Puraanic contexts of words like Krityaa, Kritvee, Kripa, Kripaa, Krimi, Krishaanu etc. are given here.


Preliminary remarks on Kripa/Kripaa


कृत्वी पद्म १.९.४०(पीवरी कन्या, पाञ्चालपति पत्नी, ब्रह्मदत्त माता, कृत्ती नाम पाठ),  भागवत ९.२१.२५ ( नीप व शुक - कन्या कृत्वी से ब्रह्मदत्त की उत्पत्ति, भरत वंश ), मत्स्य १४.९(कृत्वी का कीर्तिमती से साम्य; द्र. ब्रह्माण्ड २.३.१०.८२), १५.१-९( बर्हिषद् पितरों की कन्या पीवरी का तप से शुक - भार्या कृत्वी बनने का कथन ), १५९ ( शुक व पीवरी - कन्या, पांचाल नरेश - पत्नी, ब्रह्मदत्त - माता, कृत्वी का अन्य नाम गौ ), हरिवंश १.१८.५३ ( शुकदेव व पीवरी - कन्या, ब्रह्मदत्त - जननी, अणुह - पत्नी ), स्कन्द ७.१.२१२ ( कृत्वीश्वर लिङ्ग का संक्षिप्त माहात्म्य ) । kritvee/ kritvi

 

कृप गर्ग ७.२०.२९ ( प्रद्युम्न व कौरवों के युद्ध में दीप्तिमान् के कृपाचार्य से युद्ध का उल्लेख ), १०.५०.३३ ( विदुर के परामर्श पर कृपाचार्य प्रभृति कौरवों द्वारा श्रीकृष्ण की स्तुति तथा यज्ञाश्व को लौटाना ), देवीभागवत ४.२२.३७ ( देवों के अंश वर्णन में कृपाचार्य के मरुद्गण का अंश होने का उल्लेख ), ब्रह्मवैवर्त्त ४.९६.३६ ( हरिभावना से शुद्ध चिरजीवियों में कृप का उल्लेख ), भागवत ९.२१.३६ ( शरस्तम्ब में पतित शरद्वान् के वीर्य से कृप व कृपी की उत्पत्ति, शन्तनु द्वारा कृपावश बालक व बालिका के पालन से कृपाचार्य व कृपी नाम धारण ), १०.८२.२४ ( स्यमन्तपञ्चक तीर्थ में वसुदेव, उग्रसेन प्रभृति यदुवंशियों द्वारा सत्कृत व्यक्तियों में से एक ), मत्स्य ४.३९ ( ध्रुव - पुत्र शिष्ट व अग्नि - कन्या सुच्छाया के पुत्रों में से एक ), विष्णु ३.२.१७ ( सावर्णि मनु के आठवें मन्वन्तर के सप्तर्षियों में से एक ), ४.१९.६८ ( शरस्तम्ब में पतित सत्यधृति के वीर्य से कृप नामक कुमार तथा कृपी नामक कन्या की उत्पत्ति का उल्लेख ), ४.२१.४ ( कृप द्वारा शतानीक को अस्त्र - शस्त्र प्रदान करने का उल्लेख ), हरिवंश १.३२.३५ ( अहल्या व गौतम के पौत्र सत्यधृति के वीर्य से कृप की उत्पत्ति, शन्तनु द्वारा कृपापूर्वक ग्रहण करने के कारण कृप नाम धारण ) । kripa

 

कृपण भागवत ११.१९.४४ ( अजितेन्द्रिय की कृपण संज्ञा का उल्लेख ), लक्ष्मीनारायण २.२४६.३३ ( कृपण जनों के स्वच्छाया होने का उल्लेख ), कथासरित् १०.५.२१५ ( मूर्ख कृपण द्वारा किसी भी स्थिति में धन को न छोडने का निरूपण ) ।

 

कृपा ब्रह्माण्ड १.२.१६.३८ ( शुक्तिमान् पर्वत से नि:सृत एक नदी ), भागवत १.४.२५(व्यास द्वारा कृपा करके स्त्री आदि हेतु भारत आख्यान की रचना), ७.१५.२४(कृपा द्वारा भूत से उत्पन्न दुःख, समाधि द्वारा दैव से उत्पन्न दुःख आदि हरण का निर्देश), मत्स्य ११४.३२ ( शुक्तिमन्त पर्वत से नि:सृत एक नदी ), मार्कण्डेय ११५.१४/११२.१४ ( सुरथ/सुरत मुनि की कृपा जनित मूर्च्छा से कन्या के उत्पन्न होने पर कृपावती नाम धारण ), स्कन्द ५.३.६.३३ ( नर्मदा नदी के कृपा नाम का कारण ), लक्ष्मीनारायण २.२०८.४५ ( कृपायन मुनि द्वारा मूषक पर कृपा करके मूषक को मार्जार आदि विभिन्न योनियां प्रदान करना, अन्त में पुन: मूषक बनाना ), ३.१९.२८ ( कृपावतीरमा : लक्ष्मी का एक अवतार ) । kripaa

Preliminary remarks on Kripa/Kripaa

 

कृपाण अग्नि २५२.१७ ( कृपाण नामक अस्त्र के हरण, छेदन, घात, भेदन, रक्षण, पातन तथा स्फोटन नामक कर्मों का कथन ), कथासरित् १८.४.९६( सूकर के कण्ठ का स्पर्श करने से कृपाण में रूपान्तरित होना ) । kripaana

 

कृपी भागवत १.७.४५ ( द्रोणाचार्य - पत्नी, अश्वत्थामा - माता, अन्य नाम गौतमी ), १.१३.४ ( तीर्थयात्रा से लौटे हुए विदुर की अगवानी करने वालों में कृपी का उल्लेख ), ९.२१.३६ ( कृपाचार्य -  भगिनी, द्रोणाचार्य - पत्नी ), वायु ९९.२०४ ( शरस्तम्ब में पतित सत्यधृति के शुक्र से मिथुन सन्तानों की उत्पत्ति, राजा शन्तनु द्वारा कृपापूर्वक मिथुन सन्तान के धारण तथा लालन - पालन से जुडवां सन्तति का कृप तथा कृपी नामकरण, कृपी के गौतमी नाम का उल्लेख ), विष्णु ४.१९.६८ ( शरस्तम्ब में पतित सत्यधृति के वीर्य से कृप नामक कुमार तथा कृपी नामक कन्या की उत्पत्ति, द्रोण -  पत्नी, अश्वत्थामा - माता ) । kripee/ kripi

 

कृमि गरुड १.१६५ ( कृमियों के प्रकार व निदान का वर्णन - क्रिमयश्च द्विधा प्रोक्ता बाह्यभ्यन्तरभेदतः । बहिर्मलकफासृग्विट्जन्मभेदाच्चतुर्विधाः ॥ ), १.२२५.१३ ( याचक को कृमि योनि  की प्राप्ति - नरकात्प्रतिमुक्तस्तु कृमिर्भवति याचकः । ), १.२२५.१६ ( न्यास अपहर्त्ता को कृमि योनि की प्राप्ति ), १.२२५.२० ( यज्ञ, दान, विवाह के विघ्नकर्त्ता को प्राप्त योनि ), १.२२५.२२ ( शूद्र पुरुष के ब्राह्मणी स्त्री से व्यभिचार करने पर कृमि योनि की प्राप्ति ), १.२२५.२३ ( कृतघ्नता से प्राप्त योनि ), १.२२५.२४ ( स्त्री वध कर्त्ता व बालहन्ता को कृमि योनि की प्राप्ति ), १.२२५.२७ ( काञ्चन भाण्ड हरण से कृमि योनि की प्राप्ति ), पद्म २.५३.९६(शुद्ध वीर्य से कृमियों की उत्पत्ति न होने का उल्लेख?, प्राणिनां हि कपालेषु कृमयः संति पंच वैद्वावेतौ कर्णमूले तु नेत्रस्थाने ततः पुनः॥) , ५.९९.६४ ( प्राणियों के कपाल में पिङ्गली, शृङ्खली, चपल, पिप्पल, शृङ्गली, जङ्गली प्रभृति कृमियों की स्थिति तथा उनसे कपाल रोगों की उत्पत्ति का कथन - प्राणिनां हि कपालेषु कृमयः संति पंच वै द्वावेतौ कर्णमूले तु नेत्रस्थाने ततः पुनः ), ब्रह्मवैवर्त्त २.३०.५८ ( नरक में कृमि कुण्ड प्रापक दुष्कर्मों का उल्लेख ), ४.८५.१ ( मिष्ट चोर के कृमि बनने का उल्लेख - शुकोऽप्यञ्जनचोरश्च मिष्टचोरः कृमिर्भवेत् ।। ), ब्रह्माण्ड २.३.७.४२८( माष, मुद्ग आदि शिम्बी धान्य व अन्य जन्तुओं से कृमियों के उत्पन्न होने का कथन - शिंबिभ्यो माषमुद्गानां जायन्ते कृमयस्तथा ॥ ), २.३.७४.२० ( कृमी व उशीनर - पुत्र कृमि की कृमिला नामक राजधानी का उल्लेख - कृम्याः कृमिस्तु दर्वायाः सुव्रतो नाम धार्मिकः ।नवस्य नवराष्ट्रं तु कृमेस्तु कृमिला पुरी ॥  ), भविष्य १.१८४.५४( देह के विभिन्न भागों में मि दंशन पर प्रायश्चित्त विधान का कथन - ब्राह्मणस्य ब्रह्मद्वारे पूय शोणितसंभवे । क्रिमिभिर्दश्यते यश्च निष्कृतिं तस्य वच्मि ते ।। ), ४.५४.३१( उदरपूर्ति हेतु हृत गोधूमों का नरक में कृमि बनना ), मत्स्य ५०.२५ ( च्यवन व ऋक्ष - पुत्र, चैद्योपरिचर वसु - पिता, कुरु वंश ), महाभारत शान्ति ३.२० ( भृगु - पत्नी का अपहरण करने पर भृगु के शाप से प्राग्दंश नामक असुर के क्रिमि योनि में पतित होने का उल्लेख, परशुराम – कर्ण कथा ), २१३.१०(स्वेदादि से उत्पन्न क्रिमियों की भांति सुत कृमि को भी त्यागने का निर्देश – स्वदेहजानस्वसंज्ञान्यद्वदङ्गात्कृमींस्त्यजेत्स्वसंज्ञानस्वकांस्तद्वत्सुतसंज्ञान्कृमींस्त्यजेत्।।),  मार्कण्डेय १५.६ ( न्यास अपहर्त्ता द्वारा कृमि योनि की प्राप्ति ), १५.१२ ( यज्ञ, दान व विवाहों में विघ्नकर्त्ता द्वारा कृमि योनि की प्राप्ति ), १५.१७ ( कृतघ्न द्वारा कृमि, कीट, वृश्चिक् आदि योनियों की प्राप्ति ), १५.१९ ( स्त्री वध कर्त्ता द्वारा कृमि योनि की प्राप्ति ),१५.२२ ( लवण अपहरण पर कृमि योनि की प्राप्ति - वीचीकाकस्त्वपहृते लवणे दधनि कृमिः॥ ), १५.२६ ( काञ्चन आदि हरण पर कृमि योनि की प्राप्ति ), वायु ९९.२० ( कृमी व उशीनर - पुत्र कृमि की कृमिला नामक राजधानी का उल्लेख - कृम्याः कृमिस्तु दर्वायाः सुव्रतो नाम धार्मिकः ।।नवस्य नवराष्ट्रन्तु कृमेस्तु कृमिला पुरी। ), विष्णु २.६.१५ ( पिता, ब्राह्मण, देवता या रत्न का अनादर करने वाले को क्रिमिभक्ष नामक नरक की प्राप्ति का उल्लेख ), ४.१८.९ ( उशीनर के शिबि, नृग, नव, कृमि  व वर्म नामक पांच पुत्रों का उल्लेख, अनु वंश - उशीनरस्यापि शिबिनृगनवकृमि वर्माख्याः पञ्च पुत्रा बभूवुः ॥  ), शिव ५.१६.१२( देव, द्विज, पितृद्वेष्टा व रत्नदूषक के कृमिभक्ष नरक में जाने का उल्लेख ), स्कन्द १.१.१८.४९ ( दान के अभाव से इन्द्र के कृमि होने तथा दान के प्रभाव से कृमि के इन्द्र होने का कथन - य इंद्र कृमिरेव स्यात्कृमिरिंद्रो हि जायते॥ तस्माद्दानात्परतरं नान्यदस्तीह मोचनम्॥ ), ५.३.१०३.१४७ ( पुत्र शोक से पीडित गोविन्द ब्राह्मण के कृमियों से ग्रस्त होने में भ्रूणहत्या कारण होने का वर्णन ), ५.३.२११.९ ( ब्राह्मणों द्वारा कुष्ठी रूप धारी शिव को भिक्षा न देने पर भोजन को कृमियों से युक्त पाने का उल्लेख - भुञ्जतेऽस्म द्विजा राजन्यावत्पात्रे पृथक्पृथक् । यत्रयत्र च पश्यन्ति तत्रतत्र कृमिर्बहुः ॥ ), ६.१९४.४१ ( मनुष्यों की दृष्टि में कृमि कीटों की गति के समान ही देवों की दृष्टि में मनुष्यों की गति, ब्रह्मा की दृष्टि में देवों की गति, विष्णु की दृष्टि में ब्रह्मा की गति, शिव शक्ति की दृष्टि में विष्णु की गति तथा सदाशिव की दृष्टि में शिव शक्ति की गति होने का कथन - यथैते दंशमशका मानुषाणां च कीटकाः ॥ जायंते च म्रियंते च गण्यंते नैव कुत्रचित् ॥ इन्द्रादीनां तथा मर्त्याः संभाव्या जगतीतले ॥ ), लक्ष्मीनारायण १.३७०.८७ ( नरक में कृमि कुण्ड प्रापक कर्म का उल्लेख - अभक्ष्यभक्षी मनुजो कृमिकुण्डं प्रयाति वै ।। ), २.२२६.६४( स्वेद से उत्पन्न क्रिमि व धातु से उत्पन्न पुत्र में साम्य का उल्लेख - सादृश्येऽत्र विशेषोऽस्ति साम्येऽपि स्वेदजैः सुतैः । स्वेदजाः क्रमयः प्रोक्ता धातुजाः सुतसंज्ञकाः ।। ), ३.४४.१९( कर्णमूल, नासिकाग्र तथा नेत्रों में स्थित कृमियों का नामोल्लेख - पिंगला शृंगली नाम द्वौ कृमीकर्णमूलयोः । चपलः पिप्पलश्चैव द्वावेतौ नासिकाग्रयोः ।। ) , द्र. क्रिमिkrimi 

कृमिचण्डेश्वर मत्स्य १८१.२९ ( वाराणसी में परम गुह्य आठ स्थानों में से एक कृमिचण्डेश्वर नामक स्थान के शिव सन्निधि से पवित्र होने का उल्लेख ) ।

 

कृमिभक्ष ब्रह्माण्ड ३.४.२.१४७, १६० ( देव - ब्राह्मण द्वेषक, गुरु अपूजक तथा रत्नदूषक को कृमिभक्ष नामक नरक प्राप्ति का उल्लेख ), भागवत ५.२६.७, १८ ( दूसरों को खिलाए बिना स्वयं खा लेने पर कृमिभोजन नामक नरक प्राप्ति ; २८ नरकों में से एक ), वायु १०१.१४७, १५८ ( देव  - ब्राह्मण द्वेषक, गुरु अपूजक तथा रत्नदूषक को कृमिभक्ष नामक नरक की प्राप्ति का उल्लेख ) ।

 

कृमिल मत्स्य ४४.५० (बाह्यका व भजमान के तीन पुत्रों में से एक, क्रोष्टु वंश ), ब्रह्माण्ड २.३.७४.२२ ( कृमिला : कृमी व उशीनर - पुत्र कृमि की राजधानी ) ।

 

कृमी ब्रह्माण्ड २.३.७४.१८ ( उशीनर की पांच रानियों में से एक, कृमि - माता ), वायु ९९.१९ (वही), १०१.१४७ ( घोर दुष्कर्मियों को कृमी प्रभृति नरक प्राप्ति का उल्लेख ) ।

 

कृश ब्रह्माण्ड २.३.६३.१८१ ( कृशशर्मा : इडविड - पुत्र, दिलीप / खट्वांग - पिता ), मत्स्य ४८.१६ ( कृशा : उशीनर की पांच रानियों में से एक, कृश - माता, अनु वंश ), स्कन्द ३.१.४१.१२ ( शृंगी नामक मुनि - पुत्र का मित्र, राजा परीक्षित का मुनि के स्कन्ध पर मृत सर्प रखने तथा मुनि पुत्र द्वारा परीक्षित को सर्पदंश के शाप का प्रसंग ), महाभारत शान्ति १२७( आशा के कृशकारी होने का वर्णन ) । krisha

 

कृशाङ्ग वायु ६९.१४ ( कृशाङ्गी : सुयशा अप्सरा की ४ अप्सरा पुत्रियों में से एक ), लक्ष्मीनारायण ३.९१.७८ ( द्विज - पुत्र कृशाङ्ग द्वारा महिष के ताडन पर महिषी द्वारा कृशाङ्ग के दूषित जन्म का कथन, कृशाङ्ग द्वारा विप्रत्व प्राप्ति हेतु तप तथा कृशानु अग्नि बनना ) ।

 

कृशानु ब्रह्माण्ड १.२.१२.२१ ( सम्राट् अग्नि कृशानु के द्वितीय वेदी में स्थित होने का उल्लेख ), मत्स्य ५१.१९ ( वासव उपनाम वाली कृशानु अग्नि के यज्ञ की वेदी के उत्तर भाग में स्थित होने का उल्लेख ), वायु २९.१९ ( कृशानु नामक सम्राट् अग्नि के यज्ञ के उत्तर में उत्तरवेदी पर निवास करने का उल्लेख ), स्कन्द ४.१.१०.४२ ( अग्निलोक वर्णन के अन्तर्गत शिवशर्मा का गणों से कृशानु के कुलादि तथा आग्नेय पद की प्राप्ति के विषय में प्रश्न ), लक्ष्मीनारायण ३.९१.१२७ ( कृशाङ्ग द्वारा चाण्डाल से द्विज बनने हेतु तप व तप के फलस्वरूप कृशानु अग्नि बनना ) । krishaanu

 


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