवदर्शनकाङ्क्षया ||१२४||
अहं पूर्वमहं पूर्वं द्रक्ष्यामि वृषभध्वजम् |
एवं सम्प्रस्थिता राजन्नृषयः किल भारत ||१२५||
ततो योगेष्वरेणापि योगमास्थाय भूपते |
तेषां मन्युप्रणाशार्थमृषीणां भावितात्मनाम् ||१२६||
सृष्टा कोटिस्तु रुद्राणामृषीणामग्रतः स्थिता |
मया पूर्वतरं दृष्ट इति ते मेनिरे पृथक् ||१२७||
तेषां तुष्टो महादेव ऋषीणामुग्रतेजसाम् |
भक्त्या परमया राजन्वरं तेषां प्रदिष्टवान् ||१२८||
अद्य प्रभृति युष्माकं धर्मवृद्धिर्भविष्यति ||१२८||
तत्र स्नात्वा नरव्याघ्र रुद्रकोट्यां नरः शुचिः |
अश्वमेधमवाप्नोति कुलं चैव समुद्धरेत् ||१२९|| - महा. वन 82
ततः पञ्चनदं गत्वा नियतो नियताशनः |
कोटितीर्थमुपस्पृश्य हयमेधफलं लभेत् ||१४|| - महा. वन83
तिस्रः कोट्यस्तु तीर्थानां सरके कुरुनन्दन |
रुद्रकोटिस्तथा कूपे ह्रदेषु च महीपते ||६३|| - महा. वन 83
अभिवाद्य ततो यक्षं द्वारपालमरन्तुकम् |
कोटिरूपमुपस्पृश्य लभेद्बहु सुवर्णकम् ||१७१|| महा वन 83
ततो गच्छेत राजेन्द्र भर्तृस्थानमनुत्तमम् |
कोटितीर्थे नरः स्नात्वा अर्चयित्वा गुहं नृप ||६८|| - महा वन 84
ततो गच्छेत राजेन्द्र भर्तृस्थानमनुत्तमम् |
यत्र देवो महासेनो नित्यं संनिहितो नृपः ||५७||
पुमांस्तत्र नरश्रेष्ठ गमनादेव सिध्यति |
कोटितीर्थे नरः स्नात्वा गोसहस्रफलं लभेत् ||५८|| - महा. वन 85
स कोटिकाश्यं राजानमब्रवीत्काममोहितः |
कस्य त्वेषानवद्याङ्गी यदि वापि न मानुषी ||१२|| महा वन 264
अहं तु राज्ञः सुरथस्य पुत्रो; यं कोटिकाश्येति विदुर्मनुष्याः |
असौ तु यस्तिष्ठति काञ्चनाङ्गे; रथे हुतोऽग्निश्चयने यथैव ||६|| महा वन 264
गोसहस्रफलं विन्देत्तेजस्वी च भवेन्नरः ||६८||
महापराधाः संति लोके महात्मन्सहस्रशः शतशः कोटिशश्च।
हरिश्च तान्क्षमते सर्वदैव नामत्रयस्मरणाद्वै कृपालुः॥ गरुड पु. ३,२.६०॥
कालकोटिविहीनत्वं कालानन्त्यं विदुर्बुधाः।
देशकोटिविहीनत्वं देशानन्त्यं विदुर्बुधाः॥गरुड ३,३.४८॥
बालार्ककोटिप्रतिमं ध्यायेज्ज्ञानप्रदं हरिम् ।
ध्यात्वैवं प्रजपेल्लक्षं दशांशं जुहुयात्तिलैः ॥नारद १,७५.९६ ॥
अन्यस्मिंश्चायुतंविद्धिज्ञातिभ्योलक्षमुच्यते २०६
पिण्डेकोटिगुणंप्रोक्तंद्विजायानन्तमुच्यते
गंगाजलेगयायांचप्रयागेपुष्करेतथा २०७ पद्म 1.50
रुद्राक्षस्यफलं नाथ ज्ञातुमिच्छामि तत्त्वतः
जप्येथधारणे चैव दर्शने स्पर्शनेपिवा १३७
ईश्वरउवाच-
लक्षं तु दर्शनात्पुण्यं कोटिर्वै स्पर्शनेन च
दशकोटिफलं पुण्यं धारणाल्लभतेनरः १३८
लक्षकोटिसहस्राणि लक्षकोटिशतानिच पद्म 1.59
तीर्थकोटिषु यत्पुण्यं क्षेत्रकोटिषु यत्फलम्
तत्फलं समवाप्नोति त्रिस्पृशा समुपोषणात् ८१ पद्म 6.34
सूर्यकोटिप्रतीकाशो यमकोटि दुरासदः
मयकोटि जगत्स्रष्टा वायुकोटि महाबलः १५१
कोटींदु जगदानंदी शंभुकोटि महेश्वरः
कंदर्पकोटि लावण्यो दुर्गकोट्यरिमर्दनः १५२
समुद्रकोटि गंभीरस्तीर्थकोटि समाह्वयः
कुबेरकोटि लक्ष्मीवाञ्छक्रकोटि विलासवान् १५३
हिमवत्कोटि निष्कंपः कोटिब्रह्मांडविग्रहः
कोट्यश्वमेध पापघ्नो यज्ञकोटिसमार्चनः १५४
सुधाकोटिस्वास्थ्यहेतुः कामधुक्कोटिकामदः
ब्रह्मविद्याकोटिरूपः शिपिविष्टःशुचिश्रवाः १५५ पद्म 6.71
गणेशकोटिदर्पघ्नो दुःसहाशेषगोत्रहा
देवदानवदुर्दर्शो जगद्भयदभीषणः १९३ पद्म 6.71
युगकोटिसहस्राणि मन्वंतरशतानिच
द्वादश्यांकार्तिकेमासिजागरीवसतेदिवि २१ पद्म 6.124
विपुलेविपुलंनामकल्याणंमलयाचले
कौरवंकोटितीर्थेचसुगंधंगंधमादने १६ पद्म 6.133
शतयोजनविस्तीर्णंविमानंहंसकोटिभिः
युक्तंभूतिसहस्रौघंसर्ववस्तुप्रपूरितम् ३१ पद्म 6.5
एकं दशशतं चैव सहस्रं चैव संख्याया।
विज्ञेयमासहस्रं तु सहस्राणि दशायुतम्॥३,२.९२॥
एकं शतसहस्रं तु नियुतं प्रोच्यते बुधैः।
तथा शतसहस्राणां दशप्रयुतमुच्यते॥३,२.९३॥
तथा दशसहस्राणामयुतं कोटिरुच्यते।
अर्बुदं दशकोट्यस्तु ह्यब्जं कोटिशतं विदुः॥३,२.९४॥
सहस्रमापि कोटीनां खर्वमाहुर्मनीषिणः।
दशकोटिसहस्राणि निखर्वमिति तं विदुः॥३,२.९५॥
शतं कोटि सहस्राणां शङ्कुरित्यभिधीयते।
सहस्रं तु सहस्राणां कोटीनां पद्ममुच्यते॥३,२.९६॥
सहस्राणि सहस्राणां कोटीनां दशधा पुनः।
गुणितानि समुद्रं वै प्राहुः संख्याविदो जनाः॥३,२.९७॥
कोटीसहस्रनियुतमन्त्यमित्यभिधीयते।
कोटीसहस्रप्रयुतं मध्यमित्यभिसंज्ञितम्॥३,२.९८॥
कोटिकोटिसहस्रं तु परार्द्ध इति कीर्त्यते।
परार्द्धं द्विगुणं चापि परमाहुर्मनीषिणः॥३,२.९९॥
शतमाहुः परिवृढं सहस्रं परिपद्मकम्।
विज्ञेयमयुतं तस्मान्नियुतं प्रयुतं ततः॥३,२.१००॥
अर्बुदं न्यर्बुदं चैव खर्बुदं च ततः स्मृतम्।
खर्वं चैव निखर्वं च शङ्कुः पद्मन्तथैव च॥३,२.१०१॥
समुद्रमन्त्यं मध्यं च परार्द्धं च परं ततः।
एवमष्टादशैतानि स्थानानि गणनाविधौ॥३,२.१०२॥ ब्रह्माण्ड
पूजाकोटिसमं स्तोत्रं स्तोत्रकोटिसमोजपः।
जपकोटिसमं ध्यानं ध्यानकोटिसमो लयः॥ब्रह्माण्ड ३,४३.५२॥
ग्रहयज्ञस्त्रिधा प्रोक्तः पुराणश्रुतिकोविदैः
प्रथमोऽयुतहोमः स्याल्लक्षहोमस्ततः परम् 5
तृतीयः कोटिहोमस्तु सर्वकामफलप्रदः
अयुतेनाहुतीनां च नवग्रहमखः स्मृतः 6
तस्य तावद्विधिं वक्ष्ये पुराणश्रुतिभाषितम् मत्स्य 93
कोटिहोमे चतुर्हस्तं चतुरस्रं तु सर्वतः
योनिवक्त्रद्वयोपेतं तदप्याहुस्!त्रिमेखलम् 121
द्व्यङ्गुलाभ्युच्छ्रिता कार्या प्रथमा मेखला बुधैः
त्र्! यङ्गुलाभ्युच्छ्रिता तद्वद् द्वितीया परिकीर्तिता 122
उच्छ्रायविस्तराभ्यां च तृतीया चतुरङ्गुला
द्व्यङ्गुलश्चेति विस्तारः पूर्वयोरेव शस्यते 123
वितस्तिमात्रा योनिः स्यात् षट्सप्ताङ्गुलविस्तृता
कूर्मपृष्ठोन्नता मध्ये पार्श्वयोश्चाङ्गुलोच्छ्रिता 124
गजौष्ठसदृशी तद्वदायता छिद्र संयुता
एतत्सर्वेषु कुण्डेषु योनिलक्षणमुच्यते 93.125
मेखलोपरि सर्वत्र अश्वत्थदलसंनिभम्
वेदी च कोटिहोमे स्याद्वितस्तीनां चतुष्टयम् 126
चतुरस्रा समन्ताच्च त्रिभिर्वप्रैस्तु संयुता
वप्रप्रमाणं पूर्वोक्तं वेदीनां च तथोच्छ्रयः 127
तथा षोडशहस्तः स्यान्मण्डपश्च चतुर्मुखः
पूर्वद्वारे च संस्थाप्य बह्वृचं वेदपारगम् 128
यजुर्विदं तथा याम्ये पश्चिमे सामवेदिनम्
अथर्ववेदिनं तद्वदुत्तरे स्थापयेद्बुधः 129
अष्टौ तु होमकाः कार्या वेदवेदाङ्गवेदिनः
एवं द्वादश विप्राः स्युर्वस्त्रमाल्यानुलेपनैः
पूर्ववत्पूजयेद्भक्त्या वस्त्राभरणभूषणैः 130
रात्रिसूक्तं च रौद्रं च पावमानं सुमङ्गलम्
पूर्वतो बह्वृचः शान्तिं पठन्नास्ते ह्युदङ्मुखः 131
शाक्तं शाक्रं च सौम्यं च कौष्माण्डं शान्तिमेव च
पाठयेद्दक्षिणद्वारि यजुर्वेदिनमुत्तमम् 132
सुपर्णमथ वैराजमाग्नेयं रुद्र संहिताम्
ज्येष्ठमास तथा शान्तिं छन्दोगः पश्चिमे जपेत् 133
शान्तिसूक्तं च सौरं च तथा शाकुनकं शुभम्
पौष्टिकं च महाराज्यमुत्तरेणाप्यथर्ववित् 134
पञ्चभिः सप्तभिर्वापि होमः कार्योऽत्र पूर्ववत्
स्नाने दाने च मन्त्राः स्युस्त एव मुनिसत्तम 135
वसोर्धाराविधानं च लक्षहोमे विशिष्यते
अनेन विधिना यस्तु कोटिहोमं समाचरेत्
सर्वान्कामानवाप्नोति ततो विष्णुपदं व्रजेत् 136 मत्स्य 93
इदानीं कोटिहोमस्य शृणु त्वं कथयाम्यहम् 17
गङ्गातटेऽथ यमुनासरस्वत्योर्नरेश्वर
नर्मदादेविकायास्तु तटे होमो विधीयते 18 मत्स्य 239
चतुरशीतिसाहस्रो मेरुश्चोपरि भूतलात् ।
कोटियोजनमाक्रम्य महर्लोको ध्रुवाद्ध्रुवः ॥ १,५३.४१ ॥
जनलोको महर्लोकात्तथा कोटिद्वयं द्विजाः ।
जनलोकात्तपोलोकश्चतस्रः कोटयो मतः ॥ १,५३.४२ ॥
प्राजापत्याद्ब्रह्मलोकः कोटिषट्कं विसृज्य तु ।
पुण्यलोकास्तु सप्तैते ह्यण्डेऽस्मिन्कथिता द्विजाः ॥ १,५३.४३ ॥
अधः सप्ततलानां तु नरकाणां हि कोटयः ।
मायान्ताश्चैव घोराद्या अष्टाविंशतिरेव तु ॥ १,५३.४४ ॥ लिंग
अङ्गुलीजपसंख्यानमेकमेकं शुभानने ।
रेखैरष्टगुणं प्रोक्तं पुत्रजीवफलैर्दश ॥ १,८५.१०९ ॥
शतं वै शङ्खमणिभिः प्रवालैश्च सहस्रकम् ।
स्फाटिकैर्दशसाहस्रं मौक्तिकैर्लक्षमुच्यते ॥ १,८५.११० ॥
पद्माक्षैर्दशलक्षं तु सौवर्णैः कोटिरुच्यते ।
कुशग्रन्थ्या च रुद्राक्षैरनन्तगुणमुच्यते ॥ १,८५.१११ ॥लिंग
ततोऽपरो योजनकोटिना वै लोको जनो नाम वस्न्ति यत्र ।
गोमातरोऽस्मासु विनाशकारि यासां रजोऽपीह महासुरेन्द्र ॥ ५२.२२ ॥
ततोऽपरो योजनकोटिभिस्तु षड्भिस्तपो नाम तपस्विजुष्टः ।
तिष्ठन्ति यत्रासुर साध्यवर्या येषां हि नश्वासमरुत्त्वसह्यः ॥ ५२.२३ ॥
ततोऽपरो योजनकोटिभिस्तु त्रिंशद्भिरादित्यसहस्रदीप्तिः ।
सत्याभिधानो भगवन्निवासो वरप्रदोऽभुद्भवतो हि योऽसौ ॥ ५२.२४ ॥ वामन
क्रियायुक्तदशभ्यश्चतपोयुक्तोविशिष्यते ॥ १,१७.१४६
तपोयुक्तशतेभ्यश्चजपयुक्तोविशिष्यते ॥ १,१७.१४७
जपयुक्तसहस्रेभ्यः शिवज्ञानी विशिष्यते ॥ १,१७.१४७
शिवज्ञानिषुलक्षेषु ध्यानयुक्तो विशिष्यते ॥ १,१७.१४८
ध्यानयुक्तेषु कोटिभ्यः समाधिस्थो विशिष्यते ॥ १,१७.१४८ शिव
(३० ,२.९) दिव्यान्तरिक्षभौमेषु अद्भुतेषु न संशयः । कोटिहोमं विदुः प्राज्ञा लक्षं वायुतमेव वा ॥
(३० ,२.१०) अविज्ञातं च यत्पापं सहसा चैव यत्कृतम् । तत्सर्वं लक्षहोमस्य करणाद्धि विनश्यति ॥
(३० ,२.११) तस्मात्सर्वेषु कार्येषु शान्तिकेषु विशेषतः । यः कुर्यात्प्रयतो नित्यं न सोऽनर्थान् समश्नुते ॥
( अथर्व परिशिष्ट ३१. कोटिहोमः)
(३१,१.१) ओं देवाश्च ऋषयश्चैव पीड्यमाना महासुरैः । मृत्युना व्याधिभिश्चैव ब्रह्माणमिदमब्रुवन् ॥
(३१,१.२) कर्मणा केन देवेश मृत्युर्व्याधिश्च जीयते । ऐश्वर्यं प्राप्यते वापि स्थानं च परमं प्रभो ॥
(३१,१.३) एवमुक्तो महातेजा ब्रह्मा लोकपितामहः । प्रत्युवाचेश्वरः सर्वान् विप्रान् देवगणैः सह ॥
(३१,१.४) शृणुध्वं प्रयताः सर्वे प्राप्यते येन कर्मणा । ऐश्वर्यमायुरारोग्यं पुत्रा विजय एव च ॥
(३१,१.५) सव्याहृतिं सप्रणवां गायत्रीं शिरसा सह । ये जपन्ति सदा तेभ्यो न भयं विद्यते क्व चित् ॥
(३१,२.१) तया होमश्च कर्तव्यः सततं सिद्धिमिच्छता । यवैस्तिलैः समिद्भिश्च व्रीहिभिः सर्षपैस्तथा ॥
(३१,२.२) अथ चेन्महतीं सिद्धिं प्रार्थयध्वं सुरोत्तमाः । पुरोधसा कारयध्वं कोटिहोमं महाफलम् ॥
(३१,२.३) यादृशं कृतवान् पूर्वमथर्वा त्र्यम्बकस्य तु । तादृशेन विधानेन कोटिहोमः प्रयुज्यते ॥
(३१,२.४) महत्त्वं प्रार्थयमानः शर्वोऽथर्वाणमब्रवीत् । कुरुष्व मम तत्कर्म महत्त्वं येन लभ्यते ॥
(३१,२.५) ऐश्वर्यमायुरारोग्यं स्थानं च परमं प्रभो । पुत्रा लक्ष्मीर्यशो मेधा बलं पौरुष्यमेव च ॥
(३१,३.१) एवमुक्तो महातेजा अथर्वा मन्त्रदर्शवित् । गायत्रीं तपसा युक्तामृचः पदमितीति ह ॥
(३१,३.२) [ऋचः पदं मात्रयेति मन्त्रे विज्ञायते हि सा ।] गायत्री वै त्रिपाद्ब्रह्म विश्वरूपा च संस्थिता ॥
(३१,३.३) प्राणदा सर्वभूतानां धारणी यापि नित्यशः । इति निश्चित्य मनसा कोटिहोमं प्रयोजयत् ॥
(३१,३.४) समिद्भिः शान्तवृक्षस्य गायत्र्या सुसमाहितः । ततो महत्त्वमगमदैशर्यं परमं तथा ॥
(३१,३.५) महादेव इति चास्य नाम लोकेषु विश्रुतम् । उपद्रवाश्च ये के चिदुपघातास्तथैव च । सर्वेऽस्य प्रशमं याताः स्कन्दं पुत्रं च लब्धवान् ॥
(३१,४.१) ततः प्रीतस्तु भगवाञ्शंकरः पर्यपृच्छत । अथर्वाणं महाप्राज्ञं कोटिहोमस्य को विधिः ॥
(३१,४.२) चतुर्विंशाक्षरं ब्रह्म त्रिपादं लोकधारणम् । सावित्रं तेन होमोऽयं कृतो मे कोटिसंमितः ॥
(३१,४.३) विधिं चास्य प्रवक्ष्यामि सर्वलोकहिताय वै । यत्प्रयोगाद्भवेच्छान्तिर्वृद्धिश्च परमा नृणाम् ॥
(३१,४.४) उपद्रवेषु भूतानामापत्सु विविधासु च । कोटिहोमः प्रयोक्तव्यः केतूनां दर्शने तथा ॥
(३१,४.५) उपसर्गभये चैव परचक्रभये तथा । अनावृष्टिभये चैव कोटिहोमं प्रयोजयेत् ॥
(३१,५.१) आरम्भं तस्य कुर्वीत शुक्ले चापि तिथौ शुभे । मुहूर्ते विजये चैव तिथिछिद्राणि वर्जयेत् ॥
(३१,५.२) रोहिण्यां वैष्णवे त्वाष्ट्रे पौष्णे मैत्रोत्तरेषु च । अभिजित्पुष्यसौम्येषु कुर्यात्पुण्येषु वा बुधः ॥
(३१,५.३) अथ चेत्त्वरते कर्तुं कोटिहोमं महाफलम् । पुण्याहं वाचयित्वास्य आरम्भं कारयेद्बुधः ॥
(३१,५.४) अष्टहस्तं तु निर्दिष्टं कोटिहोमस्य खातकम् । तस्यैवार्धप्रमाणेन लक्षहोमे विधीयते ॥
(३१,५.५) त्रिरात्रोपोषितो ब्रह्मा कृत्वा शान्तिं चतुर्गणीम् । प्रोक्षयेत्कर्मसिद्ध्यर्थं वास्तु शान्त्युदकेन तु ॥
(३१,५.६) महाशान्तिविधानेन निर्मथ्याग्निं समाहितः । तावत्कुर्याद्बुधः सर्वं यावन्नो नैरृतं कृतम् ॥
(३१,६.१) ततः प्रभाते बहुश उद्धृत्याग्निं समाहितः । निर्मथ्य हावयेत्तत्र समिधो ब्राह्मणान् बहून् ॥
(३१,६.२) शतं सहस्रं कोटिं वा विंशतिर्दश वा द्विजाः । जुहुयुः शान्तवृक्षस्य समिधो घृतसंयुताः ॥
(३१,६.३) स्वयं वापि यजेद्ब्रह्मा सवितारं दिनेदिने । पाकयज्ञविधानेन मन्त्रश्चात्र विषासहिम् ॥
(३१,६.४) शान्तिकामो यवैः कुर्यात्तिलैः पापापनुत्तये । समिद्भिः सर्वकामस्तु बिल्वैः प्राप्नोति काञ्चनम् ॥
(३१,६.५) लभते श्रियमग्र्यां तु पद्मैस्तेजो घृतेन तु । दध्ना तु लभते पुत्रान् पयसा ब्रह्मवर्चसम् ॥
(३१,७.१) हविष्यभोजिनो दान्ताः शुक्लाम्बरधरास्तथा । हावका नियताः सर्वे भवेयुर्ब्रह्मचारिणः ॥
(३१,७.२) आरण्यमुपयुञ्जानः पयसा वापि वर्तयेत् । फलाहारोऽपि वा ब्रह्मा कोटिहोमं समाचरेत् ॥
(३१,७.३) प्रत्येकं चैव होतॄणां दातव्या दक्षिणा ततः । निष्को अश्वो गौर्वासश्च हिरण्यं वापि शक्तितः ॥
(३१,७.४) यश्चैवापि भवेद्ब्रह्मा प्रयोक्ता सर्वकर्मणाम् । सर्वस्वं तस्य देयं स्याद्धिरण्यं वापि तत्समम् ॥
(३१,७.५) कोटिहोमे समाप्ते तु यजेद्ग्रहगणान् बुधः । कारयेदमृतां चैव घृतकम्बलमेव च ॥
(३१,८.१) कार्यामृता मृत्युभये घृतकम्बलसंयुता । परचक्रागमे त्वैन्द्री घृतकम्बल[म्] एव च ॥
(३१,८.२) रौद्री सर्वाद्भुतोत्पत्तौ घृतकम्बलसंयुता । [सलिला सलिलक्षये घृतकम्बल एव च ॥]
(३१,८.३) घृतकम्बलपृष्ठा च सलिला सलिलक्षये । येनयेन तु कामेन कोटिहोमं प्रयोजयेत् ॥
(३१,८.४) आम्नातं तत्र यत्कर्म तदन्ते कारयेद्बुधः । एष एव विधिर्दृष्टो अभिचारे विधीयते ॥
(३१,८.५) प्रतिलोमयात्र होमः सावित्र्या तिलसर्षपैः । आरम्भं तस्य घोरेषु नक्षत्रेषु दिनेषु च ॥
(३१,८.६) कारयेत्कृष्णपक्षस्य तिथिछिद्रेषु सर्वदा । मघाश्लेषा तथा मूलं रेवत्यार्द्रा च सर्वदा ॥
(३१,९.१) दर्भार्थे तु शरान् कुर्याद्घृतार्थे तैलमुच्यते । स्वाहाकारे तु फट्कारो वेण्याद्याः स्युश्चतुर्दश ॥
(३१,९.२) चाण्डालाग्नौ चिताग्नौ वा सूतिकाग्नावथापि वा । हावयेद्घोरवृक्षाणां समिधस्तैलसंयुताः ॥
(३१,९.३) रक्तोष्णीषी रक्तवासाः कृष्णाम्बरधरोऽपि वा । जुहुयाद्वामहस्तेन समिधो दक्षिणामुखः ॥
(३१,९.४) खादिराग्नौ मधूच्छिष्टे कृत्वा प्रतिकृतिं रिपोः । तापयेत्प्रतिलोमां तु सावित्रीं मनसा जपेत् ॥
(३१,९.५) कण्ठे शूलार्पितां कृत्वा तापयेत्तु दिनेदिने । यावच्छत्रुर्वशं याति विलीनायां विनश्यति ॥
(३१,१०.१) एवंप्रोक्तविधानेन कोटिहोमस्य शंकरः । प्रीतिमानुच्यते येन तच्छुभं भौतिकं ददौ ॥
(३१,१०.२) अथर्वा भौतिकं लब्ध्वा शिष्येभ्यस्तत्पुनर्ददौ । शुभं मोक्षकरं पुण्यं प्रियं पशुपतेर्व्रतम् ॥
(३१,१०.३) एतज्ज्ञात्वा तु यः सम्यक्कोटिहोमं प्रयोजयेत् । सर्वान् कामानवाप्नोति ब्रह्मलोकं स गच्छति ॥
(३१,१०.४) यस्त्विमं श्रावयेद्विद्वान् पठते चैव सर्वदा । कोटिहोमफलं लब्ध्वा रुद्रलोके महीयते ॥
(३१,१०.५) गोपथात्पाणिनेयाय मध्ये नॄणां प्रमोदिनाम् । हितार्थमुद्धृतो ग्रन्थः कोटिहोमस्तु विश्रुतः ॥
(७०,४.३) दिव्याद्भुतेषु कर्तव्यः कोटिहोमसमन्वितैः । गोसहस्रं च दातव्यं गुरवे दक्षिणाविधिः ॥
(७०,४.४) एष प्रोक्तो विधिः सम्यग्दिव्यानिष्टविपत्करे । सुभिक्षक्षेमसंपत्त्या प्रजानां पुष्टिवर्धनः ॥
(७०,४.५) कोटिहोमेषु सर्वेषु द्रव्यभेदाश्रयं फलम् । शान्तिपुष्ट्यभिचारार्थं तन्मे निगदतः शृणु ॥
(७०,४.६) सौम्यवृक्षाश्रयाः कार्याः समिधः शान्तिमिच्छता । अर्ककाश्मर्यनिम्बानां समिद्भिः शत्रुशातनम् ॥
(७०,४.७) दुर्नामकण्टकम्बूनां समिद्भिश्च विशेषतः । भग्नस्फुटितवृक्षाणां फलं शत्रुनिबर्हणम् ॥
(७०,४.८) बिल्वपद्मोत्पलानां तु शुचिदेशप्ररोहिणाम् । सर्वदा सर्वकामांस्तु होमैः प्राप्नोति मानवः ॥
(७०,४.९) तिलव्रीहियवादीनां दध्नो मधुघृतस्य च । पयोगोधूमशालीनां होता शान्तिं समारभेत् ॥
(७०,४.१०) सर्वेषां हविषां चैव घृतं शान्तिकरं स्मृतम् । सर्वद्रव्ये घृतं तस्माद्धोमे प्रक्षेपमर्हति ॥
(७०,५.१) यज्ञोपवीतिना कार्यं शान्तिकर्म विपश्चिता । उपवीतं तु पित्र्येषु सर्वेष्वेव समारभेत् ॥
(७०,५.२) मध्वाज्यदधिदुग्धेषु भक्ष्यमाणे विलेपने । यन्त्रवाहनशस्त्रेषु भवनेष्वायुधेषु च ॥
(७०,५.३) दर्पणे भक्तपात्रे च मणिमुक्ताफलेषु च । भूषणेषु तथान्येषु शय्यायामासनेषु च ॥