KRIKALAASA

There is a famous story in puraanic texts that King Nriga redonated a cow to a Brahmin by mistake and for this sin he had to become a lizard/ krikalaasa in a well. The water of the well dried because this lizard plugged the source of water in the well. Then one day lord Krishna took this lizard out of the well and the lizard regained his earlier form of king Nriga. Puraanic texts remain so secretive about the hidden meanings of words that they have not openly disclosed the meaning of this word. But one book Lakshmi Narayana Samhita, which does not fall under the category of puraanic texts, has indirectly disclosed the meaning – and the disclosure is in the root form karka or karki. Root krika or karka are connected with reverberations of a central sound. This central sound is called Shruti and the reverberations are called Smriti. All our life proceeds with smriti because we have lost the capability of Shruti. Karka is also the name of a constellation which is called Cancer in English. And the disease cancer is connected with some disorder in reproduction of exact copies of the cells. So this is also a disorder of smriti. It seems that the meaning of the story of king Nriga is that even this power of reverberation has to remain active. Going deep in the well may mean going into oblivion, going into unconsciousness mind.

Yaska, the legendry figure for interpretation of vedic words , has rightly interpreted word krikawaaku as anuwaada/reverberation in his book Nirukta.

Krikal word also happens to be second of the five sub-praanas. This is said to be responsible for senses of touch, for hunger etc. This praana is supposed to reside in a pipe in the body called Alambushaa nadi. Alambushaa probably means which is not fresh, rotten.

 

कृकलास

टिप्पणी : कृकल शब्द को कर्क शब्द के आधार पर समझने का प्रयत्न किया जा सकता है। ज्योतिष शास्त्र में कर्क/कर्कट चतुर्थ राशि का नाम है जिसे अंग्रेजी भाषा में कैंसर कहते हैं। और कैंसर रोग का नाम भी है। कैंसर रोग इस कारण से होता है कि हमारे शरीर में जो नई कोशिकाएं उत्पन्न होती रहती हैं, उनमें समरूपता खोई जाती है, रुग्ण कोशिकाओं का रूप स्वस्थ कोशिकाओं से भिन्न होता है। यों तो रुग्ण कोशिकाएं सर्वदा उत्पन्न होती रहती हैं, लेकिन जब चेतना शक्ति कमजोर पडने से रुग्ण कोशिकाओं का वर्चस्व हो जाता है तो कैंसर रोग हो जाता है।

कृकल और कृकलास के सम्बन्ध में अधिकांश में हमें पुराणों द्वारा प्रदत्त सूचनाओं पर ही निर्भर करना पडेगा । कृ धातु विक्षेप के अर्थ में आती है । पुराणों में कृकल प्राण के कारण स्पर्श तत्त्व तथा क्षुधा के उदित होने के उल्लेख हैं । ऐसा हो सकता है कि देह में जो कण्डू / खुजली आदि उत्पन्न होती हैं, वह इस विक्षेप का ही परिणाम हों । इसके अतिरिक्त, कृकल प्राण के अलम्बुषा नाडी में स्थित होने का उल्लेख यह संकेत करता है कि यह प्राण बासी ऊर्जा से उत्पन्न होता है, वह ऊर्जा जो अपने पथ से भ्रष्ट होकर इधर - उधर भटक गई है(द्रष्टव्य : अलम्बुषा शब्द पर टिप्पणी) । नृग के कृकलास बनने की कथा में नृग द्वारा दान की गई गौ को पुनः दान देने से भी यह संकेत मिलता है कि उसने किसी प्रकार से बासी ऊर्जा का उपयोग किया है । पद्म पुराण में सुकला और कृकल की कथा यह संकेत करते हैं कि कृकल प्राण तीर्थ यात्रा करने के चक्कर में भटकता फिरता है, लेकिन वास्तव में उसको आत्मकेन्द्रित सुकला की शरण लेने की आवश्यता है । शतपथ ब्राह्मण १४.४.३.२२ में अमावास्या के संदर्भ में कहा गया है कि १६ कलाओं वाले संवत्सर पुरुष में आत्मा नाभि की भांति है जो १६वी कला है और १५ कलाएं इसका वित्त हैं जो परिधि हैं । अमावास्या होने पर १६वी कला रूपी आत्मा प्राणों को प्राप्त होती है और इस समय कृकलास की भी हिंसा न करे । इसका अर्थ यह हुआ कि कृकलास रूपी विक्षिप्त प्राण को भी १६वी कला रूपी आत्मा की आवश्यकता पडती है । हो सकता है कि कृष्ण द्वारा कृकलास के उद्धार की कथा के माध्यम से शतपथ ब्राह्मण के इसी कथन की व्याख्या की गई हो । पुराणों में रावण के भय से निधियों के स्वामी कुबेर के कृकलास बनने के कथन की व्याख्या में भी शतपथ ब्राह्मण का यह कथन उपयुक्त हो सकता है । नृग के कृकलास बनकर कूप में गिरने की कथा में यह ध्यान देने योग्य है कि कृकलास कूप में जल निकलने के छिद्र को रोके पडा है जिसके कारण कूप शुष्क है । कृकलास प्राण का उद्धार हो तो कूप से जल निकलेगा ।

          ऋग्वेद ८.९१ सूक्त अपाला आत्रेयी ऋषिका का है जो अपने कुष्ठ को दूर करने के लिए इन्द्र से प्रार्थना करती है । इन्द्र उसको रथ के छिद्र से, अनः के छिद्र से और युग के छिद्र से निकालता है और वह रूपवती हो जाती है । जैमिनीय ब्राह्मण १.२२१ के अनुसार पहली बार त्यक्त त्वचा से गोधा, दूसरी बार से कृकलासी तथा तीसरी बार से संश्लिष्टिका उत्पन्न हुई । बृहद् देवता ६.१०६ के अनुसार प्रथम बार से शल्यक्, दूसरी बार से गोधा तथा तीसरी बार से कृकलासी उत्पन्न हुई । ऋग्वेद १०.८५.१० में सूर्या के विवाह के संदर्भ में मनोमय कोश को सूर्या की अनः(गाडी) कहा गया है ।

प्रथम लेखनः- १७.१०.२००७ई.

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