In Sanskrit language, word khanda means a part and Khaandava means ‘like divided in parts’. In vedic literature, there are references of three or four types of sacrifices which are performed at the place Khaandava. These indicate that khanda is one which is not joined with it’s superior part. J.A.Gowan has termed it as lack of symmetry. This lack of symmetry appears to have been indicated by the name of a king named Asamaati in one reference. Vedic literature universally describes attainment of this symmetry by expanding our physical faculties like ear, nose, eyes to the level of whole universe. For example, eyes should be expanded to the level that these become the sun.

 

खाण्डव का वैदिक स्वरूप

- विपिन कुमार

वैदिक साहित्य में खाण्डव/खाण्डव प्रस्थ में तीन प्रकार के यज्ञों के उल्लेख मिलते हैं । बौधायन श्रौत सूत्र १७.१८ में खाण्डव प्रस्थ में सर्पों के यज्ञ का उल्लेख है जिसमें जर्वर सर्प यजमान बना, धतृराष्ट्र  ब्रह्मा, विशाल - पुत्र तक्षक ब्राह्मणाच्छंसी ऋत्विज बना आदि । इस यज्ञ में विष का दोहन किया जाता है और कहा गया है कि यही कारण है कि सर्पों के दंष्ट्र में विष होता है । जो इस यज्ञ का अनुष्ठान करता है, उसे सर्प विष से भय नहीं होता । तैत्तिरीय आरण्यक ५.१.१ में देवों के एक यज्ञ का उल्लेख है जिसमें कुरुक्षेत्र को वेदी बनाया गया । इस वेदी का खाण्डव दक्षिणार्द था तथा तूर्घ्न उत्तरार्द । इस यज्ञ से यश ने पलायन किया । देवों ने उसको पकडा । उसका सव्य भाग धनु बना और दक्षिण भाग इषु बन गया ( यह यज्ञ प्रवर्ग्य के संदर्भ में है । आगे के वर्णन में धनु की ज्या को वमि|यां/उपदीका काट डालती हैं आदि ) । शाट्यायनि ब्राह्मण में राजा असमाति के खाण्डव प्रस्थ में किए गए यज्ञ का विवरण प्राप्त होता है । शाट्यायनि ब्राह्मण अब लुप्त है लेकिन सायणाचार्य ने ऋग्वेद १०.५७ के अपने भाष्य में इसको पूर्णतः उद्धृत किया है । इसके अतिरिक्त, जैमिनीय ब्राह्मण ३.१६८ में भी ऋग्वेद के इस सूक्त की विवेचना मिलती है । इन विवेचनाओं के अनुसार राजा असमाति ने खाण्डव प्रस्थ में अपने यज्ञ को आरम्भ किया और उसमें गोपायन के चार पुत्रों बन्धु, सुबन्धु, श्रुतबन्धु व विप्रबन्धु नामक चार भ्राताओं को अपना ऋत्विज बनाया । इस बीच मायावी असुरों किलात व आकुली ने अपनी माया से राजा को मोहित कर दिया । तब राजा ने बन्धु आदि भ्राताओं का त्याग करके इन असुरों को अपना ऋत्विज नियुक्त कर दिया । इस पर गौपायन - भ्राताओं ने अपनी आहुतियों से राजा को तपाना आरम्भ किया । तब असुर - द्वय ने सुबन्धु के प्राणों का हरण करके उसे अग्नि की अन्त: परिधि में रख दिया । सुबन्धु मृत हो गया । सुबन्धु के अन्य तीन भ्राता उसके असु/प्राणों की खोज करते हुए राजा असमाति के पास पहुंचे और अग्नि की वरूथ्य अग्नि के रूप में स्तुति की ( ऋग्वेद ५.२४.१) । अग्नि ने सुबन्धु के प्राणों को वापस कर दिया । ऋग्वेद १०.५८ सूक्त गौपायन भ्राताओं द्वारा सुबन्धु के मन का, जो (खण्डित होकर? )ब्रह्माण्ड में विलीन हो गया था, पुनः आवर्तन करने के संदर्भ में है । सूक्त १०.५९ पाप की देवी निर्ऋति से दूर चले जाने तथा सुबन्धु के असु, प्राण, चक्षु, भोग, स्वस्ति आदि का आवर्तन करने आदि के संदर्भ में है । इसी सूक्त में जरिता शब्द २ बार तथा जरिमा शब्द एक बार प्रकट हुआ है । जरिता से निर्ऋति दूर जाती है ?

          ऋग्वेद के उपरोक्त सूक्तों से मिलता हुआ वर्णन दर्भ - पुत्र केशी व उद्भरि - पुत्र खण्डिक के संवाद ( शतपथ ब्राह्मण ११.८.४.१) में भी मिलता है । इस वर्णन के अनुसार शार्दूल ने केशी दार्भ्य की कामदुघा धेनु को मार डाला । इसका प्रायश्चित्त पूछने के लिए केशी खण्डिक के पास गया । खण्डिक ने उत्तर दिया कि दूसरी धेनु का वरण करके उसकी चक्षु आदि इन्द्रियों को बृहत् रूप देने की प्रार्थना की जाए, उदाहरण के लिए, उसके चक्षु सूर्य में विलीन हो जाएं, मन चन्द्रमा में, श्रोत्र दिशाओं में आदि ।

          यह अन्वेषणीय है कि खण्ड और काण्ड में कोई परस्पर सम्बन्ध है या नहीं । गोपथ ब्राह्मण १.२.९ में अथर्ववेद/ब्रह्मर्च के काण्डों की तुलना ओषधि - वनस्पतियों के काण्डों से की गई है । उल्लेखनीय है कि केवल अथर्ववेद के विभिन्न अध्यायों को काण्ड कहा जाता है । इसके अतिरिक्त, वैदिक साहित्य में सार्वत्रिक रूप से काण्डात् काण्डात् प्ररोहन्ती इत्यादि का उल्लेख आता है ।

गौपायन बन्धुओं के संदर्भ में डा. फतहसिंह के विचार :

(क) शरीर और प्राणमय कोश बन्धु हैं क्योंकि प्राणमय कोश अन्नमय कोश से बंधा हुआ है । यदि मनोमय कोश सु अर्थात् ब्रह्मज्योति से जुड जाए, तब यह बन्धु से सुबन्धु बन जाता है । यही विज्ञानमय कोश में जाने पर श्रुतबन्धु हो जाता है और आनन्दमय कोश में जाने पर विप्रबन्धु हो जाता है ।

(स) अगस्त्य - पत्नी लोपामुद्रा( ऋग्वेद १०.६०.६ की ऋषिका के रूप में अगस्त्य - स्वसा व गौपायन बन्धुओं की माता का उल्लेख है ) के चार पुत्र हैं - बन्धु( प्राणमय कोश), सुबन्धु( मनोमय कोश), श्रुतबन्धु( आध्यात्मिक ज्ञान से सम्पन्न ) और विप्रबन्धु( विप्र नामक आनन्द वृत्ति में लीन मन ) । ये चारों नारायण की सन्तान हैं । नारायण का एक नाम गोपा( रक्षक) है, अतः इन्हें गौपायन कहा जाता है । नर/व्यक्ति की विविध शक्तियां जिस नारायणी शक्ति में लीन होती है, उसका नाम लोपा है । वही नारायण की पत्नी लोपा है । अतः इन चारों को लौपायन भी कहा जाता है । यदि अन्नमय से सम्बद्ध बन्धु, विज्ञानमय कोश से सम्बद्ध श्रुतबन्धु और आनन्दमय कोश की विपन्यया बुद्धि से सम्बद्ध विप्रबन्धु एक होकर मानव व्यक्तित्व को अग्नि और इन्द्र के सहयोग से अक्षुण्ण रख लेते हैं तो न केवल सुबन्धु( मन) ही असमाति राजा रूपी अहंकार और उससे जुडे राग - द्वेष( आख्यान में किलात - आकुली असुर पुरोहित ) से सुरक्षित बच जाता है, अपितु अहंकार का भी कायापलट हो जाता है । वह नारायणी शक्ति रूपी लोपा की प्रेरणा से चारों बन्धुओं को वैराग्य - भक्ति रूपी रोहित अश्वों से भी युक्त कर लेता है ( ऋग्वेद १०.६०.६) । राग - द्वेष दिव्य सु से जुडे मन ( सुबन्धु ) का प्राण लेने में समर्थ हैं ।

 - वेद सविता, नवम्बर १९८२ से साभार उद्धृत )

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