An attempt will be made here to explain what compassion may be in terms of vedic and puraanic texts. There is a verse in Bhaagavata puraana 11.2.46 which states that one should have love in God, friendship in his devotees, compassion(kripaa) in those which are scattered and equanimity in those who despise. The importance of this verse is for two reasons. One, it is quite similar to the four noble principles prevalent in today's Buddhism. Second, it may throw light on the manta of Raadhaavallabha sect which states that Victory for Raadhaavallabh, victory for Harivamsha, victory for Vrindaavana and victory for Vanachandra. It can be assumed that the four words of Raadhaavallabha sect are the four noble principles of Bhaagavata puraana. Here the question arises how Vrindaavana can be equated with compassion? In terms of modern language, karunaa/compassion is taken as if someone has bestowed favour on someone. But a devotee takes word kripaa in the sense that whatever event is taking place in his life, whether he likes it or not, it is a compassion from the side of God. Therefore, the sphere of kripaa starts from Vrindaa, the daughter of Kaalanemi becoming the wife of demon Jalandhara and subsequently the formation of Vrindaavana at the place of penances of Vrinda, the daughter of king Kedaara.

The root meaning of Krip is luminescence and empowering. Empowering word may be understood in terms of entropy of modern sciences. If the entropy or degree of disorder of a system increases, the energy of that system gradually becomes useless for taking some useful work out of it. This fact is strengthened from the other word associated with Kripaa - Baalisheshu. In vedic literature, Vaala is symbolic of that energy which has scattered, like the sphere of light surrounding the rising sun. This supposedly useless energy has to be made usable. How this can be done? One verse of rigveda states that Vala made compassion on cows by Brihaspati, the lord of vast intelligence. This may mean that the energy which was associated with Vala, the sphere of scattered light around rising sun, has been used up to strengthen the state of cow, or the state of sun at noon. The words like  Vala, Vaalakhilya, Bala, Baali etc. all seem to convey the same meaning. In addition, demons like Jalandhara may also be placed in the same category.

 According to vedic literature, Varuna is the deity who presides over the wisdom of false or true. He filters out sins from pious acts. The fact of Varun being associated with Kripaa/compassion is strengthened by the mention in puraanic texts of king Harishchandra begetting his son Rohita by compassion from Varuna. If Varuna is accepted as the deity of compassion, then yagas associated with Varuna, such as Raajasuuya etc. broaden the scope of compassion.

          There is a story in Mahaabhaarata according to which the semen of a sage got scattered on Shara, a type of grass. One boy and one girl were born out of it. King Shantanu brought them up. Therefore, the name given to them was Kripa and Kripi. The crux of this story lies in word Shara. The preliminary form of Shara is Kshara, that which is likely to get decayed. This again indicates the similarity of the word with Baalisheshu.

 

कृपा

टिप्पणी : भागवत पुराण ११.२.४६ का श्लोक है :

ईश्वरे तदधीनेषु बालिशेषु द्विषत्सु च । प्रेम मैत्री कृपोपेक्षा यः करोति स मध्यमः ।।

इसका अर्थ है कि ईश्वर में प्रेम, उसके आधीन भक्तों में मैत्री, बालिशों में कृपा और द्वेषियों में उपेक्षा अपेक्षित है । इस श्लोक का महत्त्व इसलिए अधिक हो जाता है कि यह वर्तमान काल में बौद्ध मतावलम्बियों में प्रचलित सिद्धान्त मैत्री, करुणा, मुदिता, उपेक्षा के बहुत समीप है । इस श्लोक में बालिश का अर्थ वैदिक साहित्य के अनुसार वाल, बिखरी हुई ऊर्जा, अव्यवस्थित ऊर्जा से लिया जा सकता है । लौकिक भाषा में कृपा से तात्पर्य करुणा, अनुग्रह लिया जाता है । लेकिन कृपा का एक दूसरा पक्ष भी है । कोई घटना कितनी भी प्रिय लगे या कितनी भी अप्रिय, एक आस्तिक व्यक्ति का उत्तर यही होता है कि इस अप्रिय घटना में भी ईश्वर की कोई कृपा होगी । वैदिक व पौराणिक साहित्य में यही अर्थ अधिक उपयुक्त बैठता है । पुराणों व ब्राह्मण ग्रन्थों में राजा हरिश्चन्द्र की एक कथा आती है कि उन्होंने वरुण देवता की कृपा से रोहित पुत्र की प्राप्ति की ( ऐतरेय ब्राह्मण ७.२४ में कृपा शब्द नहीं आता ) । इसके पश्चात् वरुण ने मांग की कि पुत्र द्वारा मेरा यजन करो । हरिश्चन्द्र ने आनाकानी की तो उन्हें जलोदर रोग हो गया । रोहित जंगल में भाग गया और वहां वह ६ संवत्सर तक विचरण करता रहा । प्रत्येक संवत्सर के अन्त में इन्द्र ने आकर रोहित को उपदेश दिया और सातवें संवत्सर में रोहित ने पशुबलि हेतु शुनःशेप का क्रय किया । इस कथा को यहां उद्धृत करने का तात्पर्य यही है कि पुराणों में कृपा का कार्य मुख्यतः वरुण देवता पर आरोपित किया गया है । डा. फतहसिंह के अनुसार वरुण सत्यानृत विवेक के देवता हैं । वह सत्य और अनृत के बीच निर्णय करते हैं ( दूसरी ओर मित्र ज्ञान के देवता हैं जो सदैव प्रिय ही  करते हैं, ऐसा समझा जाता है ) । कृपा शब्द को वरुण देवता से सम्बद्ध कर देने पर कृपा का क्षेत्र विस्तृत हो जाता है । वरुण देवता से सम्बन्धित राजसूय यज्ञ के क्रियाकलापों को भी कृपा के संदर्भ में सोचना पडेगा ।

           वेद मन्त्रों में कृपा का अर्थ सामर्थ्य, दीप्ति आदि लिया गया है । कृप् धातु सामर्थ्य अर्थ में आती है । इसका तात्पर्य होगा कि जो ऊर्जा अव्यवस्थित हो गई है, उसमें व्यवस्था उत्पन्न करना है । आधुनिक विज्ञान की भाषा में ऊर्जा के अव्यवस्थित होने के तथ्य को एण्ट्रांपी में वृद्धि कहा जाता है । एक वेद मन्त्र में उल्लेख आता है कि बृहस्पतिना अकृपयन् वलो गा:, अर्थात् बृहस्पति द्वारा वल ने गायों को कृपा युक्त किया । परोक्ष रूप से इसका अर्थ यह लिया जा सकता है कि वल स्तर से, अवि स्तर से गौ स्तर की पुष्टि की जा रही है । अवि स्तर उदित हो रहे सूर्य की अवस्था है जबकि गौ स्तर मध्याह्न काल के सूर्य की अवस्था जहां प्राण सबसे अधिक जाग्रत रहते हैं । वल, वालि, वालखिल्य, बलि, बालि आदि शब्द भागवत पुराण के बालिशः शब्द के निकटतम हैं और यह विचारणीय है कि इन शब्दों के पौराणिक चरित्रों में कृपा किस प्रकार परिलक्षित होती है ।

          महाभारत तथा पुराणों में कृप व कृपी की उत्पत्ति सत्यधृति के शर पर स्खलित वीर्य से कही गई है । राजा शन्तनु ने कृपापूर्वक इनका पालन किया, इसलिए इनका नाम कृप व कृपी पडा । इस कथा में शर शब्द ध्यान देने योग्य है । शर का साधारण अर्थ सरकण्डा होता है । लेकिन शर शब्द का पूर्व रूप क्षर होता है । अतः यह कहा जा सकता है कि मनुष्य की जो ऊर्जा, तेज क्षरित हो रहा है, उसका उपयोग तनू के शम् के लिए किया जा सकता है । पाण्डवों ने स्वर्गारोहण करते समय परीक्षित् को कृपाचार्य के हाथों में सौंपा था । परीक्षित् की निरुक्ति भी परि - क्षित् परितः बिखरी हुई ऊर्जा के रूप में की जा सकती है । यह उल्लेखनीय है कि परीक्षित् का जन्म भी गर्भ में अश्वत्थामा के अस्त्र से भस्म होने के पश्चात् श्रीकृष्ण की कृपा से हुआ था । इस संदर्भ में कृपा का क्या अर्थ होगा, यह अन्वेषणीय है ।

           राधावल्लभ सम्प्रदाय के मन्त्र ( जय राधावल्लभ जय हरिवंश । जय वृन्दावन जय वनचन्द्र ।।)  में ऐसा प्रतीत होता है कि भागवत के श्लोक प्रेम, मैत्री, कृपा व उपेक्षा का ही समावेश किया गया है । प्रश्न यह है कि क्या वृन्दावन का कृपा से कोई सम्बन्ध है ? जलन्धर व वृन्दा की कथा में जलन्धर को भी परिक्षित् ऊर्जा कहा जा सकता है । इस ऊर्जा का उपयोग कालनेमि - कन्या वृन्दा जलन्धर की भार्या बनकर करती है । ( द्र. वृन्दा व जलन्धर पर टिप्पणियां ) । कालान्तर में वृन्दा भस्म हो जाती है और जलन्धर का तेज भी शिव में विलीन हो जाता है । फिर वृन्दा केदार - पुत्री के रूप में उत्पन्न होकर वृन्दावन में कृष्ण की पति रूप में प्राप्ति के लिए तप करती है । वृन्दा राधा की सखी का नाम भी है । कहा जा सकता है कि कृपा का क्रम कालनेमि - पुत्री व जलन्धर - भार्या वृन्दा से आरम्भ होकर वृन्दावन पर समाप्त होता है ।

 

आ॒स्नो वृक॑स्य॒ वर्ति॑काम॒भीके॑ यु॒वं न॑रा नासत्यामुमुक्तम्। उ॒तो क॒विं पु॑रुभुजा यु॒वं ह॒ कृप॑माणमकृणुतं वि॒चक्षे॑॥ - ऋ. १.११६.१४

अ॒ग्निं होता॑रं मन्ये॒ दास्व॑न्तं॒ वसुं॑ सू॒नुं सह॑सो जा॒तवे॑दसं॒ विप्रं॒ न जा॒तवे॑दसम्। य ऊ॒र्ध्वया॑ स्वध्व॒रो दे॒वो दे॒वाच्या॑ कृ॒पा। घृ॒तस्य॒ विभ्रा॑ष्टि॒मनु॑ वष्टि शो॒चिषा॒  ऽऽजुह्वा॑नस्य स॒र्पिषः॑॥ - ऋ. १.१२७.१

तं य॑ज्ञ॒साध॒मपि॑ वातयामस्यृ॒तस्य॑ प॒था नम॑सा ह॒विष्म॑ता दे॒वता॑ता ह॒विष्म॑ता। स न॑ ऊ॒र्जामु॒पाभृ॑त्य॒या कृ॒पा न जू॑र्यति। यं मा॑त॒रिश्वा॒ मन॑वे परा॒वतो॑ दे॒वं भाः प॑रा॒वतः॑॥ - ऋ. १.१२८.२

आ यू॒थेव॑ क्षु॒मति॑ प॒श्वो अ॑ख्यद् दे॒वानां॒ यज्जनि॒मान्त्यु॑ग्र। मर्ता॑नां चिदु॒र्वशी॑रकृप्रन् वृ॒धे चि॑द॒र्य उप॑रस्या॒योः॥- ऋ. ४.२.१८

त्वे॒षस्ते॑ धू॒म ऋ॑ण्वति दि॒विषञ्छु॒क्र आत॑तः। सूरो॒ न हि द्यु॒ता त्वं कृ॒पा पा॑वक॒ रोच॑से॥ - ऋ. ६.२.६

पा॒व॒कया॒ यश्चि॒तय॑न्त्या कृ॒पा क्षाम॑न् रुरु॒च उ॒षसो॒ न भा॒नुना॑। तूर्व॒न् न याम॒न्नेत॑शस्य॒ नू रण॒ आ यो घृ॒णे न त॑तृषा॒णो अ॒जरः॑॥ - ऋ. ६.१५.५

निर्यत् पू॒तेव॒ स्वधि॑तिः॒ शुचि॒र्गात् स्वया॑ कृ॒पा त॒न्वा॒३॑ रोच॑मानः। आ यो मा॒त्रोरु॒शेन्यो॒ जनि॑ष्ट देव॒यज्या॑य सु॒क्रतुः॑ पाव॒कः॥ - ऋ. ७.३.९

उदु॑ तिष्ठ स्वध्वर॒ स्तवा॑नो दे॒व्या कृ॒पा। अ॒भि॒ख्या भा॒सा बृ॑ह॒ता शु॑शुक्वनिः॑॥ - ऋ.८.२३.५

य॒ज्ञेभि॒रद्भु॑तक्रतुं यं कृ॒पा सू॒दय॑न्त॒ इत्। मि॒त्रं न जने॒ सुधि॑तमृ॒ताव॑नि॥ - ऋ. ८.२३.८

तत्त॑द॒ग्निर्वयो॑ दधे॒ यथा॑यथा कृप॒ण्यति॑। ऊ॒र्जाहु॑ति॒र्वसू॑नां॒ शं च॒ योश्च॒ मयो॑ दधे॒ विश्व॑स्यै दे॒वहू॑त्यै॒ नभ॑न्तामन्य॒के स॑मे॥ - ऋ. ८.३९.४

दवि॑द्युतत्या रु॒चा प॑रि॒ष्टोभ॑न्त्या कृ॒पा। सोमाः॑ शु॒क्रा गवा॑शिरः॥ - ऋ. ९.६४.२८

अनु॑ त्वा॒ रोद॑सी उ॒भे क्रक्ष॑माणमकृपेताम्। इन्द्र॒ यद्द॑स्यु॒हाभ॑वः॥ - ऋ. ८.७६.११

नाके॑ सुप॒र्णमु॑पप्ति॒वांसं॒ गिरो॑ वे॒नाना॑मकृपन्त पूर्वीः। - ऋ. ९.८५.११

तं गाथ॑या पुरा॒ण्या पु॑ना॒नम॒भ्य॑नूषत। उ॒तो कृ॑पन्त धी॒तयो॑ दे॒वानां॒ नाम॒ बिभ्र॑तीः॥- ऋ.९.९९.४

यमा॒सा कृ॒पनी॑ळं भा॒साके॑तुं व॒र्धय॑न्ति। भ्राज॑ते श्रेणि॑दन्॥ - ऋ. १०.२०.३

विश्वे॑ दे॒वा अ॑कृपन्त समी॒च्योर्नि॒ष्पत॑न्त्योः। नास॑त्यावब्रुवन् दे॒वाः पुन॒रा व॑हता॒दिति॑॥- ऋ. १०.२४.५

हि॒मेव॑ प॒र्णा मु॑षि॒ता वना॑नि॒ बृह॒स्पति॑नाकृपयद्व॒लो गाः। अ॒ना॒नु॒कृ॒त्यम॑पु॒नश्च॑कार॒ यात् सूर्या॒मासा॑ मि॒थ उ॒च्चरा॑तः॥- ऋ. १०.६८.१०

इ॒यमे॑षाम॒मृता॑नां॒ गीः स॒र्वता॑ता॒ ये कृ॒पण॑न्त॒ रत्न॑म्। धियं॑ च य॒ज्ञं च॒ साध॑न्त॒स्ते नो॑ धान्तु वस॒व्य१॒॑मसा॑मि॥ - ऋ. १०.७४.३

यद्दे॒वापिः॒ शंत॑नवे पु॒रोहि॑तो हो॒त्राय॑ वृ॒तः कृ॒पय॒न्नदी॑धेत्। दे॒व॒श्रुतं॑ वृष्टि॒वनिं॒ ररा॑णो॒ बृह॒स्पति॒र्वाच॑मस्मा अयच्छत्॥ - ऋ. १०.९८.७

स व्राध॑तः शवसा॒नेभि॑रस्य॒ कुत्सा॑य॒ शुष्णं॑ कृ॒पणे॒ परा॑दात्। अ॒यं क॒विम॑नयच्छ॒स्यमा॑न॒मत्कं॒ यो अ॑स्य॒ सनि॑तो॒त नृ॒णाम्॥ - ऋ. १०.९९.९

जा॒नन्तो॑ रू॒पम॑कृपन्त॒ विप्रा॑ मृ॒गस्य॒ घोषं॑ महि॒षस्य॒ हि ग्मन्। ऋ॒तेन॒ यन्तो॒ अधि॒ सिन्धु॑मस्थुर्वि॒दद्ग॑न्ध॒र्वो अ॒मृता॑नि॒ नाम॑॥ - ऋ. १०.१२३.४

          वैदिक निघण्टु में कृ॒पा॒यति॑ / कृ॒पा, कृ॒प॒ण्यति॑ शब्दों का वर्गीकरण अर्चतिकर्मा शब्दों के अन्तर्गत किया गया है जबकि कृ॒प॒ण्युः शब्द का स्तोतृनामानि में। लेकिन सायणाचार्य द्वारा ऋग्वेद की ऋचाओं का भाष्य करते समय केवल इन्हीं अर्थों से काम नहीं चल पाया, अतः अधिकांश स्थानों पर कृपा का अर्थ कल्पन, स्तुति का कल्पन किया गया है(यह उल्लेखनीय है कि सायणाचार्य के अनुसार वेद मन्त्रों में कृपा शब्द तृतीया विभक्ति का शब्द है जिसका अर्थ होगा कृपा के द्वारा)। प्रतीत होता है कि क्लृप धातु के आधार पर कृपा का अर्थ कल्पन किया गया है। वैसे कल्पन का अर्थ होता है जहां किसी इच्छा या विचार को बिना कार्य किए ही मूर्त रूप दे दिया जाए, कल्प वृक्ष। क्या यह अर्थ पुराणकारों द्वारा कथाओं के माध्यम से किए गए अर्थों के अनुकूल है?  पुराणकारों के अनुसार तो बिखरी ऊर्जा(परि-क्षित् तथा वाल) को केन्द्रीभूत करना कृपा है। यह ध्यान देने योग्य है कि हम अपने किसी विचार को कल्प वृक्ष का रूप क्यों नहीं दे पाते। इसलिए कि हमारी सभी शक्तियां बिखरी हुई हैं। बाहरी मन कुछ और चाहता है, अंतर्मन कुछ और। दैव कुछ और चाहता है, पुरुषार्थ कुछ और। अतः हमारे विचार, इच्छाएं वेद की अर्चनाएं और स्तोत्र नहीं बन पाते। अब देखना यह है कि बिखरी हुई शक्तियों को केन्द्रीभूत करने के लिए वेदमन्त्रों से क्या संकेत मिलते हैं। ऋग्वेद ४.२.१८ के अनुसार मर्त्यों के लिए उर्वशी ने कृपा की, और वह तब जब आयु में अर्य का वर्धन हुआ। डा. फतहसिंह अर्य का अर्थ सामञ्जस्य करते हैं। उर्वशी का अर्थ इस शब्द की टिप्पणी में इस प्रकार किया गया है कि एक पुरू है, एक उरू है। यहां भौतिक विज्ञान का अनिश्चितता का सिद्धान्त लागू होता है। यदि पुरू में वृद्धि होगी तो उरू का ह्रास हो जाएगा, तथा इससे उल्टा भी। उर्वशी को बृहती बुद्धि कह सकते हैं। ऋग्वेद १०.६८.१० में वल द्वारा बृहस्पति के द्वारा गायों का कृपन् करने का उल्लेख है। पुराणों में शन्तनु द्वारा शरद्वान् गौतम के वीर्य से उत्पन्न कृप व कृपी का कृपापूर्वक पालन करने का उल्लेख है लेकिन ऋग्वेद १०.९८.७ में शन्तनु के यज्ञ के होता ऋत्विज देवापि द्वारा शन्तनु पर कृपा करके अमृत वर्षण का उल्लेख है। यह वृष्टि लगता है होता द्वारा अग्नि के समिन्धन के कारण, अग्नि को ऊर्ध्वमुखी बनाने के कारण हुई है। ऋग्वेद ८.७६.११ में प्रार्थना की गई है कि दोनों रोदसियां तेरे ऊपर कृपा करें। यह उल्लेख महत्त्वपूर्ण है क्योंकि इससे संकेत मिलता है कि कृपा दो स्तरों से हो सकती है। ऋग्वेद १०.७४.३ से संकेत मिलता है कि रत्न का उपयोग भी कृपा के लिए, स्तुति के लिए किया जा सकता है। अथवा यों कहें कि स्तुति रत्न बन जाती है। पुराणों में वल असुर की धातुओं के पृथिवी पर पतन से रत्नों की उत्पत्ति कही गई है। इस स्थिति में धी/बुद्धि तथा यज्ञ का साधन करना होता है। लोकभाषा में कृपण का अर्थ कंजूस होता है लेकिन ऋग्वेद की ऋचाओं में यह शब्द स्तोत्र उत्पन्न करने का प्रयत्न करने वाले साधक के रूप में प्रकट हुआ है। ऋग्वेद १०.१२३.४ में उल्लेख है कि विप्र लोग रूप जानते थे, उन्होंने कृपन किया, इससे महिष, मृग का जन्म हुआ(मृग का अर्थ शकुन उत्पन्न करने वाली वाक् ले सकते हैं) और फिर अमृत नामों की सृष्टि की। ऋग्वेद ९.९९.४ में धीतियों द्वारा देवों के नाम द्वारा कृपन का उल्लेख है।

          ऋग्वेद ९.६४.२८ की ऋचा दविद्युतत्या रुचा इति का विनियोग सोमयाग के प्रातःसवन में सार्वत्रिक रूप से किया जाता है और तदनुसार जैमिनीय ब्राह्मण ३.३५ व ताण्ड्य ब्राह्मण ६.९.२५ में इसका विवेचन किया गया है और इस ऋचा के प्रत्येक शब्द को एक विशिष्ट छन्द के साथ सम्बद्ध किया गया है। जैसे दविद्युतत्या रुचा गायत्री छन्द है, परिष्टोभन्ति आ कृपा त्रिष्टुप्, सोमा शुक्रा गवाशिरः जगती। लेकिन ताण्ड्य ब्राह्मण के अनुसार परिष्टोभन्ति त्रिष्टुप है, कृपा अनुष्टुप् और सोमा शुक्रा गवाशिरः जगती। इस प्रकार इस ऋचा में सभी छन्दों का समावेश है।

          वाल्मीकि रामायण में राम द्वारा वालि के वध का विस्तृत वर्णन है। वालि का अर्थ वल असुर, बिखरी हुई ऊर्जा किया जा सकता है। इस कथा को समझने के लिए सोमयाग के पूर्व किए जाने वाली प्रवर्ग्य-उपसद इष्टियों का सहारा लेना होगा। प्रवर्ग्य का अर्थ इस प्रकार लिया जाता है कि सारे शरीर का तेज मुख पर एकत्रित हो जाए। विभिन्न स्तरों पर इसका अर्थ भिन्न-भिन्न प्रकार से किया जा सकता है। प्रवर्ग्य को मुख पर धारण करने के लिए अच्छी ग्रीवा की आवश्यकता होती है। यह कार्य उपसद इष्टि द्वारा किया जाता है। प्रवर्ग्य को राम तथा उपसद को सुग्रीव माना जा सकता है। लेकिन वालि का तो प्रवर्ग्य-उपसद इष्टियों में कहीं उल्लेख ही नहीं आता। यह रामायणकार का अपना पुरुषार्थ है कि उसने एक छिपे हुए तथ्य को कथा के माध्यम से स्पष्ट किया है।

          ब्राह्मण ग्रन्थों व पुराणों में हरिश्चन्द्र द्वारा वरुण की कृपा से रोहित पुत्र प्राप्त करने के उल्लेख आते हैं। इस संदर्भ में कृपा का क्या अर्थ हो सकता है, यह अन्वेषणीय है। 

मूल लेखन - ?

संशोधन - ३.८.२०११ई.(श्रावण शुक्ल चतुर्थी, विक्रम संवत् २०६८)

 

 

ESOTERIC ASPECT OF KRIPAACHAARYA

- Radha Gupta

There is a short story of origin of Kripaachaarya in Mahaabhaarata ( Sambhava parva, chapter 129 shlokas 3-22 ). The story is like this- Sharadwaan Gautama was the son of sage Gautam. As Indra was worried about the great penance being performed by Sharadwaan Gautama,  he sent a divine damsel  named Jaanpadi to disturb him. Sharadwaan was not disturbed but the vice attacked his mind and his semen ejected. It fell on ‘sharastamba’(clump of reed), got divided in two parts from which one boy and one girl were born. King Shantanu  saw them by chance while passing , picked them and out of compassion, looked after them. The boy was named Kripa and girl Kripi. Sharadwaan knew all this by  his  power of penance and delivered the secrets of weapons to his son. Kripa became the teacher of dhanurveda/archery. Kauravaas, Paandavaas and Yaadavaas were his disciples.

This story indicates  the origin and quality of mind. Story seems to be based on a puraanic description, so let us take a look on this description. Supreme consciousness wished to become many from one. As soon as he desired , his hidden power manifested in him. Supreme power made mind and intellect etc. to fulfill the desire but they were not conscious. Supreme consciousness entered in them and they became conscious.

1.      In this story Gautama is a symbol of supreme consciousness. This word is a combination of two words. ‘gau’ means consciousness and ‘tam’ is a suffix which means supreme.

2.      Sharadwaan means one aim and son is the symbol of quality or power of father in puraanic literature. So Sharadwaan Gautama means – single - aimed super consciousness. The aim is –‘I am one and want to be many’.

3.      Jaanpadi (gnaanpadi, literal meaning steps of knowledge) sent by Indra means manifestation of supreme power from supreme consciousness.

4.      After the manifestation of supreme power the universe begins to evolve which is symbolized as the falling of semen.

5.      Sharastamba/clump of reed means basic ingredients made by supreme power. When the supreme consciousness enters in sharastamba, mind, intellect etc. originate.

6.      King Shantanu is the symbol of jeevaatma/egoistic self. Jeevaatma nourishes the mind and intellect.

7.      Kripaachaarya is the teacher of dhanurveda/archery. Dhanu means bow, a base for arrow to hit aim. In the same way mind is the base for concentration to achieve any aim.

8.      Kauravaas and Paandavaas are the different functions of mind . These functions are guided by mind in the earlier stage.

 

 

महाभारत में कृपाचार्य एक विवेचन

-        राधा गुप्ता

महाभारत के सम्भव पर्व अध्याय १२९, श्लोक ३-२२ में कृप व कृपी की उत्पत्ति से सम्बन्धित एक छोटा सा आख्यान है । उसमें कहा गया है कि महर्षि गौतम के शरद्वान गौतम नाम से प्रसिद्ध एक पुत्र थे । उनकी तपस्या की उत्कृष्टता से इन्द्र बहुत चिन्तित हुए और उन्होंने शरद्वान की तपस्या में विघ्न डालने के लिए जानपदी नाम की एक देवकन्या को उनके पास भेजा । महर्षि शरद्वान् तपस्या की प्रबल शक्ति के कारण अपनी मर्यादा में स्थित रहे किन्तु उनके मन में सहसा जो विकार हुआ, उससे उनका वीर्य स्खलित हो गया । वह वीर्य शरस्तम्ब पर गिरकर दो भागों में विभाजित हो गया जिससे एक पुत्र व एक पुत्री की उत्पत्ति हुई । वन में घूमते हुए राजा शन्तनु ने दैवेच्छा से उन्हें देखा और घर पर लाकर कृपापूर्वक लालन पालन किया । कृपापूर्वक पालने से उन दोनों का नाम कृप व कृपी हुआ । कृप थोडे ही समय में धनुर्वेद के आचार्य बन गए । कृप की बहन कृपी द्रोणाचार्य की पत्नी बनी ।

          इस आख्यान में मन बुद्धि की उत्पत्ति से सम्बन्धित गूढ संकेत छिपे हुए हैं । यह आख्यान उस पौराणिक वर्णन पर आधारित है जिसमें कहा गया है कि परब्रह्म परमेश्वर ने एक से बहुत होने की कामना की । उस कामना को पूर्ण करने के लिए परमेश्वर में ही अव्यक्त रूप से स्थित परमेश्वरी शक्ति(प्रकृति) का प्राकट्य हुआ । परमेश्वरी शक्ति ने जड मन बुद्धि आदि का निर्माण किया । परमेश्वर ने उस जड मन बुद्धि में प्रवेश करके उसे चेतनता प्रदान की ।

          महाभारत के उपर्युक्त आख्यान में भी गौतम(गौ-तम) शब्द परब्रह्म परमेश्वर का प्रतीक है । गौ का अर्थ है चैतन्य और तमप् प्रत्यय लगने पर उसका अर्थ होता है उत्कृष्टतम चैतन्य, जिसे परमेश्वर कहते हैं । इन्द्र द्वारा प्रेषित देवकन्या जानपदी(ज्ञानपदी) परमेश्वरी शक्ति के प्राकट्य को इंगित करती है । परमेश्वरी शक्ति या प्रकृति के प्रकट होने पर ही परमेश्वर से सृष्टि बीज का सूत्रपात होता है, जिसे वीर्य स्खलन कहकर सम्बोधित किया गया है । शरस्तम्ब वास्तव में क्षरस्तम्ब है जो दो शब्दों क्षर तथा स्तम्ब से मिलकर बना है । क्षर का अर्थ है विनाशशील अथवा जड तथा स्तम्ब का अर्थ है गुच्छ । अतः क्षरस्तम्ब का अर्थ हुआ प्रकृति निर्मित वह जड उपादान जिससे परमेश्वर की चैतन्य शक्ति या वीर्य का संयोग होने पर दो सन्तानों कृप व कृपी का जन्म हुआ ।

          कृप् धातु का प्रयोग सामर्थ्य के अर्थ में होता है । अतः सामर्थ्य गुण से युक्त होने के कारण कृप व कृपी मन तथा बुद्धि को इंगित करते हैं । देह में स्थित जीवात्म चैतन्य ही मन बुद्धि का पोषक होता है, इसीलिए कहानी में कहा गया है कि राजा शन्तनु द्वारा कृपापूर्वक पोषित होने से उन दोनों का नाम कृप व कृपी हुआ ।

          कृप का अर्थ हो सकता है मन । कृप के धनुर्वेद का ज्ञाता होने का क्या अभिप्राय हो सकता है । धनु कहते हैं धनुष को । धनुष वह आधार है जिस पर बाण को रखकर लक्ष्य का सन्धान किया जाता है । इसी प्रकार मन भी एक ऐसा आधार है जिस पर एकाग्रता रूपी बाण रखकर किसी भी लक्ष्य को प्राप्त किया जाता है । कौरव पाण्डव मन के व्यापारों या वृत्तियों के प्रतीक हैं । मन के व्यापारों को सर्वप्रथम निर्देश मन से ही प्राप्त होता है । इसीलिए महाभारत की कहानी में कृपाचार्य को कौरव पाण्डवों के प्रथम गुरु के रूप में निर्देशित किया गया है ।

 

कृपण

टिप्पणी

पौराणिक साहित्य में कृपण विशेषण किस प्रकार प्रयुक्त हुआ है, यह जानना महत्त्वपूर्ण है। उर्वशी के वियोग में दुःखी पुरूरवा को कृपण कहा गया है(अथैनमुर्वशी प्राह कृपणं विरहातुरम्।। - भागवत ९.१४.४१)। यदि किसी स्त्री को पुत्र की अथवा पति की कामना है तो वह कृपणा है(देवानिष्ट्वा तपस्तप्त्वा कृपणैः पुत्रगृद्धिभिः। दश मासान् परिधृता जायन्ते कुलपांसनाः महाभारत शान्तिपर्व ३३१.१८)। यदि पुरुष को स्त्री की कामना है तो उसे भी कृपण कहा गया है(सोऽपि चानुगतः स्त्रैणः कृपणस्तां प्रसादितुम्। - भागवत ९.१९.९)। यदि प्रजा को राजा से सुरक्षा प्राप्ति आदि की कामना है तो वह कृपणा है(बलात्कृतानां बलिभिः कृपणं बहु जल्पताम्। - महाभारत शान्तिपर्व ८५.१८)  । यदि कोई अपने मृत बन्धुओं के लिए विलाप कर रहा है तो उसे भी कृपण कहा गया है(धृतराष्ट्रं तु शोचामि कृपणं हतबान्धवं महाभारत स्त्रीपर्व १७.८)। दुर्योधन की दृष्टि में भोगों की दुर्लभता होना ही कृपणता है(कथं भुक्त्वा स्वयं भोगान् दत्त्वा दायांश्च पुष्कलान्।। कृपणं वर्तयिष्यामि कृपणैः सह जीविकाम्। - महाभारत शल्यपर्व ५.२४)। ऐतरेय ब्राह्मण ७.१३ में दुहिता को कृपण कहा गया है(सखा ह जाया कृपणं ह दुहिता ज्योतिर्ह पुत्रः परमे व्योमन्।।)।

          कृपणता से बचने के क्या उपाय हैं?  इसका एक उपाय तो प्रज्ञा को प्राप्त करना कहा गया है(तत्र नैवानुतप्यन्ते प्राज्ञा निश्चितनिश्चयाः। कृपणास्त्वनुतप्यन्ते जनाः सम्बन्धदर्शिनः।। - महाभारत शान्तिपर्व २७५.३५)। एक स्थिति ऐसी भी कही गई है जहां बन्धुओं की मृत्यु के कारण कृपणों के रोदन से कृपा की प्राप्ति हो जाती है और मृतक को किसी की कृपा से जीवन प्राप्त हो जाता है(पश्य देवस्य संयोगं बान्धवानां च निश्चयम्।। कृपणानां तु रुदतां कृतमश्रुप्रमार्जनम्। पश्य चाल्पेन कालेन निश्चयान्वेषणेन च।। - महाभारत शान्तिपर्व१५३.११८)। भागवत पुराण ७.१५.२४ में कृपा द्वारा भूत से उत्पन्न दुःख को समाप्त करने के संदर्भ को भी कृपणता को समाप्त करने के रूप में समझा जा सकता है(कृपया भूतजं दुःखं दैवं जह्यात् समाधिना)। अन्यत्र कृपणों पर कृपा उत्पन्न होने को भी १३ दोषों में से एक कहा गया है(कृपणान् सततं दृष्ट्वा ततः संजायते कृपा। धर्मनिष्ठां यदा वेत्ति तदा शाम्यति सा कृपा।। - महाभारत शान्ति १६३.२०)।

          कुछेक संदर्भों में कृपणता को परिभाषित किया गया है, जैसे

एतदेव हि कार्पण्यं समग्रमसमीक्षितम्।

यच्चेत् समीक्षयैव स्याद् भवेत् तस्मिंस्ततो गुणः।। - महाभारत शान्तिपर्व २५२.६। महाभारत अनुशासन पर्व ५१.३८ में कृपण के चक्षु की तुलना सर्प की विषपूर्ण दृष्टि से की गई है-

कृपणस्य च यच्चक्षुर्मुनेराशीविषस्य च। नरं समूलं दहति कक्षमग्निरिव ज्वलन्।।

अन्यत्र

यो वा एतदक्षरमविदित्वा गार्ग्यस्माल्लोकात्प्रैति स कृपणः। अथ य एतदक्षरं गार्गि विदित्वाऽस्माल्लोकात्प्रैति स ब्राह्मणः।। - बृहदारण्यक उपनिषद ३.८.१०

जैसा कि श्रीमती राधा ने उल्लेख किया है, महाभारत में कृप व कृपी का जन्म शरस्तम्ब पर पतित वीर्य के शन्तनु द्वारा रक्षण से हुआ है तथा कि शर का पूर्व रूप क्षर है। यह कहा जा सकता है कि जो शक्ति क्षरित हो रही है, उसका भी सदुपयोग किया जाना है जिससे अक्षर स्थिति को प्राप्त किया जा सके।

भागवत पुराण में कृपण को अजितेन्द्रिय के रूप में परिभाषित किया गया है(दरिद्रो यस्त्वसन्तुष्टः कृपणो योऽजितेन्द्रियः।)।

 

(प्रथम लेखन- ११-८-२०११ई.(श्रावण शुक्ल त्रयोदशी, विक्रम संवत् २०६८)

 

 

 

 

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आचार्य श्रीराम किंकर जी >> कृपा और पुरुषार्थ

          कृपा और पुरुषार्थ     

श्रीरामकिंकर जी महाराज    

पृष्ठ  :    १२५      

मूल्य :    $४.९५                  

प्रकाशक    :    रामायणम् ट्रस्ट                

आईएसबीएन     :    ०००००                  

प्रकाशित   :    मार्च ०३, २०००       

पुस्तक क्रं  :    ४३६२     

मुखपृष्ठ    :    अजिल्द        

 

 

सारांश:

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

।।श्री राम: शरणं मम।।

कृपा शब्द मेरे लिए केवल शब्द मात्र नहीं है। वह ऐसा महामन्त्र है, जिसने मुझे धन्य बना दिया है और उसे बार-बार दुहराते हुए मुझे पुनरुक्ति का बोध ही नहीं होता है। कृपा के साथ मुझे एक शब्द जोड़ना अत्यन्त प्रिय है, जिसे प्रेममूर्ति श्री भरत ने प्रभु के समक्ष कहा था-

नाथ न मोहि संदेह कछु सपनेहु सोक न मोह। केवल कृपा तुम्हारिहिं कृपानंद संदोह।।

कृपा की आवश्यकता किसे नहीं है ? किन्तु सभी सिद्धान्तों में उसके साथ कुछ-न-कुछ जोड़ा ही जाता है। ज्ञानी को ज्ञान-दीप प्रज्वलित करने के लिए जो उपकरण चाहिए उसमें सर्वप्रथम श्रद्धा की आवश्यकता है और वह श्रद्धा की गाय प्रभु की कृपा से ही प्राप्त होती है।

सात्त्विक श्रद्धा धेनु सुहाई। जो हरि कृपा हृदय बस आई।।

पर गाय मिल जाने पर भी उसे सत्कर्म का चारा तो चाहिए ही और यह ज्ञान के साधक को पुरुषार्थ करने के लिए प्रेरित करना है।

कर्म-सिद्धान्त में मनुष्य शरीर की प्राप्ति को भगवत् कृपा के रूप  में ही स्वीकार किया गया है।

कबहुँक कर करुना नर देहि। देही ईस बिन हेतु सनेही।।

भले ही यह मानव शरीर ईश्वर की कृपा से प्राप्त हुआ हो, किन्तु साधन ही उसका मूल लक्ष्य है।

साधन धाम मोक्ष कर द्वाराशक्ति सिद्धान्त में कृपा को सर्वश्रेष्ठ स्थान दिया गया है। किन्तु वहाँ भी साधना की आवश्कता का प्रतिपादन तो किया ही गया है और वह भी स्वयं के श्रीमुख से।

भगति कै साधन कहऊँ बखानी। सुगम पंथ मोहि पावइ प्रानी।।

इसलिए इन तीनों सिद्धान्तों में कृपा और पुरुषार्थ शब्द स्वयं इसी सत्य की ओर इंगित करता है और जब कृपा और पुरुषार्थ पर प्रवचन प्रस्तुत किया जा रहा हो तब केवल कृपाशब्द वहाँ अनुपयुक्त सिद्ध हो सकता है। ऐसी स्थिति में मैं श्री भरतजी महाराज के केवल कृपाशब्द को क्यों इतना अधिक महत्त्व दे रहा हूँ।

यह बड़ी विचित्र-सी बात होगी कि एक ओर तो मैं कृपा के साथ पुरुषार्थ शब्द को अनिवार्य बता रहा हूँ। तब भला केवलशब्द के मेरे इस आग्रह के पीछे एक विशेष कारण है। उसे एक दृष्टान्त के रूप में ही देना चाहूँगा कि मनुष्य के शरीर के साथ जिन-अवस्थाओं का वर्णन किया गया है, उसमें किशोर, युवा, वृद्ध से कुछ-न-कुछ आशा तो की ही जाती है। किन्तु एक अवस्था ऐसी है जहाँ पर उससे कोई आशा नहीं रखी जाती। वह है शिशु-अवस्था

 

अत: यों कह सकते हैं कि माता-पिता की आवश्यकता सभी अवस्थाओं में विद्यमान रहती है, किन्तु बालक के लिए तो केवलशब्द का ही प्रयोग किया जा सकता है। उसे तो केवलमाँ की कृपा ही प्राप्त होती है। वह उस समय की सारी क्रियाओं के लिए माँ पर ही आश्रित है। इस अर्थ में अपने आपको एक ऐसे शिशु के रूप में देखता हूँ जिसके जीवन में केवल प्रभु की कृपा ही सब कुछ है। किन्तु व्यासासन पर बैठकर जो व्याख्या की जाती है, वहाँ पर केवलशब्द सार्थक सिद्ध नहीं होगा क्योंकि तब उपदेश की कोई आवश्यकता ही नहीं रह जाएगी। उपदेश तो कुछ करने की प्रेरणा देने के लिए ही दिया जाता है। इसलिए इस पुरुषार्थ और कृपा के सामंजस्य की बात करना ही युक्तियुक्त है। कृपालु प्रभु ने अपनी कृपा से जिस व्यासासन पर मुझे आसीन किया है, उसमें वही अनिवार्य है जो प्रवचनों में कहा गया है।

 

ग्रन्थ छपने से पहले जो मुझे प्रतीक चिह्न मिला उसमें धनुष बना हुआ था। मैंने उसमें बाण जोड़ने की आवश्यकता समझी, शायद यह धनुष और बाण मेरे लिए कृपा और पुरुषार्थका सबसे श्रेष्ठ प्रतीक है। धनुष कृपा है और बाण पुरुषार्थ। बाण सक्रिय दिखाई देता है। लक्ष्य-भेद भी उसी के द्वारा किया जाता है। इसी में बाण की सार्थकता है। पुरुषार्थ का उद्देश्य भी तो जीवन के लक्ष्य को पूरा करना है और बाण स्वयं अपनी क्षमता से गतिशील नहीं हो सकता उसे तो चलानेवाला योद्धा जिस दिशा में भेजना चाहता है उसी दिशा में प्रेरित कर देता है और पुरुषार्थ के पीछे वह कृपा ही तो है जो व्यक्ति के जीवन में सक्रियता के रूप में दिखाई देती है। इसलिए कृपा के धनुष और पुरुषार्थ के बाण को ही मैंने प्रतीक चिह्न के रूप में चुना।

श्री हनुमानजी की लंका-यात्रा को गोस्वामी तुलसीदासजी ने इसी रूप में देखा। उन्होंने श्री हनुमान जी की तुलना श्री राम के बाण से की।

जिमि अमोघ रघुपति कर बाना। एहि भाँति चलेउ हनुमाना।।

सब कुछ हनुमानजी ही करते हुए प्रतीत हो रहे हैं। इसीलिए जब प्रभु ने उनसे प्रश्न किया कि तुमने लंका जलाने जैसा कठिन कार्य कैसे सम्पन्न किया। तब श्री हनुमानजी ने प्रभु के प्रताप की महिमा की ओर ही संकेत किया-

नाघि सिंधु हाटकपुर जारा। निसिचर गन बधि बिपिन उजारा।।

सो सब तव प्रताप रघुराई। नाथ न कछु मोरि प्रभुताई।।

स्वयं गोस्वामी तुलसीदासजी की विनय-पत्रिका में अनगिनत बार कृपा शब्द का उपयोग किया गया है।

रामकिंकर

आचार्य रामकिंकर जी ने धनुष को कृपा और बाण को पुरुषार्थ मानने का जो प्रस्ताव रखा है, उसकी पुष्टि महाभारत के कृपाचार्य से की जा सकती है जो धनुर्वेद के आचार्य हैं। महाभारत आदि पर्व ६७.७७ में कृप को रुद्रगण के अँश से उत्पन्न तथा अतिपौरुष से युक्त कहा गया है। यह कहा जा सकता है कि जहां भी ऊर्जा का क्षरण हो रहा हो, उसे उपयोगी कार्य में लगाना, पुरुषार्थ करना ही कृपा करना है।

कृपया भूतजं दुःखं दैवं जह्यात् समाधिना।

आत्मजं योगवीर्येण निद्रां सत्त्वनिषेवया।। - भागवत पु. ७.१५.२४

अर्थात् कृपा द्वारा भूत से उत्पन्न दुःख का नाश करे, दैव से उत्पन्न दुःख का समाधि द्वारा नाश करे, आत्मज दुःख को योगवीर्य से और निद्रा  को सत्त्व के सेवन द्वारा। इस श्लोक में भूत से तात्पर्य भूतकाल से, अर्थात् हमारे कर्मों के फल से हो सकता है। दैव से उत्पन्न दुःख को समाधि से नष्ट करने का निर्देश है।

 

 

 

प्रथम लेखनः- २०.८.२००६

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